बी एड - एम एड >> बीएड सेमेस्टर-2 वाणिज्य शिक्षण बीएड सेमेस्टर-2 वाणिज्य शिक्षणसरल प्रश्नोत्तर समूह
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बीएड सेमेस्टर-2 वाणिज्य शिक्षण - सरल प्रश्नोत्तर
प्रश्न- निदानात्मक एवं उपचारात्मक शिक्षण में अन्तर बताइये।
अथवा
निदानात्मक परीक्षण एवं उपचारात्मक शिक्षण से आप क्या समझते हैं ?
अथवा
नैदानिक परीक्षण एवं उपचारात्मक शिक्षण में अन्तर बताइये।
उत्तर-
(Meaning of Diagnostic Teaching)
निदानात्मक शिक्षण उपचारात्मक शिक्षण के समान ही छात्र की शैक्षिक समस्याओं के समाधान से सम्बन्धित है। निदानात्मक शिक्षण के अर्थ को समझने के लिए निदानात्मक के अंग्रेजी शब्द डायगनोसिस ( Diagnosis) के अर्थ को समझना आवश्यक है।
डायगनौसिस (Diagnosis) का हिन्दी रूपान्तर निदान है जिसका शाब्दिक अर्थ है मूल कारण अथवा रोग निर्णय। जिस प्रकार चिकित्सक रोगी के कुछ लक्षणों को देखकर उसके रोग का निदान करता है।उसी प्रकार शिक्षक छात्र की विषयगत समस्या, पिछड़ेपन, मन्दता या उसकी अधिगम सम्बन्धी त्रुटियों और कमियों का ज्ञान प्राप्त करके उसकी कठिनाइयों का निदान करता है। शिक्षक जिस विधि का प्रयोग करके छात्र की उक्त शैक्षिक समस्याओं का ज्ञान प्राप्त करता है वह निदानात्मक शिक्षण कहलाता है।
गुड व ब्राफी के अनुसार- “निदानात्मक शिक्षण अधिगम में छात्रों की कठिनाइयों के विशिष्ट स्वरूप का निदान करने के लिए उनके स्तरों की सावधानी से जाँच करने की प्रक्रिया का उल्लेख करता है।"
(Meaning of Remedial Teaching)
निदानात्मक परीक्षण द्वारा इंगित छात्रों की त्रुटियों को दूर करने के लिए जो कार्य किया जाता उसे उपचारात्मक शिक्षण कहते हैं।उपचारात्मक शिक्षण की सफलता इस बात पर निर्भर करती है कि शिक्षक शिक्षक छात्रों की त्रुटियों के बारे में कितने विस्तार से जानकारी रखता है। त्रुटियों की प्रकृति देखकर व्यक्तिगत एवं सामूहिक त्रुटियों के उपचार की योजना बनाई जानी आवश्यक है। त्रुटियों का उपचार तत्परता एवं शीघ्रता से किया जाना आवश्यक होता है अन्यथा त्रुटियाँ स्थाई हो जाती हैं। उपचार करने के लिए छात्रों को विभिन्न वर्गों - मन्दबुद्धि, सामान्य बुद्धि एवं प्रखर बुद्धि आदि में विभक्त कर लिया जाता है। इन वर्गों के लिए व्यक्तिगत एवं सामूहिक त्रुटियों के उपचार की योजना भिन्न-भिन्न वर्गों के लिए भिन्न-भिन्न बनाई जाती है।उपचारात्मक कार्य का स्वरूप शिक्षक निश्चित करते हैं लेकिन यह कार्य तुरन्त होना आवश्यक होता है। पिछड़े बालकों का ध्यान किसी भी कार्य में बहुत कम लगता है तथा उनके विचारों में व्यापकता का अभाव रहता है। इस प्रकार के छात्रों के लिये व्यक्तिगत अनुदेशन काफी लाभदायक सिद्ध हो सकता है। ये बालक किसी आसान से कार्य को सफलतापूर्वक कर लेने पर यह अपेक्षा करते हैं कि अन्य लोग उनकी प्रशंसा करें। कक्षा के वर्ग बनाते समय ऐसे बालकों को एक ही वर्ग में रखा जाये। कक्षा में ऐसे बालकों की संख्या 20-25 से अधिक नहीं होनी चाहिये। ऐसे बालकों के अध्ययन को प्रभावी बनाने के लिये निम्नलिखित उपाय करने चाहिये -
(1) कमजोर छात्रों को कक्षा में आगे बैठने के लिए कहना चाहिए।
(2) कक्षा में विषय-वस्तु का विकास उदाहरणों एवं दृष्टान्तों द्वारा करना चाहिए।
(3) कक्षा में किसी भी विषय-वस्तु को पढ़ाते समय छात्रों का ध्यान विशेष रूप से उन प्रत्ययों, सिद्धान्तों एवं क्रियाओं आदि की ओर खींचा जाना चाहिए जिनमें छात्र त्रुटियाँ करते हैं।
(4) गणित एवं अन्य विषयों के आधारभूत सम्प्रत्ययों यथा—दशमलव, प्रतिशत, एकक नियम, वर्गमूल, समीकरण आदि को अत्यन्त सावधानी से पढ़ाना चाहिए।
(5) छात्रों को कक्षा में सोचने एवं हल करने का पर्याप्त अवसर प्रदान करने चाहिए।
(6) कमजोर छात्रों के लिए मॉडल, चार्ट एवं अन्य दृश्य-श्रव्य सामग्री का प्रयोग कर प्रत्ययों आदि को स्पष्ट करना चाहिए।
(7) श्यामपट्ट पर लिखी हुयी सामग्री स्पष्ट, शुद्ध, व्यवस्थित एवं उपयोगी होनी चाहिए।
(8) प्रत्येक उपविषय के अभ्यास प्रश्न ऐसे हों जिनके उत्तरोंको छात्र स्वयं सोच सकें।
(9) छात्रों के लिखित कार्य में सुधार उनके सामने ही करना चाहिए।
(10) छात्रों को कक्षा के बाद भी आवश्यकतानुसार व्यक्तिगत परामर्श देकर उन्हें त्रुटि सुधार एवं सीखने में सहायता देनी चाहिए।
इस प्रकार शिक्षक को शैक्षिक निदान के लिए निदानात्मक परीक्षण बनाना होता है और निदान के आधार पर उपचारात्मक शिक्षण करना होता है।
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