बी ए - एम ए >> बीए सेमेस्टर-4 चित्रकला बीए सेमेस्टर-4 चित्रकलासरल प्रश्नोत्तर समूह
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बीए सेमेस्टर-4 चित्रकला - सरल प्रश्नोत्तर
प्रश्न- कला क्या है? हीगल द्वारा प्रतिपादित कला का वर्गीकरण करिये।
उत्तर-
कला मानव की सहज अभिव्यक्ति है। कला कोई प्रतिकृति तो नहीं। भारत में इसे योग साधना माना गया है। कला हमारे विचारों का एक दृश्य रूप है वह हमारी कल्पना शक्ति, आदर्श- प्रियता एवं सृजन शक्ति से युक्त है। कला एक भावात्मक विषय है और रुचि की इसमें महत्ता है।
प्रसिद्ध जर्मन दार्शनिक हीगल का दर्शन 'विरोधों का द्वन्दात्मक परिहार' कहा जाता है। ये इसलिये प्रसिद्ध रहे कि मार्क्सवाद का जन्म हीगल के दर्शन के कारण सम्भव हुआ। कला की परिभाषा में हीगल ने यूनानी अवधारणा ली। विश्वात्मा विकास का मूलतत्व व शक्ति है दृश्यमान जगत आभास मात्र है। उनके अनुसार कला प्रकृति का प्रतिबिम्ब मात्र नहीं, प्रकृति से ऊपर भी कुछ है। कला सत्य की अभिव्यक्ति है। कला का माध्यम भाव-संवेग है, धर्म में माध्यम प्रतीक और दर्शन में शुद्ध विचार कलाकृतियों के अन्य सभी विभाजनों की तुलना में हीगल का विभाजन अधिक प्रसिद्ध है। हीगल ने कला का विभाजन तीन दृष्टियों से किया है। उनका विचार था कि कलाकृति में दो तथ्य होते हैं-
(1) एकता अर्थात् आध्यात्मिक अर्थ,
(2) भेदों की अनेकता अर्थात् कलाकृति का भौतिक पक्ष।
अतएव कलाकृति के तीन पक्ष हैं-
(1) अभिव्यंजना का विषय,
(2) रूप अथवा भौतिक सामग्री,
(3) इन दोनों का परस्पर सम्बन्ध।
कला में आत्मा मूर्त रूप में व्यक्त होती है। सफल कला के लिये आवश्यक है कि अभिव्यक्ति श्रेष्ठ संवेग के रूप में हो। जतना उत्कृष्ट विचार होगा उतनी उत्कृष्ट अभिव्यक्ति होगी, उतनी ही श्रेष्ठ कला मानी जाती है। हीगल का सौन्दर्य दर्शन त्रयात्मक है इसे कला दर्शन का " हीगलीय त्रय' (Hegelian trio) भी कहा जाता है। इनके अनुसार विश्वात्मा स्वयं को तीन रूपों में प्रकट करती है वाद, प्रतिवाद और संवाद। ये तीनों स्थलों पर व्यक्त होती है - तर्क, प्रकृति व मन, इनमें वह सूक्ष्म से सूक्ष्म होती जाती है। वह मन तक पहुँचकर तीन अवस्थाओं में प्रकट होती है - आत्मनिष्ठ, वस्तुनिष्ठ, निराकार।
अधिकांश भारतीय कला विचारक भी इस परम को महत्व देते हैं- जो सत्यं शिवं, सुन्दरम् की चिर परिचित त्रयी में व्यक्त है।
हीगल के इस विचार में वेदान्त दर्शन की समानता है। उपनिषदों के अनुसार परमसत्ता एक है। इसी एक परमसत्ता ने अपने अकेलेपन को दूर करने हेतु उद्घोष किया "मैं अनेक हो अतः उसी के प्रतिबिम्ब से सृष्टि की रचना हुई। हीगल के दर्शन में भी विश्वात्मा सूक्ष्म है।
इस सूक्ष्म की अभिव्यक्ति सूक्ष्म में ही होगी, इस विचार के अनुसार कला की भी तीन अवस्थायें हैं-
(1) प्रतीकात्मक (Symbolic)
(2) शास्त्रीय (Classic)
(3) रोमान्टिक ( Romantic)|
इस विचार के अनुसार ललित कलाएं इस प्रकार हैं-

प्रतीकात्मक कला - इस कला में व्यापकता व फैलाव है सूक्ष्मता की कमी है। अतः यह पूर्ण कला नहीं है। प्राचीन भारतीय कला, मिश्र की कला एवं चीन की कला को इसी श्रेणी की कला माना गया है। मन्दिर प्रतीकात्मक कला का उदाहरण हैं- यहाँ सामग्री स्थूल है। रचना यांत्रिक नियमों के अनुसार होती है। प्रतीकात्मक कला में निम्न दोष हैं-
(1) इसमें व्यक्त प्रत्यय, चेतना को नाममात्र का स्पर्श करता है,
(2) अभिव्यक्ति का माध्यम स्थूल है। इसमें वस्तु अधिक, अभिव्यक्ति कम है।
परम की अभिव्यक्ति इस स्थूल द्वारा पूर्ण नहीं हो पाती। यह कला - रूप, हीगल के मतानुसार यूनानी कला में भी है।
शास्त्रीय कला - हीगल के मतानुसार यूनानी कला में ही प्रकट हुआ। इसमें अन्तर्वस्तु और रूप में समन्वय पाया जाता है। जैसे यूनानी कला में देवी-देवता व्यक्ति पूर्ण दिखते हैं।
हीगल के अनुसार "यूनानी शास्त्रीय कला अपने चरमोत्कर्ष पर पहुँच गई क्योंकि वहाँ मानवाकृति में प्राण प्रतिष्ठा की गई है। इससे सुन्दर कला न हो सकती है और न होगी।'
ये वास्तुकला से मूर्तिकला को अधिक विकसित मानते हैं प्रथम, क्योंकि इसमें कम मात्रा में कम स्थूल सामग्री का उपयोग होता है। दूसरे मूर्ति का निर्माण यांत्रिक नियमों के अनुसार नहीं होता। यहाँ मूर्तियाँ आध्यात्मिकता की ओर उन्मुख करती हैं।
परन्तु कला के इस रूप में भी सभी तत्वों का समन्वय नहीं हो पाता, तब अगला चरण विकसित होता है।
रोमांसवादी कला - विचार की शुद्ध अवस्था सगुण रूप से उच्च कोटि की है, यह अरूप या भाव रूप है, यह असीम है। रोमांसवादी कला आत्मा की गहराईयों में उतरगर एक आध्यात्मिक क्रिया बन जाती है। रोमांटिक कला का उद्देश्य आत्मा के गहन अंशों की अभिव्यक्ति होती है। इसका मूल तत्व मनोवेग है। मनोवेगों का सहारा लेकर यह मनुष्य के भाव, चेतना तथा आत्मा को प्रभावित करती है। रोमांसवादी कला में विचार अधिक सशक्त होते हैं। इसलिये वह इन्द्रिय रूप में पराभूतकर स्वयं को मुक्त और स्वच्छन्द रूप से प्रकाशित करने का प्रयास करता है। यहाँ वस्तुनिष्ठता से अलग सूक्ष्मता होती है। ये कला दो प्रकार की होती है-
(1) वस्तु तांत्रिक कला स्थापत्य व मूर्तिकला,
(2) आत्म तांत्रिक कला चित्र, संगीत, काव्य कलाएं।
हीगल की विचारधारा शुद्ध आध्यात्मिक है इसका चरम विकसित रूप उनके 'उदात्त' के प्रत्यय में मिलता है। हीगल के अनुसार उदात्त विचार की अभिव्यक्ति का प्रत्यय है, जिसकी सफल अभिव्यंजना के लिए सृष्टि में कोई भी वस्तु उचित माध्यम प्रतीत नहीं होती।' अर्थात् उदात्त असीम में असीम की अपूर्ण व्यंजना है। कला में उदात्त को हीगलं स्थूल आदर्शवाद और रोमांसवादी वैयक्तिक भाव प्रवणता से भिन्न मानते हैं। फिर भी रोमांसवादी रूप की स्वच्छन्ता में उदात्त की अनन्तता को व्यक्त करने की अधिक संभावनाएं हैं।
हीगल ने दर्शन को 'मूर्त प्रत्ययों की परिपूर्ण व्यवस्था' माना जो एक सर्वागीक तंत्र है, आत्मा इस दर्शन की कुंजी है। आत्मा भारतीय प्रत्ययवाद की भी कुंजी है - आत्मानं विद्धि' इसी कारण इनके दर्शन का प्रभाव भारतीय विचारकों पर पड़ा। इनमें प्रमुख हैं- राधाकृष्णन, हीरालाल हलधर व ए. सी. मिश्रा।
उपरोक्त के आधार पर हम कह सकते हैं कि हीगल के कला विभाजन से कला चर्मोत्कर्ष तक पहुँची है।
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