बी एड - एम एड >> बीएड सेमेस्टर-2 सामाजिक विज्ञान शिक्षण बीएड सेमेस्टर-2 सामाजिक विज्ञान शिक्षणसरल प्रश्नोत्तर समूह
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बीएड सेमेस्टर-2 सामाजिक विज्ञान शिक्षण - सरल प्रश्नोत्तर
प्रश्न - “विभिन्न सामाजिक विषयों का कोई स्वतंत्र अस्तित्व नहीं होता है वरन् ये मिश्रित एवं संयुक्त एकीकृत स्वरूप ग्रहण कर लेते हैं।” इस कथन की व्याख्या कीजिए।
उत्तर -
सामाजिक अध्ययन एकीकृत अध्ययन
सामाजिक अध्ययन इतिहास, भूगोल तथा नागरिकशास्त्र का योग मात्र नहीं है अपितु इन विषयों से वह उसी सामग्री को ग्रहण करता है जो मानव समाज के वर्तमान तथा दैनिक जीवन के सम्बन्धों को स्पष्ट करने में सहायक होती है। इन विषयों में विभिन्न सामाजिक विषयों को स्थान प्राप्त होता है। किन्तु इनका कोई स्वतंत्र अस्तित्व नहीं होता है। वरन् ये मिश्रित एवं संयुक्त एकीकृत स्वरूप ग्रहण कर लेते हैं। दूसरे शब्दों में इस स्वरूप में सामाजिक विषय अपना स्वतंत्र अस्तित्व नहीं रखते हैं अपितु समन्वित रूप में अपने को व्यस्त करते हैं।
हमारे देश में सर्वप्रथम माध्यमिक शिक्षा आयोग (1952-53) ने इस विषय का प्रतिपादन किया। सामाजिक विषय के समन्वित स्वरूप में आयोग ने लिखा है “इतिहास, भूगोल, अर्थशास्त्र, नागरिकशास्त्र को समन्वित करके इनके शिक्षण को सम्पन्न किया जाना चाहिए।” “एकीकृत स्वरूप की विषय सामग्री ही जो जीवन की वास्तविक परिस्थितियों में व्यवहारिक हो सकती है।”
आयोग के सुझाव पर विषय को शैक्षिक पाठ्यक्रम में सम्मिलित कर लिया गया।
नवीन शैक्षिक संरचना के अन्तर्गत सामाजिक अध्ययन को निम्न प्राथमिक स्तर की कक्षा 1 तथा कक्षा 2 में पर्यावरण शिक्षा के रूप में परिवर्तित कराया जाता है।
उच्च प्राथमिक कक्षाओं में सामाजिक अध्ययन का व्यापक स्वरूप सम्मिलित है, इसके अन्तर्गत इतिहास, भूगोल, नागरिकशास्त्र में चुने गए अंशों को एकीकृत किया गया है।
निम्न माध्यमिक स्तर कक्षा 6 तथा कक्षा 8 की सामाजिक विज्ञानों के बीच सहसम्बन्ध स्थापित करते हुए इतिहास, भूगोल, नागरिकशास्त्र का अलग-अलग अध्ययन कराया जाता है।
उच्च माध्यमिक स्तर पर सामाजिक विज्ञानों को अलग-अलग विषयों के रूप में छात्रों के सम्मुख प्रस्तुत किया जाता है।
सामाजिक अध्ययन के विषयों में इतिहास, भूगोल, नागरिकशास्त्र व अर्थशास्त्र को सम्मिलित किया जाता है। लेकिन समय समय पर विद्यालयों में इन विषयों को अलग-अलग विषयों के रूप में पढ़ाया जाता रहा है। एक सामान्य विद्यार्थी इन विषयों के अध्ययन में अनुरूप दृष्टि से कोई विशेष रूचि नहीं लेता है। कभी-कभी तो विद्यार्थी इन विषयों के प्रति उदासीनता व अरुचि का प्रदर्शन करता है। इन विषयों के अध्ययन से सम्बन्ध है कि उसके मन में कुछ निश्चित विचारों का उदय होता है परन्तु ये विचार उसके लिए सर्वथा अनुपयुक्त होते हैं क्योंकि वह इन विषयों को विभिन्न सन्दर्भों में रखकर समीपस्थ व सार्थक नहीं बना सकता। उसके पास उसमें क्षमता पैदा नहीं होती। उन्हें केवल उन विषयों को सम्बन्ध में सतही ज्ञान ही प्राप्त हो पाता है।
सामाजिक अध्ययन के शिक्षण के नये दृष्टिकोण में विषयवस्तु (इतिहास, भूगोल, आदि) क्रियाओं को तोड़कर पाठ्यक्रम को इस तरह निर्मित किया जाता है जिससे उसे सामाजिक के रूप में पढ़ाया जा सके। बालक को पहले उन्हीं उन बातों को जानने की होती है जो उसके निकटतम है और उसके दैनिक अनुभव में आती हैं। उन बातों को बालक अधिक जानना चाहता है जो उसके लिए समस्या बनकर प्रयोगात्मक रूप में आती है। अतः सामाजिक अध्ययन के पाठ्यक्रम का प्रारम्भ उन वस्तुओं से किया जाता है जो बालकों के अनुभवों से अधिक सम्बन्ध रखती हैं। बालक पहले स्कूल से अपना घर में स्थित एवं फिर पास-पड़ोस के मनुष्यों और फिर उसके बाहर के लोगों में, अतः सामाजिक अध्ययन के पाठ्यक्रम में पहले परिवार या खुद के बारे में और फिर पास-पड़ोस के बारे में बताना उचित होगा।
मनुष्य एक सामाजिक प्राणी है। सामाजिक अध्ययन के शिक्षण का उद्देश्य है कि बालक को इस प्रकार की शिक्षा दी जाए जिससे वह समाज के विषय में जानें उसमें सुखी रह सके और उसके लिए उपयोगी सिद्ध हो। बालक अपने वातावरण के अनुकूल और वातावरण को अपने अनुकूल बना सके तभी वह सफल नागरिक हो सकेगा।
अतः सामाजिक अध्ययन के द्वारा बालक पहले स्थानीय वातावरण का सक्रिय प्रयोग अपने ज्ञान की बुद्धि के लिए करना सीखता है। सामाजिक अध्ययन के शिक्षण में कंठस्थ करने की अपेक्षा समझने पर अधिक बल दिया जाता है। कंठस्थ करने में बालक केवल निश्चित विचारों को ग्रहण करता है परंतु सामाजिक अध्ययन का लक्ष्य है, कि बालक स्पष्ट विचारों को ग्रहण करें जिन्हें वह भली-भांति समझता है और उन्हें संकलित करके नए व विभिन्न प्रकार के स्वरूपों की प्रस्तुति कर सके।
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