बी ए - एम ए >> बीए सेमेस्टर-4 चित्रकला बीए सेमेस्टर-4 चित्रकलासरल प्रश्नोत्तर समूह
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बीए सेमेस्टर-4 चित्रकला - सरल प्रश्नोत्तर
प्रश्न- आनन्दवर्धन के द्वारा प्रस्तुत सौन्दर्य की अवधारणा लिखिए।
उत्तर-
भारतीय साहित्य, संगीत, चित्र, मूर्ति और वास्तुकलाओं का मौलिक सम्बन्ध सौन्दर्य से रहा है और उसमें विविध रूपों द्वारा सौन्दर्याभिव्यंजना होती रही है। इसके साथ ही काव्यशास्त्र भी सैद्धान्तिक आधार पर प्रत्यक्षतः सौन्दर्य से सम्बद्ध रहा है। काव्यशास्त्र में समय-समय पर विविध सम्प्रदायों का आविर्भाव होता रहा, जिनका विषय सौन्दर्य, उसका आस्वादन एवं प्रभाव तथा कला-तत्व रहे हैं।
काव्यशास्त्र के सिद्धान्त व्यापक होने के कारण अन्य कलाओं के सन्दर्भ में प्रयुक्त किये जाते रहे हैं। इस प्रकार भारतीय काव्यशास्त्र को सौन्दर्यशास्त्र के समीप माना जा सकता है। भारतीय काव्यशास्त्र की परम्परा में रस, ध्वनि, अलंकार, वक्रोक्ति, औचित्य और रीति सम्प्रदायों का अपना महत्व है और प्रत्येक सम्प्रदाय का मूल लक्ष्य सौन्दर्य की खोज है।
भारतीय सौन्दर्यशास्त्र का वास्तविक एवं विकसित रूप काव्यशास्त्र में ही दृष्टव्य है। यद्यपि यह सौन्दर्यशास्त्र की एक स्वतन्त्र शाखा के रूप में प्रतिष्ठित नहीं हुआ तथापि सौन्दर्य के मूल तत्वों, विविध पक्षों एवं अंगों का विवेचन एवं विश्लेषण अत्यन्त सूक्ष्म तथा गहन स्तर पर किया गया है। प्राचीन काव्यशास्त्र में पाँच प्रमुख सम्प्रदाय रहे हैं-
(1) रस सिद्धान्त
(2) ध्वनि सिद्धान्त
(3) अलंकार सिद्धान्त
(4) रीति सिद्धान्त
(5) औचित्य सिद्धान्त।
ध्वनि सिद्धान्त : आनन्दवर्धन (9वीं शताब्दी) (Dhavani Anandavardhana) - 9वीं शताब्दी के आरम्भ में भारतीय काव्य में एक ऐसे विज्ञान का पदार्पण हुआ, जिसने काव्य की प्रचलित भ्रांतियों का समर्थ खण्डन करके व्यापक व शाश्वत काव्य मतों का नितान्त मौलिक निरूपण किया। भारतीय काव्यशास्त्र के इतिहास में भरतमुनि के पश्चात् आनन्दवर्धन ही ऐसे श्रेष्ठ आचार्य हुए, जिन्होंने अत्यन्त मौलिक प्रतिभा का परिचय दिया। इन्होंने एक साथ रस, ध्वनि और औचित्य तीनों आत्मवादी सिद्धान्तों का प्रवर्तन एवं निरूपण किया। ध्वनि सिद्धान्त के प्रवर्तन द्वारा इन्होंने रस- सिद्धान्त का विस्तार किया तथा रस-ध्वनि की स्थापना की। साथ ही औचित्य का निरुपण करके रस व काव्य के विभिन्न अंगों की रसानुकूल संयोजना की मर्यादा समझाई। काव्य सिद्धान्तों का व्यापक एवं गम्भीर विवेचन उन्होंने अपने प्रसिद्ध ग्रन्थ 'ध्वन्यालोक' में किया। ध्वनि की परिभाषा करते हुए 'ध्वन्यालोक' में कहा है कि "जो चारूत्व अन्य उक्ति से प्रकाशित नहीं किया जा सकता। उसी को प्रकाशित करने वाला व्यंजना व्यापार युक्त शब्द (वाक्य) ही ध्वनि कहलाता है।' इन्होंने प्रथमतः ध्वनि को काव्य की आत्मा घोषित किया। ध्वनि के दो भेद हैं-
(1) अभिधामूलक - यह सीधे अभिद्येय अर्थ से ही व्यंग्यार्थ ध्वनित हो जाता है।
(2) लक्षणामूलक - लक्ष्यार्थ से व्यंग्यार्थ की प्रतीति होती है।
एक अन्य वर्गीकरण के अनुसार ध्वनि के तीन भेद हैं-
(1) रस ध्वनि
(2) अंलकार ध्वनि
(3) वस्तु ध्वनि।
इन तीनों में क्रमशः रस, अंलकार और वस्तु (तथ्य या विषय) की व्यंजना होती है। विभावादि के संयोजन से निष्पन्न परिनिष्ठत रूप नाटक में तो विस्तृत अभिव्यक्ति पा सकता है परन्तु स्फुट मुक्तकों में इसके विकास के लिए पर्याप्त स्थान न होने के कारण उसकी अनिवार्य स्थिति पर संदेह किया जाता रहा किन्तु आनन्दवर्धन ने काव्य-लक्षण निर्माण में उदार होते हुए भी काव्य की कसौटी रस को ही बताया। सब ध्वनियों में रस ध्वनि को सर्वश्रेष्ठ मानकर रस - सिद्धान्त की ही प्रतिष्ठा की। रस-ध्वनि की आनन्दवर्धन ने जो निभ्रत प्रतिष्ठा की उससे सैकड़ों वर्षों से प्रचलित अंलकारवाची मत खण्डित हो गया, जो काव्य के अंलकृत होने की कल्पना करता है।
भामह ने सभी अंलकारों के मूल में वक्रोक्ति मानी है। शब्द और अर्थ काव्य पुरुष का शरीर हैं, रस और भाव उसकी आत्मा, शूरता, दया आदि के समान माधुर्य, ओज और प्रसाद उस काव्य पुरुष के गुण हैं तथा कणत्व, बाधत्व आदि के समान श्रुतिकटुव व ग्रामतब्य आदि दोष हैं। वैदर्भी, पांचाली और गौड़ी, रीतियाँ उसके भिन्न - भिन्न अवयवों के गठन हैं, आभूषणों की भाँति काव्य के शब्दगत व अर्थगत अंलकार उस काव्यपुरुष की शोभा के विधायक हैं।
ध्वनिवादियों ने एक और तो व्यंजना को ही सर्वाधिक महत्व प्रदान करते हुए व्यंग्यार्थ को काव्य का अनिवार्य तत्व माना है, परन्तु दूसरी ओर व्यंग्यार्थ के साथ सौन्दर्य को भी स्थान दिया है। जिस व्यंग्यार्थ से चारुत्व या सौन्दर्य का प्रकाशन होता है, उसी को ध्वनि के अन्तर्गत स्थान दिया गया है।
आनन्दवर्धन की परिभाषा के अनुसार -"चारुत्व के प्रकाशन एवं व्यंजना- व्यापार दोनों को ध्वनि के आधारभूत तत्वों के रूप में स्वीकार किया गया है, जिनमें प्रथम साध्य है तथा द्वितीय उसका साधन है।'
इस प्रकार ध्वनि सिद्धान्त भी सौन्दर्य को ही काव्य का सर्वोपरि तत्व स्वीकार करता हुआ अप्रत्यक्ष रूप में उसे काव्य की आत्मा मान लेता है। ध्यान सम्प्रदाय ने रस को सर्वोच्च स्थान देकर उसके साथ समझौता कर लिया किन्तु यह अपने आप में पूर्ण सिद्धान्त नहीं है वरन रस व अलंकार सिद्धान्त को आधार मानकर ही आगे बढ़ता है। रस का सम्बन्ध काव्य के आधारभूत तत्वों से है जबकि ध्वनि केवल एक अभिव्यक्ति प्रणाली है। रस सिद्धान्त में जहाँ सौन्दर्य की सत्ता नितान्त रागात्मक मानी गयी है, यहाँ ध्वनि, वस्तु ध्वनि और अंलकार ध्वनि को भी मान्यता प्रदान कर सौन्दर्य में रागात्मक तत्व की एकान्त अनिवार्यता को स्वीकार नहीं करता। ध्वनि सिद्धान्त की रस-विषयक धारणा में भाव की अपेक्षा कल्पना का महत्व ही अधिक है।
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