बी एड - एम एड >> बीएड सेमेस्टर-2 वाणिज्य शिक्षण बीएड सेमेस्टर-2 वाणिज्य शिक्षणसरल प्रश्नोत्तर समूह
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बीएड सेमेस्टर-2 वाणिज्य शिक्षण - सरल प्रश्नोत्तर
प्रश्न- वाणिज्य के मूल्य की व्याख्या कीजिए।
उत्तर-
वाणिज्यिक क्रियाएँ आर्थिक क्रियाएँ होती हैं। अतः धन अर्जित करना वाणिज्यिक क्रियाओं का प्रथम प्रमुख उद्देश्य है। परन्तु यदि हम यह कहें कि व्यवसाय का उद्देश्य धन अर्जित करना ही है तो यह उचित नहीं होगा। उसे सामाजिक मूल्यों की ओर ध्यान देना होगा। यदि उचित सामाजिक मूल्यों की तरफ कोई ध्यान नहीं देगा तो सम्भव है कि कुछ समय पश्चात् अपना अस्तित्त्व ही खो बैठे। अतः यह जरूरी हो जाता है कि वह अपनी नीतियों के भीतर सामाजिक मूल्यों को वरीयता दे। उसे यह नहीं भूलना चाहिए कि जो वस्तु वह समाज को दे रहा है, क्या वह उसकी उचित कीमत ले रहा है? जो माप-तौल उसने वस्तु पर लिखा है, क्या वह उचित है आदि। अतः यह उसका नैतिक कर्त्तव्य है कि वह वस्तु अथवा सेवा का उचित मूल्य तय करे। उसके द्वारा जिस भी वस्तु का निर्माण किया जा रहा है, उसकी किस्म ठीक होनी चाहिए। व्यवसाय के सामाजिक मूल्यों के भीतर ग्राहकों, कर्मचारियों, अंशधारियों तथा समाज के अन्य पक्षों के प्रति उत्तर-दायित्व को शामिल किया जाता है।
(क) ग्राहकों तथा उपभोक्ताओं के प्रति सामाजिक मूल्य - प्रत्येक व्यवसायी का कर्तव्य होना चाहिए कि वह अपने ग्राहकों तथा उपभोक्ताओं को पूरी तरह सन्तुष्ट रखे। व्यवसायी को अपने ग्राहकों तथा उपभोक्ताओं के प्रति सामाजिक मूल्य की भावना को निभाने की इच्छा खुद अपने आप ही उद्भूत करनी चाहिए। व्यवसायी को अपने ग्राहकों तथा उपभोक्ताओं के अनेकों कार्य करने चाहिए जैसे-.
(i) सभी वर्गों की जरूरत एवं क्रय शक्ति के अनुसार-वस्तुओं एवं सेवाओं का निर्माण करना,
(ii) उत्तम एवं प्रमाणित किस्म उपलब्ध कराना तथा उन्हें हमेशा ताजी व टिकाऊ वस्तुएँ ही देना,
(iii) वस्तुओं एवं सेवाओं को सही कीमत पर उपलब्ध कराना,
(iv) वस्तुओं की गैर-कानूनी तरीके से जमाखोरी न करना,
(v) ग्राहकों से प्राप्त होने वाली शिकायतों पर पूरी तरह ध्यान देना एवं उनका समाधान करने के प्रयास करना।
(ख) राज्य के प्रति सामाजिक मूल्य - कोई भी व्यवसाय सरकारी मदद के अभाव में सफलतापूर्वक नहीं चल सकता। सरकार व्यवसाय के सफल संचालन के लिए समय-समय पर नियम एवं उपनियम बनाती है तथा संरक्षण प्रदान करती है।
(i) विभिन्न सरकारी करों का ईमानदारी से एवं यथासमय भुगतान करना,
(ii) सरकारी कर्मचारियों को निजी स्वार्थ के लिए रिश्वत न दी जाए,
(iii) चोर-बाजारी एवं मिलावट आदि को रोकने में सरकार को सहायता देना,
(iv) समाज विरोधी तत्त्वों-जमाखोरों, चोर बाजारी करने वालों, सरकारी करों की चोरी करने वालों तथा सरकारी कर्मचारियों को घूस देने वालों आदि को पकड़वाने में सरकार की सहायता करना।
(v) देश के सुसंगठित एवं मजबूत आर्थिक विकास में सक्रिय सहयोग देना,
(vi) सरकारी तथा व्यावसायिक कार्यों में राजनीतिक सहायता व सहयोग न लेना, एक अच्छे नागरिक तथा देशभक्त की तरह सरकारी नियमों एवं नीतियों का पालन करना,
(vii) सरकार द्वारा तय व्यापारिक नीति का पालन करना।
(ग) जगत के प्रति व्यवसाय के मूल्य - आज का व्यवसाय केवल अपने राष्ट्र में ही सीमित न होकर पूरे जगत में फैल चुका है। यातायात के साधन इतने अधिक तीव्र हैं कि दूरी जैसी कठिनाइयों को बहुत जल्द खत्म कर लिया जाता है। अतः आज का व्यवसाय विश्व के कोने-कोने तक फैल चुका है। एक व्यापारिक गृह विदेशों में राजनीतिक, आर्थिक, व्यापारिक, सांस्कृतिक तथा अन्य क्षेत्रों में मधुर संबंध स्थापित करके पूरे समाज की तरक्की के लिए लाभकारी सिद्ध हो सकता है।
(i) विदेशी बाजारों में अनुचित प्रतियोगिता न होने देना,
(ii) निर्यात की जाने वाली वस्तुओं की किस्म का निश्चित रूप से ध्यान रखना तथा उनमें सुधार करते रहना।
(iii) दूसरे देशों के विकास कार्य में सहायता करना।
(iv) अन्तर्राष्ट्रीय शांति बनाये रखने में सहायता प्रदान करना।
(v) अन्य देशों को आर्थिक संकट के समय यथासम्भव मदद देना।
(vi) अन्य देशों के साथ ईमानदारी का श्रेष्ठ व्यवहार करना।
(घ) समाज या समुदाय के प्रति सामाजिक मूल्य - कोई भी व्यवसाय समाज के सहयोग के बिना सफलतापूर्वक नहीं चल सकता। अतः वर्तमान समय में व्यवसायी से समाज भी बहुत कुछ अपेक्षा रखता है, जैसे-
(i) एकाधिकार तथा शोषण की प्रकृति को समाप्त करना,
(ii) समाज के बेरोजगार लोगों को रोजगार प्रदान कराना,
(iii) समुदाय की भावनाओं को हानि न पहुँचने देना,
(iv) समाज के सदस्यों का जीवन-स्तर ऊँचा करने में सहयोग देना,
(v) समाज के विभिन्न कल्याणकारी कार्यों में पूर्ण सहयोग देना।
(ङ) अन्य व्यवसायों के प्रति सामाजिक मूल्य - समाज में हरेक व्यवसायों की अपनी पृथक्-पृथक् भूमिका होती है तथा अलग स्थान होता है। हरेक व्यवसाय को यह मानना चाहिए कि दूसरा व्यवसाय उसका प्रतियोगी न होकर उसका पूरक है।
(i) बड़ी इकाइयाँ छोटी इकाइयों को अपनी प्रतियोगी न मानकर अपनी पूरक एवं सहयोगी मानें,
(ii) सरकारी तथा निजी क्षेत्र एक-दूसरे के सहयोगी तथा पूरक बनें,
(iii) आपस में निर्भर रहने वाली व्यावसायिक इकाइयाँ एक-दूसरे को आवश्यक तकनीकी एवं वित्तीय सहयोग प्रदान करें।
(च) पूर्तिकर्त्ताओं के प्रति सामाजिक मूल्य - विभिन्न पूर्तिकर्त्ता व्यवसाय हेतु कच्चा माल, मशीन व औजार, कार्यालय के विभिन्न उपकरण अथवा अन्य आवश्यक सामग्री जुटाते हैं तथा व्यावसायिक सफलता में सहायक होते हैं। पूर्तिकर्त्ताओं के प्रति व्यवसाय के सामाजिक मूल्य हैं यथा-
(i) पूर्तिकर्त्ताओं से खरीद की गई वस्तुओं की उचित कीमत का यथासमय भुगतान करना,
(ii) पूर्तिकर्ताओं के मूल्यों का भुगतान व्यापार की शर्तों के अनुसार-शीघ्र करना,
(iii) जरूरतों की पूर्ति हेतु पूर्तिकर्त्ताओं को पर्याप्त एवं उचित समय देना,
(iv) पूर्तिकर्ताओं को ग्राहकों की पसंद, आदतों तथा फैशन में लगातार होने वाले परिवर्तनों से पहचान कराते रहना।
(छ) उद्यमिता - व्यवसाय में खतरों ने उसे एक साहसपूर्ण मानवीय क्रिया बना दिया है। व्यवसायी साहसी होता है जो निरन्तर कुछ वर्षों तक हानि होने पर भी लाभ के लक्ष्य की आशा में व्यवसाय करता रहता है। व्यवसाय साहस की आधारशिला पर ही आधारित है। एक साहसी किसी भी व्यवसाय की स्थापना करने से पूर्व उसके व्यावहारिक पहलू पर गौर से विचार करता है और इसके पश्चात् ही उसकी स्थापना करके अपना लक्ष्य तय करता है।
(ज) उपयोगिता का सृजन - उपयोगिता का सृजन वाणिज्यिक क्रियाओं का प्रधान लक्ष्य है। उपयोगिता के सृजन से व्यापारी, उपभोक्ताओं तथा देश सभी को फायदा होता है। यह उपयोगिता कई प्रकार की हो सकती है, जैसे- स्थान उपयोगिता, समय उपयोगिता, रूप उपयोगिता आदि,
(झ) व्यवसाय, कन्ना और विज्ञान दोनों है - व्यवसाय एक कला है, करने के लिए व्यक्तिगत निपुणता, अनुभव एवं समझ की आवश्यकता होती है।
क्योंकि इसको सम्पन्न दूसरी तरफ यह तय भी है, क्योंकि विज्ञान की तरह व्यवसाय के भी कुछ निश्चित सिद्धान्त एवं लक्ष्य हैं। क्योंकि व्यवसाय में कला तथा विज्ञान दोनों के लक्षण पाये जाते हैं, इसलिए इसके कलात्मक एवं वैज्ञानिक रूप को पृथक्-पृथक् नहीं किया जा सकता। क्योंकि सैद्धान्तिक एवं व्यावसायिक विज्ञान दोनों एक-दूसरे के पूरक हैं तथा दोनों एक-दूसरे के बिना अधूरे हैं।
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