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बीएड सेमेस्टर-2 सामाजिक विज्ञान शिक्षण

सरल प्रश्नोत्तर समूह

प्रकाशक : सरल प्रश्नोत्तर सीरीज प्रकाशित वर्ष : 2023
पृष्ठ :160
मुखपृष्ठ : पेपरबैक
पुस्तक क्रमांक : 2765
आईएसबीएन :0

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बीएड सेमेस्टर-2 सामाजिक विज्ञान शिक्षण - सरल प्रश्नोत्तर

प्रश्न- उपचारात्मक शिक्षण का अर्थ बताइए। सामाजिक विज्ञान शिक्षण में इसका क्या महत्व है ? स्पष्ट कीजिए।

अथवा
उपचारात्मक शिक्षण का प्रयोजन एवं महत्व स्पष्ट कीजिए। निदानात्मक परीक्षण की उपचारात्मक शिक्षण में क्या भूमिका है ?

सामान्यतः लघु उत्तरीय प्रश्न

  1. उपचारात्मक शिक्षण ... से क्या तात्पर्य है ? संक्षेप में बताइए।
  2. उपचारात्मक शिक्षण का प्रयोजन क्या है। (कानपुर 2016, 19)
  3. उपचारात्मक शिक्षण पर एक संक्षिप्त टिप्पणी लिखिए। (कानपुर 2006)
  4. उपचारात्मक शिक्षण के महत्व को स्पष्ट कीजिए। (कानपुर 2018)
  5. निदानात्मक परीक्षण की उपचारात्मक शिक्षण में क्या भूमिका है ? स्पष्ट कीजिए।

उत्तर -

उपचारात्मक शिक्षण
(Remidial Teaching)

निदानात्मक परीक्षण द्वारा जिन छात्रों की दृष्टियों को दूर करने के लिए जो कार्य किया जाता उसे उपचारात्मक शिक्षण कहते हैं। उपचारात्मक शिक्षण की सफलता इस बात पर निर्भर करती है कि शिक्षक छात्रों की दृष्टियों के बारे में कितने विस्तार से जानकारी रखता है। दृष्टियों की प्रकृति देखकर व्यक्तिगत एवं सामूहिक दृष्टियों के उपचार की योजना बनाई जानी आवश्यक है। दृष्टियों का उपचार तत्त्वता एवं शीघ्रता से किया जाना आवश्यक होता है अन्यथा दृष्टियाँ स्थायी हो जाती हैं। उपचार करने के लिए छात्रों को विभिन्न वर्गों, जैसे–मन्दबुद्धि, सामान्य बुद्धि एवं अत्युत्तम बुद्धि आदि में विभक्त कर लिया जाता है। इन वर्गों के लिए व्यक्तिगत एवं सामूहिक दृष्टियों के उपचार की योजना निम्न-निम्न रूपों में उनके भिन्न-भिन्न प्रकार बनाए जाती हैं। उपचारात्मक कार्य का स्वरूप शिक्षक निश्चित करते हैं लेकिन यह कार्य तुरन्त होना आवश्यक होता है।

उपचारात्मक शिक्षण करते समय निम्नलिखित बातें ध्यान में रखनी आवश्यक हैं –

(1) कमजोर छात्रों के कक्षा में आगे बैठने के लिए कहना चाहिए।

(2) कक्षा में विषय-वस्तु का विकास उदाहरणों एवं दृष्टान्तों द्वारा करना चाहिए।

(3) जब कोई छात्र किसी विषयवस्तु को नहीं समझ पाये उस छात्र विशेष रूप से उन वस्तुओं, सिद्धान्तों एवं क्रियाओं आदि की ओर ध्यान दिया जाना चाहिए जिनमें छात्र दृष्टियाँ करते हैं।

(4) गणित एवं अन्य विषयों के आधारभूत समस्याओं यथा – उदाहरण, प्रतीकात्मक, एकक नियम, वर्गमूल, समीकरण आदि को अलग सावधानी से पढ़ाना चाहिए।

(5) छात्रों को कक्षा में सोचने एवं हल करने के पर्याप्त अवसर प्रदान करने चाहिए।

(6) कमजोर छात्रों के लिए मॉडल, चार्ट एवं अन्य दृश्य-श्रव्य सामग्री का प्रयोग कर स्पष्ट आदि को स्पष्ट करना चाहिए।

(7) प्रयोगशाला पर लिखी हुई सामग्री स्पष्ट, शब्द, व्यवस्थित एवं उपयोगी होनी चाहिए।

(8) प्रत्येक उपकरण के अनुसार प्रश्न ऐसे हो जिनके उत्तरों को छात्र स्वयं सोच सके।

(9) छात्रों के लिखित कार्यों में सुधार उनके सामने ही करना चाहिए।

(10) छात्रों को कक्षा के बाद भी आवश्यकतानुसार व्यक्तिगत परामर्श देकर उन्हें उनकी दृष्टियों को सुधारने एवं निश्चित करने का प्रयत्न करना चाहिए।

इस प्रकार शिक्षक को शैक्षिक निदान के लिए निदानात्मक परीक्षण बनाना होता है और निदान के आधार पर उपचारात्मक शिक्षण करना होता है।

उपचारात्मक शिक्षण का महत्व
(Importance of Remedial Teaching)

शैक्षिक निदान का सम्बन्ध विद्यार्थियों की व्यक्तिगत योग्यताओं एवं क्षमताओं की जाँच से ही नहीं बल्कि उनकी क्षमताओं, कमजोरियों एवं कठिनाइयों के उपचार से भी है। विशेषतः बालकों की कमजोरियों एवं कठिनाई को दूर करने के लिए अध्यापक को अपनी अध्ययन विधि में आवश्यक परिवर्तन करना पड़ता है जिससे बालक अपनी योग्यता अनुसार अधिकतम अध्ययन अनुभव प्राप्त कर सके। यह अध्ययन प्रक्रिया निदानात्मक शिक्षण कहलाता है। जिस प्रकार एक सफल चिकित्सक किसी रोगी की चिकित्सा करने से पूर्व उसके रोग का निदान करता है तत्समय चिकित्सा आरम्भ करता है ठीक उसी प्रकार एक सफल अध्यापक भी सर्वप्रथम यह ज्ञान करता है कि बालक किस कारणों से विषय को समझने में कठिन अनुभव कर रहा है। निदान के बाद यथोचित चिकित्सा करता है। सफल अध्यापक को यह ज्ञान चिकित्सक से अधिक होनी चाहिए, क्योंकि किसी रोगी का गलत उपचार जीवन को संकट में डाल सकता है जबकि शिक्षा सम्बन्धी कारण यह भी हो सकता है कि वह भविष्य की दिशा को बिगाड़ सकता है।

ऐसे अध्यापक विभिन्न प्रकार की विधियों, परीक्षणों एवं उपकरणों से सहायता लेता है। निदानात्मक शिक्षण समय सापेक्ष विधि है। निदानात्मक परीक्षण से प्राप्त निष्कर्षों को संकलित कर छात्रों का निदान किया जाये ताकि शीघ्र ही उनकी कमजोरियों का निदान तथा उनका उपयुक्त उपचार किया जाये। बालक की कमजोरी को इस प्रकार समाप्त करने का प्रयत्न करे पुनः विभिन्न उपचारात्मक विधियों की सहायता से उपचार करते हैं और बालक की कमजोरियों को दूर कर उन्हें पूर्ण बनाने का प्रयत्न करते हैं।

निदानात्मक परीक्षण की उपचारात्मक शिक्षण में भूमिका
(Role of Diagnostic Test in Remedial Teaching)

शाब्दिक रूप में निदानात्मक परीक्षण का अर्थ होता है ऐसा परीक्षण या मूल्यांकन कार्यक्रम जिसे किसी प्रकार के निदान हेतु प्रयुक्त किया जाता है। अगर कोई व्यक्ति शारीरिक या मानसिक रूप से अस्वस्थ हो तो उसे चिकित्सीय प्रकार के निदानात्मक परीक्षण से अपनी अस्वस्थता सम्बन्धी समस्या के निवारण हेतु गुजरना पड़ेगा। आप भी जब बीमार होने पर किसी डॉक्टर या अस्पताल में गये होंगे तो आपकी बीमारी के कारणों की तलाश करने के लिए आपको किसी-न-किसी प्रकार के परीक्षण जैसे- खून परीक्षण, मूत्र या मल परीक्षण, एक्स-रे, ई.सी.जी., ऐक्सरे-बैठक आदि से गुजरना की सलाह दी गई होगी। इन परीक्षणों के जरिए ही डॉक्टर यह जान पाते हैं कि आपकी बीमारी या अस्वस्थता का असली कारण क्या है और इसी आधार पर वह आपसे बहुधा आपकी उस बीमारी से छुटकारा दिलाने हेतु दवा, उपचार तथा अन्य उपचारात्मक उपाय अपनाने की सलाह देते हैं। बिल्कुल ऐसी ही बात शिक्षा के क्षेत्र में भी प्रमुख निदानात्मक परीक्षण और उपचारात्मक शिक्षण पर भी लागू होती है। निदानात्मक शिक्षण उपचारात्मक शिक्षण के समान ही छात्र की शैक्षिक समस्याओं के समाधान से सम्बद्ध होता है।

निदानात्मक शिक्षण के अर्थ को समझने के लिए निदानात्मक के अंग्रेजी शब्द 'डायग्नॉसिस' (Diagnosis) के अर्थ को समझना आवश्यक है। डायग्नॉसिस का हिन्दी पर्यायवाची निदान है जिसका शाब्दिक अर्थ है मूल कारण अथवा यथार्थ निर्णय। जिस प्रकार चिकित्सक रोगी में कुछ लक्षणों को देखने के बाद यह निर्णय करता है कि उस प्रकार शिक्षण में छात्र विषयवस्तु, कार्य-कलाप, मनोवृत्ति या उसकी अध्ययन सम्बन्धी दृष्टियों और कठिनाइयों की जानकारी करके उसकी कठिनाइयों का निदान करता है। शिक्षक जिस विधि का प्रयोग करके छात्र के उत्तर शैक्षिक समस्याओं का ज्ञान प्राप्त करता है वह निदानात्मक शिक्षण कहलाता है।

गुड व मप्ली के अनुसार, "निदानात्मक परीक्षण शिक्षण-अधिगम में छात्रों की कठिनाइयों के विशेष स्वरूप का निदान करने के लिए उनके स्तरीय की सावधानी से जाँच करने की प्रक्रिया को उल्लिख करता है।"

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