बी ए - एम ए >> बीए सेमेस्टर-4 चित्रकला बीए सेमेस्टर-4 चित्रकलासरल प्रश्नोत्तर समूह
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बीए सेमेस्टर-4 चित्रकला - सरल प्रश्नोत्तर
प्रश्न- रॉबिन जार्ज कलिंगवुड के कला सिद्धान्तों पर प्रकाश डालिए।
उत्तर-
आर. जी. कलिंगवुड (Robin Georgecollingood, 1888-1984 ई.)- आधुनिक कला समालोचकों में कलिंगवुड सर्वाधिक प्रसिद्ध है। उन्होंने कला की वर्तमान चिन्तन धाराओं के अनुरूप अपने प्रसिद्ध ग्रंथ "कला के सिद्धान्त' में कला के विविध पक्षों पर आधुनिक दृष्टि से विचार विमर्श किया। कला के सौन्दर्य के विषय में दार्शनिकों तथा कला रसिकों के द्वारा प्रतिपारित सिद्धान्तों को ये महत्वपूर्ण नहीं मानते है। अतः उन्होंने कला सृष्टा, कवियों, चित्रकारों, मूर्ति शिल्पियों आदि की दृष्टि से कला की समस्याओं पर विचार किया और विशेष रूप से इंग्लैण्ड के कला समुदाय को ध्यान में रखा। परन्तु उनके विचार कला की मौलिक समस्याओं से जुड़े होने के कारण सार्वभौमिक हैं। यदि इस दृष्टि से देखा जाये तो प्लेटो एवं अरस्तू ने अपने देश की कलाओं को ध्यान में रखकर ही कला के सिद्धान्तों का प्रतिपादन किया था परन्तु वे आज भी महत्वपूर्ण है। कलिंगवुड मे अन्य विचारकों के सिद्धान्तों का खण्डन न करते हुए केवल अपने विचारों या मत को प्रस्तुत किया है- कला के सिद्धान्त के तीन विभाजन-
1. कला और अकला प्रस्तुत खण्ड में उन्होंने उन वस्तुओं और क्रियाओं का विवेचन लिया है जो कला नहीं है पर कला के नाम से प्रचलित है। कलिंगवुड ने इनके भेद के आधारों पर प्रकाश डाला है।
2. कला रचना की प्रक्रिया अकला को कला से अलगकर के समस्त मानसिक प्रक्रिया का विश्लेषण किया है जो अनुभूति और संवेदन से आरम्भ होकर अभिव्यक्ति तक विस्तृत है।
3. तीसरे भाग में इन्होंने कला के सिद्धान्त को संक्षेप में निश्चित करते हुए कला के उन व्यवहारिक परिणामों पर विचार किया है जो कलाकार तथा समाज को किसी प्रकार बाध्य करते हैं।
वर्तमान विचारधाराओं के अनुसार, कला के विविध पक्षों पर आधुनिक दृष्टि से विचार किये हैं। कला की प्रविधि में शिल्प के समान मात्र बाह्य कुशलता का ही महत्व नहीं होता वरन कल्पना द्वारा भावों को अत्यधिक प्रभावशाली रूपाकारों एवं वर्ण योजनाओं के माध्यम से व्यक्त किया जाता है। कलिंगवुड ने छः क्रियायें ऐसी बताई हैं जो कला के अन्तर्गत नहीं हैं-
1. मनोरंजन
2. जादू
3. पहेली
4. निर्देश
5. विज्ञापन
6. मिथ्या प्रचार
उक्त क्रियाओं में से कोई भी क्रिया भावभिव्यक्ति नहीं करती है जो कला का प्रमुख कार्य है। ललित कला उसे कहा गया जो हमे सोन्दर्यानुभूति प्रदान करें। कलिंगवुड ने कला के सिद्धान्त को सौन्दर्य सिद्धान्त नहीं माना, उनके अनुसार कला पुन: प्रस्तुतिकरण भी नहीं है। कलाकार महान कलाकृतियों की नकल करता है या प्रकृति में से रूपाकारों को प्रस्तुत करता है। इनके अनुसार पुन: प्रस्तुति के तीन प्रकार है-
1. पुन: प्रस्तुति हू बहू की जा सकती है।
2. आकृति की विशेषताओं का चयन करके भी पुन: प्रस्तुति की जा सकती है।
3. तृतीय प्रकार के अन्तर्गत वस्तु को छोड़कर उसकी क्रिया या भाव का लयात्मक अंकन किया जा सकता है।
कलिंगवुड के अनुसार - कलाकार में दृश्यमान वस्तु की नकल नहीं की जाती। कलाकार जो कुछ कहना चाहता है उसका वह कोई अंश नहीं छोड़ता। कलाकार दृश्य या वस्तु उसकी विशेषताओं तथा भावों या विचारों को पुनः प्रस्तुत नहीं करता इसलिए पुनः प्रस्तुतिकरण न होकर कला अभिव्यक्ति है।
शुद्धकलां - कलिंगवुड ने शुद्ध कला की प्रथम विशेषता अभिव्यक्ति को ही माना है। इनके अनुसार कला का लक्ष्य भावों और संवेगों को जागृत करना नहीं है वरन उनकी अभिव्यक्ति करना है। मन के भावों को अभिव्यक्त करके हम एक प्रकार की आराम की अनुभूति करते हैं। इस भाव की अभिव्यक्ति में भाव विद्यमान है उसका भारीपन समाप्त हो जाता है जबकि विरेचन में किसी लक्ष्य के अनुसार भाव वेग उत्पन्न होने पर हम भाव का भोग करते हैं। अभिव्यक्ति करने का तात्पर्य अपने भाव को समझाना मात्र होता है कि हम कैसा अनुभव कर रहे हैं। यह जरूरी नहीं कि कलाकृति का परिशीलन करने पर हम भी कलाकार जैसे भाव अनुभूत करें। इस प्रकार कोई उद्दीपक वस्तु नहीं है जिसका प्रभाव प्रतिक्रियात्मक हो। शुद्ध कला में तो अभिव्यंजना होती है, जिससे भावों को विशिष्ट स्वरूप मिलता है। इनके अनुसार हमारी कलात्मक सृष्टि किसी चेतन इच्छा शक्ति का कार्य नहीं है वरन् अचेतन की प्रेरणा है। यह एक प्रकार की मानसिक सृष्टि होती है जो कल्पना में जन्म लेती है तथा कल्पना में ही अनुभूत हो जाती है। किसी भी चित्र का परिशीलन करते समय वह रंगीन धरातल का द्विआयामी संयोजन होता है। दर्शक उसमें विस्तार गहराई गढ़नशीलता की कल्पना करके आनंदित होता है। इस कलात्मकता का कोई पूर्व निश्चित रूप नहीं होता है। कलाकृति की श्रेष्ठतां तकनीक पर आधारित न होकर श्रेष्ठ विचार पर आधारित होती है। कलिंगवुड के अनुसार कला जीवन की आधारशिला है। समाज कलाकार के कलात्मक अनुभव में सहभागी होता है। कलाकार का व्यक्ति भी समाज में ही विकसित होता है अत: इसीलिए वह कलात्मक अभिव्यक्ति के सभी साधन (संस्कार, ज्ञान, भाव, सामग्री, माध्यम, परम्परा, अनुभव आदि। समाज से ही ग्रहण करता है।) कलाकार परस्पर एक-दूसरे की विशेषताओं से प्रभावित होते हैं। इस प्रकार कलिंगवुड के अनुसार कला व्यक्तिगत वस्तु नहीं है।
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