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बीए सेमेस्टर-4 चित्रकला

सरल प्रश्नोत्तर समूह

प्रकाशक : सरल प्रश्नोत्तर सीरीज प्रकाशित वर्ष : 2023
पृष्ठ :160
मुखपृष्ठ : पेपरबैक
पुस्तक क्रमांक : 2750
आईएसबीएन :0

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बीए सेमेस्टर-4 चित्रकला - सरल प्रश्नोत्तर

प्रश्न- जर्मन के प्रसिद्ध दार्शनिक शोपेनहावर के सिद्धान्त के विषय में आप क्या जानते हैं?

उत्तर-

(आर्थर शोपेनहावर Arthur Schopenhauer समय सन् 1788-1860 ई.) - जर्मन के प्रसिद्ध निराशावादी दार्शनिक आर्थर शापेनहावर भारतीय विचारधारा से प्रभावित थे। वगंट ने कहा था कि परम तत्व का ज्ञान बुद्धि की सीमा से अलग है। इसे शोपेनहावर ने स्वरीकारा और कांट के समान ही व्यवहार जगत् तथा परामर्श जगत में अन्तर को भी माना। उन्होंने यह माना कि व्यवहार जगत में इच्छा ही सृष्टि का कारण है। इच्छा जड़, पदार्थो, वनस्पतियों तथा पशु-जगत में होती हुई मनुष्यों में उत्पन्न हुई दृष्टव्य हैं। मनुष्य इसी इच्छा के अधीन है जो सदैव अतृप्त रहती है। अतः संसार में अच्छाई दृष्टव्य नहीं बुद्धि भी इच्छानुसार कार्य करती है, अतएव बौद्धिक चिन्तन से भी शांति नहीं मिल पाती। केवल प्रत्येय मूलक ज्ञान से ही वास्तविक शांति मिल सकती है। कलाकृति से उत्पन्न अनुभव उस प्रत्यय का अनुभव है जब ज्ञान शक्ति इच्छा से स्वतन्त्र होती है। इसका अनुभव भी इन्द्रियानुभव से उच्च है। यह देश, काल और कारण से अतीत है अतः अलौकिक बोध है। शोपेनहावर के अनुसार यह इन्द्रियानुभवातीत ज्ञान कला की सौन्दर्यपूर्ण कृति से कलाकृति के समान ही सहृदय को भी होता है। शोपेनहावर का सौन्दर्य शास्त्र तत्व मीमांसा पर आधारित न होकर उनकी तत्वमीमांसा का एक भाग है। प्रत्ययों का सौन्दर्य मूलक चिन्तन ही ज्ञान का सर्वोत्कृष्ट प्रकार है। कला मनुष्य की सर्वोत्तम उपलब्धि है। इनका प्रत्यय सिद्धान्त प्लेटों से साम्यता रखता है। ज्ञान के इस भाग को उन्होंने प्रतिभा कहा है। कलाकार अपनी प्रतिभा के कारण ही वस्तुओं को ही नहीं वरन् उनके प्रत्ययों को भी देखता है। प्रतिभा प्रत्यय ज्ञान की शक्ति है। ज्ञान के इस क्षण में कलाकार दुःख-सुख से मुक्त हो जाता है और वह देवत्व की स्थिति को प्राप्त कर लेता है। विज्ञान अपने उद्देश्य एवं साधन से कला से सर्वथा भिन्न है। विज्ञान इच्छा पर आधारित है। उसे वर्तमान और भविष्य की चिन्ता रहती है। ''सामान्य आदमी के लिए उसका ज्ञान विभाग पथ - प्रदर्शन के लिए केवल एक दीपक है लेकिन प्रतिभा सम्पन्न व्यक्तित्व के लिए यह एक सूर्य है जो सम्पूर्ण जगत् को प्रकाशित करता है।' प्रतिभाशाली व्यक्ति केवल दृष्टा है वह दुःख, सुख और इच्छा से मुक्त होता है।

कल्पना को शोपेनहावर प्रतिभा का एक आवश्यक अंग मानते हैं। शोपेनहावर के अनुसार प्राकृतिक वस्तु तथा कलाकृति से प्राप्त अनुभव एक समान ही हैं क्योंकि दोनों से ही प्रत्ययों का साक्षात्कार किया जाता है, परन्तु कला प्रकृति के रहस्यों को समझने में सहायक होती है अतएव प्राकृतिक वस्तु या कला की वस्तु से प्राप्त आनंद एक ही है। कला के माध्यम से हमें प्रत्ययों का ज्ञान होता है। क्योंकि कलाकार कलाकृति में वस्तुओं को प्रस्तुत करके उनके सूक्ष्म रूप प्रत्ययों को प्रस्तुत करता है। जो अनावश्यक पक्ष होते हैं कलाकार उनको कलाकृति से अलगकर देते हैं। सौन्दयानुभूति का आनन्द हमेशा विरक्त और निष्काम होता है। सौन्दर्यानुभूति के क्षणों में व्यक्ति स्वयं को वस्तु में और वस्तु को स्वयं में देखता है। अर्थात् वह वस्तु से तादाम्य स्थापित कर लेता है। ध्वनि कटु या मधुर हो सकती है और इच्छा से तत्काल सम्बन्ध स्थापित कर सकती है। स्पर्शेन्द्रय प्रत्यक्ष रूप से इच्छा के सम्पर्क में रहती है। फिर भी, ऐसे स्पर्श भी होते हैं जो उदासीन हो सकते हैं। लेकिन गंधेन्द्रिय और स्वावेन्द्रिय अनिवार्य रूप से इच्छा को जागृत करने में सफल रहती हैं। काण्ट में इन्हें भी 'व्यक्तिगत इन्द्रियाँ' कहा था और शोपेनहावर भी इन्हें अधम इन्द्रियाँ कहते हैं। वास्तविक आनन्द केवल वस्तुपरकता में निहित होता है और सौन्दर्यमूलक ज्ञान केवल प्रकाश से ही सम्भव होता है क्योंकि वह इच्छा से मुक्त होता है।

जब हम किसी वस्तु को सुन्दर कहते हैं तो हमारा तात्पर्य यह है कि वह वस्तु हमारे सौन्दर्यमूलक मन की वस्तु है। इसका एक अर्थ तो यह है कि हम वस्तु की अनुभूति से वस्तुपरक हो जाते हैं। हम व्यक्ति के रूप में अपनी सत्ता को खो देते है और केवल इच्छा रहित सत्ता मात्र रह जाती हैं। दूसरी ओर हम वस्तु को एक विशेष रूप में न देखकर उसे प्रत्यय के रूप में देखते है। प्रत्येक वस्तु चाहे वह प्रकृति, कला या जीवन की है। इस दृष्टि से दृष्टव्य है। फिर यह भी है कि प्रत्येक वस्तु में इच्छा की अभिव्यक्ति है इसलिए प्रत्येक वस्तु प्रत्यय की अभिव्यक्ति है जिससे प्रत्येक वस्तु सुम्दर सिद्ध होती है। लेकिन जिस बिन्दु पर इच्छा स्वयं को जितना ही वस्तु सत्य के रूप में व्यक्त करती है वह बिन्दु उतना ही सुन्दर होता है साथ ही वह वस्तु उतनी ही सार्थक और अभिव्यंजक भी होती है। इसलिए मनुष्य सभी वस्तुओं की अपेक्षा अधिक सुन्दर होता है और उसकी प्रकृति का उद्घाटन करना कला का सर्व प्रमुख उद्देश्य है। मनुष्य का रूप और भावाभिव्यक्ति चित्रकला और शिल्पकला की भी प्रधानवस्तु है। मनुष्य की क्रियायें काव्य की मुख्य वस्तु हैं किन्तु फिर भी प्रत्येक वस्तु का अपना-अपना सौन्दर्य होता है चाहे वह सापहीन हो या असंतुलित / कठोरता, गुरुता, सरलता और प्रकाश ऐसे प्रत्यय हैं जो स्वयं को चट्टान भवन और जल के रूप में व्यक्त करते हैं शोपेनहावर शिल्प कला, स्थापत्य कला एवं चित्रण कला से काव्य कला को उच्च मानते है परन्तु संगीत को वे कलाओं का सरमौर कहते हैं। अन्य कलायें प्रत्ययों के एक- एक क्षण को व्यक्त करती है उसे सम्पूर्ण रूप में व्यक्त नहीं कर पातीं। संगीत अन्य कलाओं की भाँति प्रत्ययों की अनुकृति नहीं करता वरन् वह स्वयं इच्छा की अनुकृति है। संगीत का सशक्त प्रभाव का यह कारण है कि वह स्वयं वास्तविक तत्व की अभिव्यक्ति करता है जबकि अन्य कलायें केवल प्रतिच्छाया की अभिव्यक्ति करती है। वह अपनी भाषा में गहनतम् ज्ञान की अभिव्यक्ति करता है जिसे बुद्धि समझने में असफल है। इसका स्रोत अचेतन मन है। संगीत पूर्ण गतियों को अभिव्यक्ति देता है।

 

 

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