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बीए सेमेस्टर-4 चित्रकला

सरल प्रश्नोत्तर समूह

प्रकाशक : सरल प्रश्नोत्तर सीरीज प्रकाशित वर्ष : 2023
पृष्ठ :160
मुखपृष्ठ : पेपरबैक
पुस्तक क्रमांक : 2750
आईएसबीएन :0

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बीए सेमेस्टर-4 चित्रकला - सरल प्रश्नोत्तर

 

 

 

प्रश्न- अभिनव गुप्त (Abhinav Gupta) : अभिव्यक्तिवाद (11वीं शताब्दी) रस निष्पत्ति के सम्बन्ध में अभिनव गुप्त के विचार क्या हैं?

 

 

 

उत्तर-

 

 

 

अभिनव गुप्त : अभिव्यक्तिवाद (11वीं शताब्दी) - अभिनव गुप्त ने वेदान्त के आधार पर अभिव्यक्तिवाद का प्रतिपादन किया। इन्होंने भट्टनायक की भावकत्व एवं भोजकत्व दो काल्पनिक क्रियाओं का खण्डन कर व्यंजना या ध्वनि को उचित बताया। अभिनव गुप्त, रससूत्र के चतुर्थ व्याख्याता और रसचिन्तन को पराकाष्ठा पर पहुँचाने वाले आचार्य हैं। अभिनवगुप्त ने भट्टनायक के मत को स्वीकार कर अपनी संशोधित व्याख्या प्रस्तुत की, उन्होंने-

काव्य के अर्थ को ही रस माना और यह भी प्रकाशित किया, कि रस की गहरी प्रतीति का अनुभवकर्त्ता प्रेक्षक या सामाजिक ही है।

यह रस प्रतीति, संवेद्य, संस्कारित चित्त वाले सभी सामाजिकों को एक सी उदात्त स्थिति में ले जाती है।

यह प्रतीति चमत्कारात्मक होती है, रस से पूर्ण एवं सहज प्रतीति से ग्रहीतभाव ही रस है, जो विभावादि विघ्नों को दूर करते हैं।

अभिनव गुप्त की रस की अवधारणा उसके अनुभव की व्याख्या करती है। यह पूरी तरह मनोवैज्ञानिक व्याख्या है। रस के अनुभव के विषय में अभिनव गुप्त ने तीन प्रमुख शब्द दिये-

(1) चमत्कार - एक आनन्दप्रद अनुभव परिच्छिन्न आत्मरूप का अनुभव, रंगमंच पर होने वाले नाटक का अनुभव- निमग्नता- विश्रान्ति का अनुभव।

(2) भोग - व्यक्ति जो भोगे-दर्शक या व्यक्ति की सुख-दुःख की अनुभूति, यह आत्मचेतना से उत्पन्न होता है।

( 3 ) स्पन्दन हिलना - भावों का उद्वेलन।

उन्होंने अपने रस सिद्धान्त का दार्शनिक आधार दूसरे पदार्थ की विलक्षणता, विमर्श प्रधानता को माना था। उन्होंने अभिनव भारती में प्रतिपादित रस सिद्धान्त के सम्बन्ध में चमत्कार शब्द की व्याख्या दी। काव्य रस की अलौकिकता प्रमाणित करने वाले अभिनव गुप्त ने सुनियोजित रूप से रस के अलौकिक होने का सिद्धान्त प्रतिपादित किया है। काव्य के अन्तर्गत अलंकारादि का स्वरूप लौकिक है, किन्तु रस तत्व अनुभूति गम्य वर्णनातीत है। उन्होंने स्पष्ट किया कि पुत्र- जन्म, प्रियमिलन अथवा परीक्षा उत्तीर्ण करने का आहलाद, रस की कोटि में नहीं आयेगा, क्योंकि यह निश्चित तथ्य है। वे उस मानसिक दशा का निर्माण नहीं कर पाते हैं, जो कला स्वरूप काव्य के विभावादि द्वारा सामाजिक की चेतना को अभिभूत कर देती है। वे रस को लोकभिन्न रूप मानते हैं।

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