लोगों की राय

बी ए - एम ए >> बीए सेमेस्टर-4 चित्रकला

बीए सेमेस्टर-4 चित्रकला

सरल प्रश्नोत्तर समूह

प्रकाशक : सरल प्रश्नोत्तर सीरीज प्रकाशित वर्ष : 2023
पृष्ठ :160
मुखपृष्ठ : पेपरबैक
पुस्तक क्रमांक : 2750
आईएसबीएन :0

Like this Hindi book 0

5 पाठक हैं

बीए सेमेस्टर-4 चित्रकला - सरल प्रश्नोत्तर

 

 

 

प्रश्न- अलंकार को सौन्दर्य का साधन क्यों कहा जाता है?

 

 

 

अथवा
सौन्दर्य के अलंकार मत के विषय में लिखिए।

 

उत्तर-

 

सौन्दर्य के अंलकार सिद्धान्त (मत)
आचार्य भामह (7वीं शताब्दी) 
[Concept of Alankara: Bhaman
(7th Century)]

 

अलंकार का शाब्दिक अर्थ है भाषा की सजावट, सुशोभित करने वाला, अर्थात् काव्य के शोभाकारक धर्म अलंकार कहे जाते हैं। इस गवेषणा में विद्वानों की दृष्टि सर्वप्रथम अलकार पर गई। भामह ने नाट्यशास्त्र से सम्बन्धित विषयों का प्रतिपादन न करके काव्यशास्त्र सम्बन्धी विषयों का ही प्रतिपादन किया है। इनकी प्रसिद्ध रचना 'काव्यलकार' है।
भामह के अनुसार, काव्य आदि में 'रस' उतनी प्रधान वस्तु नहीं है जितने जन्य काव्य- लक्षण है।

उनके अनुसार शब्द तथा अर्थ एक ही प्रकार का होना काव्य है। इसमें आनन्द प्राप्त करने वाला तत्व वक्रावित है। इस प्रकार काव्य का सर्वाधिक मूल तप अलंकार है और किसी विलक्षण भाव को विलक्षण शब्दों में विलक्षण रूप से प्रकट करना अलंकार है।

भामह के अनुयायी दण्डी ने भी कहा है कि काव्य को शोभित करने वाले धर्म को अंलकार कहते हैं।'

'काव्य शोभाकरान् धर्मान् अंलकारान् प्रचक्षते काव्यादर्श', 2/1 अगली लाइन से भामह ने काव्य से प्राप्त होने वाले आनन्द की विस्तृत व्याख्या नहीं की है। उनके जो संक्षिप्त उल्लेख प्राप्त होते हैं, उनके अनुसार काव्य से होने वाला अनुभव आनन्द प्रदान करने वाला होता है। भामह ने इसका सम्बन्ध कबि से माना है जबकि अभिनव गुप्त ने श्रोता अथवा पाठक से माना है। नाट्यशास्त्र में भरतमुनि ने उपमा, रूपक, व यमक का वाचिक अभिनय में विवेचन किया है। भरत ने इनका प्रयोग रसाश्रित ही माना है किन्तु अंलकारों को प्रधानता देकर विधिवत् साहित्यशास्त्र की रचना 'काव्यशास्त्र' के रूप में आचार्य भामह ने की। काव्य में सौन्दर्य की सृष्टि करने वाले तत्त्व को इन्होंने अंलकार की संज्ञा दी। इन्होंने काव्यालंकार को छः परिच्छेदों में विभाजित किया, जिनमें हैं-

1. काव्य- शरीर निर्णय
2. अंलकृति- निर्णय
3. दोष-निर्णय
4. न्याय निर्णय
5. शब्द शुद्धि पर विचार
6. वक्रोक्ति।

भामह ने शब्द शुद्धि पर विचार किया है। इन्होंने वक्रोक्ति को ही समस्त अंलकारों का मूल माना है तथा उनकी संख्या 98 बताई है। इनका मत है कि काव्य में सर्वत्र वक्रोक्ति का ही प्रभाव है। कवि को इसी की साधना करनी चाहिए, क्योंकि इसके बिना कोई अलकार नहीं बन सकता। जिस प्रकार आभूषण सौन्दर्य प्रसाधन माने जाते हैं, उसी प्रकार काव्यशास्त्र में अंलकार कवि-वाणी के सौन्दर्य उपकरण हैं। काव्य में आहलाद या चमत्कार की सृष्टि अंलकार से होती है और रस के अनुभव से भी आहलाब उत्पन्न होता है इसलिए रस भी अंलकार है।

भामह के मतानुसार - काव्य के तीन गुण हैं माधुर्य, औज तथा प्रसाद प्रसाद गुण के कारण काव्य रचना का अर्थ बालक से लेकर वृद्ध तक सबकी समझ में सरलता से आ जाता है। इस सरलता के साथ - साथ भाषा में ध्वनियों आदि की मधुरता का संयोग होने से मन को जिस आनन्द की अनुभूति होती है, वह माधुय गुण है। जब भाषा में समासयुक्त पदों का प्रयोग हो तो औज गुण होता है। किन्तु ये गुण काव्य-रचना के लिये मूल रूप से आवश्यक नहीं है। काव्य का मूल गुण वक्रोक्ति है। यदि काव्य में वक्रोक्ति न हो और तीनों गुण हों तब भी वह काव्य की श्रेणी तक में पहुँच कर साधारण गीत मात्र रह जाता है। अतः काव्य हेतु 'रस' भी उतना आवश्यक नहीं है जितना वक्रोक्ति अलंकार।

उक्त विवरण से यह स्पष्ट है कि भामह अंलकारवादी थे। अंलकार का अर्थ है भाषा की सजावट। पर अंलकार केवल बाहरी सजावट न होकर अभिव्यंजना से आन्तरिक सम्बन्ध रखते हैं। भावों की अभिव्यंजना का विशेष प्रकार ही अंलकार है। ध्वनि, रूप एवं गुण अथवा क्रिया के आधार पर जिन अंलकारों का विधान किया जाता है वे साम्य मूलक अंलकार है। परस्पर विरोधी पदार्थ देखने पर जो प्रभाव होता है उसके हेतु विरोध मूलक अंलकारों की योजना की जाती है।

...Prev | Next...

<< पिछला पृष्ठ प्रथम पृष्ठ अगला पृष्ठ >>

अन्य पुस्तकें

लोगों की राय

No reviews for this book