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बीए सेमेस्टर-4 चित्रकला

सरल प्रश्नोत्तर समूह

प्रकाशक : सरल प्रश्नोत्तर सीरीज प्रकाशित वर्ष : 2023
पृष्ठ :160
मुखपृष्ठ : पेपरबैक
पुस्तक क्रमांक : 2750
आईएसबीएन :0

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बीए सेमेस्टर-4 चित्रकला - सरल प्रश्नोत्तर

 

प्रश्न- रेने देकार्त (Rene Descartes) को आधुनिक दर्शनशास्त्र का जनक माना जाता है। इस कथन की पुष्टि करिये।

उत्तर-

रेने देकार्त (Rene Descartes) (सन् 1596 ई. - 1650 ई. तक) - रेने देकार्त को आधुनिक दर्शनशास्त्र का जनक माना जाता है। उनकी तर्क पद्धति एवं दार्शनिक प्रणाली अन्य दार्शनिकों से भिन्न है। जिसे इन्होंने गणित पद्धति कहा है।

देकार्त के अनुसार - "सौन्दर्यानुभूति संवेदनाओं से प्रारम्भ होती है, संवेदनाएँ नाड़ी तंत्रों को उत्तेजित करती है।"

यह उत्तेजना यदि एक निश्चित अनुपात में होती हैं तो पूर्व रूपेण लाभदायक और आनन्दप्रद होती है। इस प्रकार यदि दुःखद व सुखद अनुभूतियाँ अनुपात में हो तो उन्हें प्रदर्शित करने में कोई क्षति नहीं है। देकार्त ने सौन्दर्यानुभूमि व कला में अनुपात पर विशेष बल दिया है। देकार्त की बुद्धिवादी प्रवृत्ति उनके विचारों पर सदैव हावी रही है।

देकार्त के अनुसार - "विचारों में स्पष्टता एवं विशिष्टता से ही विश्वासनीयता आती है।"

ये ऐसे ही सत्य को स्वीकार करते थे जो गणित की भाँति प्रमाणिक और स्पष्ट हो। उनके प्रभाव से आलोचना में बुद्धिवादी प्रवृत्ति बलवती हुई।

रेने डेकार्त ईसाई संत थे अतएव उनके सिद्धान्त बाइविल से प्रभावित हैं किन्तु वे धार्मिक होने के कारण ही किसी बात को मानने के लिए तैयार नहीं थे। उनके लिए यदि कोई बात अन्य विधियों से भी स्वीकार्य है तो धर्मशास्त्र सम्मत होने से वह शंकाहीन हो जाती है। देकार्त ने अपनी व्याख्याओं में प्लेटो, अरस्तू तथा होरेस की तर्क पद्धतियों का सहारा लिया है। अरस्तू के प्रभाव से देकार्त यह मानते थे कि सौन्दर्य का आनन्द ज्ञेय वस्तु एवं ज्ञानेन्द्रिय के सामंजस्य पूर्ण अनुपात पर निर्भर है। अर्थात् वस्तु न अधिक जटिल और न ही अधिक सरल होनी चाहिए। देकार्त पर बेकन का भी प्रभाव स्पष्ट परिलक्षित है। बेकन ने मानसिक दशाओं के विषय में जो सिद्धान्त प्रतिपादित किया उसे देकार्त ने मानसिक जीवन के अधिकांश भाग पर प्रयुक्त किया।

देकार्त ने सर्वप्रथम यह माना कि अभौतिक द्रव्य का प्रधान गुण विचार है तथा भौतिक द्रव्य का प्रधान गुण विस्तार है। प्रकृति के क्षेत्र में प्रत्येक वस्तु यहाँ तक कि शारीरिक प्रक्रियायें एवं मनोविकार भी यांत्रिक रूप से स्पष्ट किये जा सकते हैं। आधुनिक मनोविज्ञान एवं शरीरिक विज्ञान पर इस सिद्धान्त का व्यापक प्रभाव पड़ा है।

देकार्त के अनुसार कल्पना, बुद्धि एवं इच्छा- आत्मा की ये तीन शक्तियाँ काव्य कृति की सर्जक हैं जिनसे उत्पन्न अनुभव एक प्रकार का बौद्धिक आनन्द है। इसके साथ-साथ स्वतन्त्र कल्पनाशक्ति से उत्पन्न एक मनोविकार (भाव) का आवेग भी रहता है। हमारी पाँच बाह्य एवं दो आन्तरिक इन्द्रियाँ हैं। बाहरी वस्तुओं से बाहरी इन्द्रियाँ प्रभावित होती है। इच्छा करने तथा भावावेग से सम्बन्धित इन्द्रियाँ आन्तरिक हैं। बाहरी इन्द्रियाँ हमारे शरीर के अंग है। इसी प्रकार सामान्य ज्ञान भी (बोध) (Commone Sense) भी एक शरीर के रूप में इन्द्रिय है जो बाह्य इन्द्रियों से प्राप्त अनुभूतियों को कल्पना के स्तर तक ले जाती है। वहाँ ये रूप कुछ समय तक सुरक्षित रहते हैं अतएव कल्पना का यह अंश स्मृति कहलाता है। कल्पना की व्याख्या देकार्त ने इन्द्रिय- प्रत्यक्ष, स्मृति, विभ्रम, स्वप्न तथा काव्यात्मक स्वतन्त्र कल्पना के प्रसंग में की है। सामान्य बोध के कारण इन्द्रियाँ बाहरी वस्तुओं से प्रभावित होती हैं। यह इन्द्रिय प्रत्यक्ष है। इन्द्रियों पर पड़े बाल प्रभावों को मस्तिष्क के एक अंश (कल्पना) में कुछ समय तक धारणा किये रहने की भी क्षमता होती है। यह स्मृति है कि बाह्य वस्तु की ओर प्रेरित कल्पना हमारी इच्छा शक्ति से स्वतन्त्र होकर ऐसे रूप का निर्माण करती है जो स्वप्न अथवा विभ्रम में दिखाई देते हैं किन्तु जिस समय आत्मा - स्वतंत्र इच्छा शक्ति द्वारा कल्पना को प्रेरित करती है उस समय मन में अनेक ऐसे ही रूप (प्रतिच्छायाएँ) उत्पन्न होते हैं जो ज्ञानेन्द्रियों के द्वारा स्मृति में संचित बिम्बों (रूपों, प्रतिच्छाओं) से अलग होते हैं।

इसके साथ ही ये स्वप्न तथा विभ्रम के रूपों से भी भिन्न होते हैं। अतः स्वतन्त्र इच्छा शक्ति से कल्पना को उत्प्रेरित कर ऐसे रूपों की सृष्टि होती है। अतः स्वतन्त्र इच्छा शक्ति से कल्पना को उत्प्रेरित कर ऐसे रूपों की सृष्टि होती है जो न तो इस व्यावहारिक संसार में है और न ही कभी हो सकते हैं। इस प्रकार काव्य के लिए कल्पना अन्य सभी प्रकार की कल्पनाओं से अलग हैं। जब ऐसे रूप, प्रत्यय अथवा बिम्ब आत्मा में उद्भूत (जन्म) हो जाते। हैं तो मन में विचारशील होते हैं। जहाँ पर ये शारीरिक गतिविधियाँ उत्पन्न करके कविता की सृष्टि करती हैं। ऐसे रूपों में बाहरी भाव वेग उत्पन्न करते हैं।

बुद्धि जब स्वतन्त्र कल्पना में प्रवृत्त होती है तो यह सहज ही ज्ञान अथवा अनुमान के व्यापार में लगी होती है। बुद्धि कल्पना को प्रभावित करती है और कल्पना बुद्धि को प्रभावित करती है। वस्तुओं के साक्षात्कार एवं मानसिक बिम्बों में इनका प्रयोग किया जाता है। विचार शक्ति स्वतंत्र है एवं इसके दो पक्ष हैं ज्ञान और इच्छा। ज्ञान शक्ति से भावावेग उत्पन्न होते हैं और इच्छा शक्ति से क्रिया उत्पन्न होती है। स्वतन्त्र इच्छा शक्ति से कुछ ऐसी क्रियायें होती है जिनका अन्त - आत्मा में ही होता है जैसे ईश्वर प्रेम अथवा किसी अभौतिक वस्तु के प्रति लगाव। दूसरे प्रकार की क्रियाओं का अंत शरीर में होता है जैसे - कि चलने की इच्छा से पैरों में गति होती है। जब हमारे मस्तिष्क में किसी वस्तु का ऐसा प्रतिबिम्ब बनता है जिसके समान कोई वस्तु हमारे पिछले जीवन में लाभदायक या हानिकारक सिद्ध हुई थी, तो प्रतिबिम्ब से मनोवेग उत्पन्न होता है। यह भावना का वेग हमारी चेतना द्वारा पोषित होती है। चेतन वृत्तियाँ पहले हृदय में जन्म लेती हैं, वहाँ से ये मस्तिष्क तक पहुँचती है। तत्पश्चात् ये ज्ञान तंतुओं तथा मांसपेशियों के द्वारा शारीरिक अंगों को गति प्रदान करती हैं जब बाहरी वस्तुओं (उत्प्रेरकों) से प्रेरणा प्राप्त होती है तो हमारी चेतन वृत्तियाँ, मांसपेशियों आदि के माध्यम से शरीर के अंगों को गति प्रदान करती हैं। इस प्रकार की स्वयं होने वाली क्रियाओं (Reflexactions) में इच्छा शक्ति की कोई आवश्यकता नहीं होती। मूलरूप से भावोवेग छ: हैं आश्चर्य, प्रेम, इच्छा सुख एवं दुःख। अन्य सभी भावोवेग इनसे ही उत्पन्न माने गये हैं। सभी व्यक्तियों के मस्तिष्क की रचना अलग-अलग प्रकार की होती है अतः कोई भी वस्तु सब में एक समान भावावेग उत्पन्न नहीं करती। भावावेग इच्छा शक्ति से उत्पन्न नहीं होते बल्कि उन वस्तुओं से होते हैं जो उनसे सामान्यतः सम्बन्धित होती हैं। भावावेगों को तुरंत नहीं रोका जा सकता क्योंकि उसके साथ हृदय का क्षोभ विद्यमान रहता है।

कलाकृति का अनुभव स्वतन्त्र कल्पना से उत्पन्न भावावेश के साथ - साथ बौद्धिक हर्ष का अनुभव है। बाह्य वस्तुएँ हमारी पाँच बाह्य इन्द्रियों को प्रेरित करती हैं। जो अनुभव उनको सुखदायी होते हैं उनसें इन्द्रियगत हर्ष होता है किन्तु कल्पनागत हर्ष (खुशी, प्रसन्नता) चेतन वृत्तियों अथवा काव्य नाटक इत्यादि कृतियों से उत्पन्न होता है। इस स्थिति में स्मृति से संचित - बिम्बों, ज्ञाप्तियों अथवा प्रत्ययों में परिवर्तन भी किया जा सकता है उनसे नये बिम्बों की रचना की जा सकती है। अतीत के अनुभवों के आधार पर सहायता से चेतन वृत्तियों द्वारा मांसपेशियाँ तथा ज्ञान तंतुओं में उत्तेजना ऐसी ही जन्म लेती है। जिसका परिणाम खुशी में स्पष्ट परिलक्षित है। यदि यह उत्तेजना चेतना वृत्तियों के स्वभाव के विपरीत होती है तो इसका परिणाम दुःख के भाव के अनुभव में होता है किन्तु कलाकृतियों के भाव से किसी भी प्रकार की हानि न पहुँचने के कारण आत्मा को आनंद का अनुभव होता है। ऐन्द्रिय हर्ष अथवा भावावेग से सम्बन्धित न रहने वाला शुद्ध बौद्धिक हर्ष प्रदान करता है। देकार्ट ने कलाकृति से उत्पन्न अनुभव का निम्नलिखित रूप में वर्णन किया है-

1. कलाकृति से सर्वप्रथम प्रत्यय जागृत होते हैं।

2. मन का भावावेग बाहरी भावोवेग से भिन्न होता है।

3. प्रतिकूल बाहरी भावावेगों से भी हर्षयुक्त आन्तरिक भावावेग उत्पन्न हो सकते हैं।

4. कलाकृति का हर्ष बौद्धिक हर्ष के साथ - साथ भावावेग का अनुभव भी है। अतः यह शुद्ध बौद्धिक हर्ष से भिन्न है।

5. बाहरी उत्प्रेरकों की प्रेरणा से स्वतन्त्र कल्पना भावावेगों को जागृत करती है।

देकार्त ने सौन्दर्य की व्याख्या में अनुभूतियों को महत्वपूर्ण माना है और सौन्दर्यानुभूति तथा मनोविज्ञान का सम्बन्ध स्थापित किया है। उन्होंने सौन्दर्य को अनुकूलता से सम्बन्धित माना और अनुकूलता का अर्थ सहानुभूति मूलक अनुपात अनुरुपता बताया। इस प्रकार उनके विचार से प्रतिक्रिया के अनुरूप उत्तेजना की अनुभूति में सौन्दर्य है। संगीत के राग मानवीय आत्मा में निहित भावनाओं को जागृत करते हैं। उपर्युक्त के आधार पर देकार्त को आधुनिक दर्शनशास्त्र का जनक माना जाता है। दार्शनिक देकार्त को योरोपियन दर्शन में बुद्धिवादी का प्रवर्तक भी माना गया है। इनकी दार्शनिक प्रणाली और तर्क-पद्धति की अपनी विशिष्टता है। यह समसामायिक दार्शनिक प्रणाली के अस्पष्ट तथा उलझनपूर्ण विचारों के कारण असंतुष्ट हैं। इनके समाधान हेतु देकार्त ने नवीन दार्शनिक पद्धति का विचार किया व प्रारम्भ किया।

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