बी ए - एम ए >> बीए सेमेस्टर-4 चित्रकला बीए सेमेस्टर-4 चित्रकलासरल प्रश्नोत्तर समूह
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बीए सेमेस्टर-4 चित्रकला - सरल प्रश्नोत्तर
प्रश्न- जर्मन विचारकों के सौन्दर्यशास्त्र सम्बन्धी विचारों का विवरण दें। इसमें वॉऊमगार्तेन और कान्ट के विचारों को बताइये।
उत्तर-
जर्मन सौन्दर्यशास्त्र की परम्परा बुद्धिवादी रही है। प्रमुख व्याख्याता लाइबनीज के अनुसार, सौन्दर्यशास्त्रीय अनुभवों के स्तर होते हैं। सबसे नीचे के स्तर पर संवेगात्मक अनुभव, उससे ऊपर बौद्धिक स्तर जिसमें रुचि, नैतिकता, तर्क आदि आ जाते हैं। तीसरे स्तर पर अन्तर्ज्ञान आता है। चौथे स्तर पर सर्वव्यापक सामंजस्य का अनुभव है। इस समय की कला भी विज्ञान व गणित के निकट होती जा रही थी।
दूसरा प्रभाव ब्रिटेन के अनुभववादियों की ओर से आया। इनके संस्थापक शेफ्ट्सबरी थे जो इनमें प्रमुख रूप से उभर कर आये-
शेफ्टसबरी (Shaftsbury, 1671-1713 ई.) - ये अनुभववादी सौन्दर्यशास्त्र के संस्थापक थे।
एडीसन (Addison, 1672-1719 ई.) - इनका सौन्दर्य सिद्धान्त भी वास्तविक अनुभवों पर आधारित था।
डेविड ह्यूम (David Hume, 1710-1776 ई.) - ये अनुभववादी हुए और व्यक्तिनिष्ठ अनुभववाद दिया।
एडमंड बर्क (Edmund Berke, 1729-1797 ई.) - ये सौन्दर्य को एक ओर इन्द्रियों से तो दूसरी ओर संवेगों से जोड़ते हैं, इनके अनुसार सौन्दर्यानुभूति सामाजिक प्रवृत्ति भी है।
इन सब ब्रिटिश अनुभववादियों का स्पष्ट प्रभाव जर्मन विचारधारा पर पड़ा। इसके फलस्वरूप जर्मन दार्शनिकों और अनुभववादियों तथा नए मनोविज्ञान के मिलन से नए जर्मन सौन्दर्यशास्त्र का आरम्भ हुआ।
जर्मन विचारधारा की अपनी भी कुछ विशेषतायें थीं। प्रथम, जर्मन लोग स्वभाव से प्रकृति प्रेमी थे। यहाँ पर प्राचीन नृत्य, संगीत, नाट्य की समृद्ध परम्परा थी। जर्मन की धरती पर प्राचीन सौन्दर्य प्रचुर मात्रा में स्पष्ट परिलक्षित होता है। कलाकार प्रकृति से उठकर रचना करता है। उसमें अपना मूल्य अर्थ भरता है। निजी अन्तर्मन पर प्रकाश डालता है।
सम्पूर्ण जर्मन कलाकारों, दार्शनिकों, संगीतज्ञों कवियों आदि में एक बात सामान्य रही ये सभी प्रकृति प्रेमी थे। अतएव जर्मन सौन्दर्यशास्त्रियों के अनुसार कला प्रकृति की अनुकृति नहीं है। वह प्रकृति के रूपान्तरण से भी आगे जाती है।
बीसवीं शताब्दी के सौन्दर्यशास्त्र पर इन सारे ऐतिहासिक कारकों का प्रभाव आया। वहाँ दर्शनशास्त्र की भाँति सौन्दर्यशास्त्र भी पूर्व कान्ट और उत्तर कान्ट दो भागों में विभक्त हुआ। जर्मन में पहली बार कला को वस्तुनिष्ठ विज्ञान का दर्जा मिला और उसे मनोविज्ञान की पृष्ठभूमि भी मिली। अठ्ठारवीं शताब्दी के आरम्भ में जर्मनी में सौन्दर्यशास्त्र दो स्पष्ट धाराओं में विभाजित किया गया।
आदर्शवाद या प्रत्ययवाद - बाऊमगार्तेन, हाइन्स, कान्ट, गेटे, हम्बोल्ट।
रोमान्सवाद - शिलर, फिक्टे, शेलिंग, हीगल, शैपेनहावर आदि।

बाऊमगार्तेन (Baumgarten, 1714 - 1762) - जर्मनी के एलैक्जैण्डर बाऊमगार्तेन को "सौन्दर्यशास्त्र का पिता (Father of Aesthetics) कहा जाता है क्योंकि इन्होंने ही सौन्दर्यशास्त्र को स्वतंत्र अस्तित्व, क्षेत्र व विस्तार दिया। ये स्वयं दर्शनशास्त्र के प्रोफेसर थे । 1970 में उनकी एक पुस्तक दो भाँगों में छपी, पुस्तक का नाम "Aesthetic" था। इन्होंने एस्थेटिक को क्रमबद्ध, सुव्यवस्थित ज्ञान के रूप में प्रतिष्ठित किया और उसे मनोविज्ञान का दृढ़ आधार बनाया। उन्होंने सम्पूर्ण बिखरी हुई सौन्दर्य और कला सम्बन्धी मीमांसाएं एकत्रित कीं, उनका वर्गीकरण किया एवं क्रमबद्ध करके व्यवस्थित किया।
यह सैद्धान्तिक व्यवस्था आगे चलकर कान्ट ने सौन्दर्य को बौद्धिक दृष्टि से देखा। उसे वैज्ञानिक बनाने का प्रयास ही आगे आने वाली बौद्धिक धारा का आधार बनी। यह धारा न केवल जर्मनी बल्कि सम्पूर्ण बौद्धिक जगत को प्रभावित कर गई।
बाऊमगार्तेन के सौन्दर्य सम्बन्धी विचार प्लेटो के अधिक निकट थे। उनके अनुसार सौन्दर्य, सत्य और शिव एक हैं, साथ ही इसके अतिरिक्त ज्ञान परम आवश्यक है। प्रकृति का यह आत्मिक रूप सारे सत्य, ज्ञान और सौन्दर्य का मूल है क्योंकि यह सत्य, सौन्दर्य और ऋत् का सार है। अतएव उनके अनुसार सौन्दर्य एक कार्यगत संगठन - एक पूर्णता है, जो विचार या आदर्श में है, यह संसार केवल छांया है, आदर्श संसार की प्रकृति का पूर्ण सौन्दर्य भी आदर्श में है। प्रकृति का रूपान्तरण करके आदर्श में स्थापित कर दिया गया।
बाऊमगार्तेन के अनुसार, सौन्दर्य इन्द्रिय अनुभव से प्राप्त होता है। सत्य भी एक पूर्णता है जिसका बोध विवेक द्वारा संभव होता है। शिवत्व भी पूर्णता है जिसका बोध इच्छा के माध्यम से होता है। सौन्दर्य किसी वस्तु के अंगों में आपसी समरूपता, क्रम व्यवस्था तथा सामंजस्य से अनुभव होता है। इसके अनुसार सौन्दर्य का प्रयोजन आनन्द और उत्तेजित करना है। सौन्दर्य की पूर्ण अभिव्यक्ति प्रकृति में मिलती है इसलिये कला प्रकृति की अनुकृति है। इन्होंने सौन्दर्यशास्त्र को "इन्द्रिय ज्ञान का विज्ञान" माना है, बाद में इसी को वैज्ञानिक अर्थ दिया।
इमानुएल कान्ट (Emmanual Kant, 1724 - 1804) - कान्ट का जन्म केनिन्सबर्क नामक स्थान में एक मोची के यहाँ हुआ था। ये इसी शहर में सम्पूर्ण जीवन रहे। यही से इन्होंने भौतिक विज्ञान, गणित व ईश्वरवाद का अध्ययन विश्वविद्यालय से किया। 1750 में इन्हें तर्कशास्त्र का प्रवक्ता बनाया गया। 1755 में ये विश्वविद्यालय में ही शिक्षण कार्य करने लगे।
इनके व्याख्यान, "दार्शनिक एन्साइक्लोपीडिया" पर थे, बाद में ये तर्कशास्त्र (लौजिक) व तत्व समीक्षा के प्रोफेसर भी बने एवं 1797 तक रहे। अन्त में स्वास्थ्य ठीक न होने के कारण 1804 में मृत्यु हुई।
कान्ट के समय में दर्शन में दो परस्पर विरोधी मत प्रचलित थे - एक बुद्धिवादी (Rationalists) और दूसरे अनुभववादी (Empiricists)| बुद्धिवादी बुद्धि को सर्वोपरि मानते थे और उनका मानना था कि बृद्धि निश्चयपूर्वक कुछ भी नहीं जान सकती। ज्ञान अनुभव से प्राप्त होता है। बुद्धिवादी कार्य-कारण सिद्धान्त में, सहज प्रत्यय में, आत्मा में तथा ईश्वर में विश्वास करते थे और इन्हीं तत्वों को विश्व की क्रमबद्ध व्यवस्था का कारण बताते थे। इनके मतानुसार इन्द्रियाँ केवल विवेक की दासी हैं, वे निष्क्रय हैं। यह ज्ञान का नियामक सिद्धान्त है।
इसके विपरीत अनुभववादियों में लॉक, बर्कले आदि ने माना कि व्यक्ति केवल अपने अनुभव किए संवेग प्रत्ययों को जानता है, वस्तुओं के गुणों को हम अनुभव कर सकते हैं वस्तु स्वयं में क्या है? इसका ज्ञान नहीं होता है। बाद में मनोविज्ञान का सहारा लेकर अनुभववाद संदेहवाद में बदल गया। इस प्रकार अनुभववादियों ने कार्य-कारण सिद्धान्त, आत्मा, अमरता एवं सैद्धान्तिक ज्ञान सबकी संभावना से इन्कार किया।
इन दो विरोधी धाराओं के बीच कान्ट आए। कान्ट ने दोनो का मध्यमार्ग निकाला। वे रूसो और ह्यूम के प्रभाव में आये और 1770 तक उन्होंने अपना नवीन दृष्टिकोण का अविष्कार किया, जिसकी वजह से वे विश्वविख्यात हुए। काण्ट ने अपना ग्रन्थ, 'आलोचनात्मक दर्शन' (Critique of Pure Reason) प्रस्तुत किया।
अपने दर्शन को उन्होंने आलोचना कहा। कान्ट का दर्शन ज्ञान मीमांसा का है। संक्षेप में, कांट ने दोनों मतों की समीक्षा की और दोनों के अच्छे पक्षों को मिलाकर एक नया प्रत्यय- सिद्धान्त दिया।
अपनी पहली पुस्तक आलोचनात्मक दर्शन में उन्होंने ज्ञान की बुनियादी समस्या उठाई है। कान्ट के अनुसार "हमारे विचारों का विषय इन्द्रियों से प्राप्त होता है किन्तु इन्हें रूप देना बुद्धि का काम है। बुद्धि अपने नियमों के अनुसार प्राप्त असंबद्ध अनुभवों को क्रमबद्ध विचारों में बदल देती है। उनकी दूसरी पुस्तक (Critique of Practical Reason) में इन्होंने नैतिकता की समस्या पर विचार - विर्मश किया। उनकी तीसरी पुस्तक ( Critique of Judgement) नामक पुस्तक में सौन्दर्य और उदारता पर विचार दिये हैं।
कान्ट का सौन्दर्यशास्त्र - कान्ट ने सौन्दर्य की व्याख्या बुद्धि के माध्यम से दी। सौन्दर्य और कला आस्वादन की विशद व्याख्या उन्होंने अपने तीसरे ग्रन्थ "निर्णय मीमांसा" में की। कान्ट के अनुसार "सौन्दर्य चिन्तनशील धारणा का आनन्द है।' ये सौन्दर्य को वस्तुनिष्ठ न मानकर "विशिष्ट अनुभूतियों का कारण मानते हैं। कान्ट, प्लेटो की भाँति सौन्दर्य का परिणाम शुद्धिकरण मानते हैं।
कान्ट के सिद्धान्त को "अतीन्द्रिय सौन्दर्यशास्त्र' (Transcendental Aesthetics)
भी कहा जाता है। क्योंकि ये सौन्दर्य के शुद्ध रूप को सर्वोपरि मानते हैं। यद्यपि इनकी अबधारणा में अन्य तत्व भी गौण रूप से शामिल हैं। जैसे - प्रयोजन, आसक्ति और नैतिकता।
कान्ट के अनुसार - सौन्दर्य का ज्ञान, इन्द्रियों, निर्णयशक्ति या प्रज्ञा के द्वारा होता है। इसी आधार पर सौन्दर्य के दो भेद हैं-
(1) प्रयोजन सहित - सौन्दर्य के साथ प्रयोजन और उपयोगिता,
(2) प्रयोजन रहित - सौन्दर्य अपने में बिना किसी प्रयोजन या उपयोगिता का ध्यान करे, सौन्दर्य माना जाये। जैसे - फूल या इन्द्रधनुष।
सुन्दरता के विषय में इनका मत है कि सुन्दरता बाह्य वस्तु में नहीं, देखने वाले के मन में है। सुन्दरता देखने वाले की दृष्टि में है।
"Beauty lies in the eyes of the beholder".
यह एक व्यक्तिगत भाव है जो व्यक्तियों में भिन्न-भिन्न भी होता है। इन्होंने रूप आकार में सौन्दर्य माना, पर रंग में नहीं। इस विषय पर कान्ट की तीव्र आलोचना हुई कि रंग को व्यर्थ क्यों माना गया, रंग ही तो सौन्दर्य के परिचायक हैं।
विज्ञान के नियम पर सौन्दर्य का कोई मापक या पैमाना नहीं है।' यह बिना प्रयोजन का प्रयोजन है।" यह प्रयोजनहीनता ही आनन्द का कारण है।
कान्ट की अतिन्द्रिय विधि - कान्ट ने कला और सौन्दर्य के मापन के लिये निर्णय की एक विशेष तार्किक प्रणाली दी। इस विशेष विधि को "अतिन्द्रिय" कहा जाता है। इसमें भाव को तर्क व चिन्तन के बन्धन से मुक्त किया और कहा कि 'वास्तविकता इन्द्रिय अनुभव से परे है, अनुभवातीत है।
कान्ट के निर्णय का दर्शन" नामक ग्रन्थ में उनका सिद्धान्त स्पष्ट रूप से दिया है। यह संक्षेप में इस प्रकार है-
कान्ट ने शब्द एस्थेटिक का मूल यूनानी अर्थ लिया यह शुद्ध संवेदना है - समय और स्थान का इस अनुभव में स्थान नहीं है।
यह सहज ज्ञान या पूर्व - प्रत्यक्ष अनुभव है।
यही "अतिन्द्रिय सौन्दर्यशास्त्र" कहा जायेगा।
विचार विषय के बिना खाली है, प्रत्यक्ष, बिना विचार के अन्धा है।
विचारों को प्रत्यक्ष में लाना, उन्हें उनके विषयों से जोड़ना ही उन्हें प्रत्ययों के अर्न्तगत लाता है।
ये दो अलग - अलग मानसिक शक्तियाँ हैं, विचार देख नहीं सकता, इन्द्रिय सोच नहीं सकती हैं। इन दोनों के मिलने से ज्ञान उत्पन्न होता है।
"निर्णय दर्शन" में कान्ट ने स्पष्ट कहा है कि सुन्दरता का अर्थ है किसी विशेष वस्तु के लिये सार्वभौमिक निर्णय उदाहरण के लिये फूल। वर्तमान, भूत और भविष्य में जितने भी फूल हैं सबके सार रूप गुण इसमें हैं।
सौन्दर्य का वस्तुनिष्ठ माप नहीं है। यह व्यक्तिगत अनुभव का विषय है।
इसी प्रकार सच्ची कला विशुद्ध प्रयोजन रहित आनन्द का अनुभव देगी।
प्राकृतिक और रचित सौन्दर्य में यह भेद है कि वह स्वयं सुन्दर है जब कि रचित सौन्दर्य का आभास मात्र देता है।
कान्ट के अनुसार कला व्यक्तिगत अनुभव है। अतएव इसके विषय में तर्क या मतभेद नहीं हो सकता। सौन्दर्य सत्य और कल्याण से जुड़ा है।
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