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बीए सेमेस्टर-4 चित्रकला

सरल प्रश्नोत्तर समूह

प्रकाशक : सरल प्रश्नोत्तर सीरीज प्रकाशित वर्ष : 2023
पृष्ठ :160
मुखपृष्ठ : पेपरबैक
पुस्तक क्रमांक : 2750
आईएसबीएन :0

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बीए सेमेस्टर-4 चित्रकला - सरल प्रश्नोत्तर

उत्तरमाला

1. (d)
2. (d)
3. (d)
4. (a)
5. (c)
6. (b)
7. (a)
8. (c)
9. (a)
10. (b)
11. (b)
12. (c)
13. (b)
14. (a)
15. (d)
16. (b)
17. (a)
18. (a)
19. (b)
20. (a)
21. (b)
22. (a)
23. (c)
24. (b)
25. (a)
26. (b)
27. (a)
28. (c)
29. (b)
30. (c)

 

 

अध्याय - 9
कला के भारतीय दर्शनशास्त्री
(Indian Philosopher of Art)

 

प्रश्न- शंकुक के बारे में प्रकाश डालिए।

उत्तर-

शंकुक अनुमितिवाद (Shankul Aunmitibad) - (9वीं शताब्दी) भट्टलोल्लट के उत्पत्तिवाद या अपवाद का सर्वप्रथम खण्डन शंकुक ने करते हुए भरत के रससूत्र की नवीन व्याख्या की और कहा कि रस उत्पन्न नहीं होता, उसकी अनुभूति होती है, अर्थात निष्पत्ति का अर्थ इन्होंने अनुमिति किया। भट्टलोल्लट के समान ही इन्होंने भी रस की स्थिति मूल पात्रों में मानी है। लोल्लट के समान ही ये भी रस तथा भाव में कोई अन्तर नहीं मानते, क्योंकि मूल पात्रों में जिस अनुभूति का अनुभव किया, वह भाव ही तो है किन्तु बाद में शंकुक यह भी मानते हैं, कि रस मूल पात्रों के भाव की अनुकृति है और अनुकरण रूप होने के कारण ही इसे नया नाम रस दे दिया गया है। इनका कहना है कि लोल्लट ने जो नट में दुष्यन्तादि के आरोप में रसास्वाद बताया है वह ठीक नहीं है क्योंकि जिस व्यक्ति में रति आदि स्थायी भाव होगा, उसी को उद्भुत रति का आस्वाद हो सकता है जैसे जहाँ धुआँ होगा वहीं अग्नि होगी। उस ऐतिहासिक पात्र या अनुकार्य को हम नहीं जानते। हम केवल कवि की अनुभूति को जानते हैं।

मूलपात्र और कवि द्वारा वर्णित पात्र में अन्तर होता है। शंकुक का मत है कि नाटक नाममात्र से सुख भी होना चाहिए। इस प्रकार सामाजिक नट-नटी की अभिनय कला के कौशल से यह स्थायी भाव का अनुमान ही सामाजिकों के मन में रस बन जाता है। लौकिक जगत में चार प्रकार के ज्ञान प्रसिद्ध हैं-

(1) सम्यक ज्ञान सत्य को सत्य समझना।
(2) मिथ्या ज्ञान जो सत्य है उसे सत्य न समझना।
(3) संशय यह सत्य है या नहीं।
(4) सादृश्य यह सत्य के समान है।

हमें बोध इन चार आधारों पर होता है किन्तु किसी भी कला की प्रतीति या बोध इम चारों आधारों से भिन्न है। इन सबसे भिन्न शंकुक ने 'चित्र- तुरंग-न्याय' की स्थापना की, जिसके आधार पर कला की प्रतीति होती है। इनका योगदान अरस्तु के समान ही महत्वपूर्ण है। इन्होंने भी अनुकरण का अर्थ-विस्तार करके उसमें अनुमान अर्थात् कल्पना के तत्व को स्थान दिया। जैसे प्रीष्मकालिक पथिक को वृक्ष छाया का अनुमान कर लेने से उसका ताप नहीं मिट सकता और न ही सुख हो सकता है। इस प्रकार सहृदय को रस रूप अनुकृति की अनुमिति होती है तथा इस अनुमिति से उसे आनन्द की प्राप्ति होती है। इस प्रकार निष्पत्ति का अर्थ शंकुक के मतानुसार अनुकृति है तथा संयोग का अर्थ गम्य - गमक या अनुमाप्य अनुमापक सम्बन्ध से मानते हैं। शकुक ने इस प्रक्रिया को त्रिकोण से समझाने का प्रयास किया है-

(1) अनुकार्य या पात्र,
(2) अभिनेता द्वारा उस स्थायी भाव का अनुकरण,
(3) सहृदय या सामाजिक।

शंकुक पर आक्षेप है कि मनोवैज्ञानिक दृष्टि से अनुभाव द्वारा रसानुभूति या निष्पत्ति की बात मिथ्या है। अनुमान मिथ्या होता है तथा यह बृद्धि की क्रिया है मन की नहीं। अनुमान से ज्ञान प्राप्त हो सकता है अनुभूति नहीं। रस की प्रतीति मिथ्या ज्ञान के आधार पर असम्भव है और जहाँ ऐतिहासिक कथानक नहीं होगा, वहाँ रस का आश्रय कौन होगा?

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