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बीए सेमेस्टर-4 चित्रकला

सरल प्रश्नोत्तर समूह

प्रकाशक : सरल प्रश्नोत्तर सीरीज प्रकाशित वर्ष : 2023
पृष्ठ :160
मुखपृष्ठ : पेपरबैक
पुस्तक क्रमांक : 2750
आईएसबीएन :0

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बीए सेमेस्टर-4 चित्रकला - सरल प्रश्नोत्तर

 

प्रश्न- कला सृष्टि क्या है? इस विषय में आप क्या जानते है?

उत्तर -

कला सृष्टि

कला की धारणाओं तथा सौन्दर्य सम्बन्धी मान्यताओं का विवेचन अलग से कला एवं सौन्दर्य के अन्तर्गत किया जाता है। प्रस्तुत प्रसंग में कलाओं के आकृति मूलक पक्ष के उन सामान्य तत्वों का ही पर्यवेक्षण किया जा रहा है जो कलाओं को स्वरूप निर्धारण करने के कारण तथा कार्य दोनों की ही भूमिका निभाते हैं। सम्पूर्ण संसार में कलात्मक वस्तुओं को प्राकृतिक वस्तुओं से पृथक किया जाता रहा है। यह मान्यता है कि मनुष्य की क्रियाओं में से कुछ ऐसी भी हैं जो अनेक प्रकार की वस्तुओं का सृजन करती हैं। इनमें से एक भेद कलात्मक वस्तुओं का भी है। इस प्रकार यह कल्पना कर ली गयी है कि किसी वस्तु के बिना कला का भी अस्तित्व नहीं हो सकता। काव्य के शब्दों, संगीत की ध्वनियों, नृत्य की मुद्राओं आदि को हम इसी प्रकार की वस्तुएँ मान सकते हैं जिनके बोध से हमें कला का अनुभव होता है।

मनुष्य के द्वारा निर्मित सभी वस्तुओं का कलात्मक महत्व नहीं होता। इसी प्रकार किसी भी वस्तु को पूर्णतः कलाहीन भी नहीं कहा जा सकता। किसी हथियार, औजार अथवा यन्त्र में भी कुछ-न-कुछ कलात्मक तत्व निहित रहता है। फिर भी जो वस्तुएँ केवल कलात्मक्रता को ध्यान में रखकर निर्मित की जाती हैं इन्हीं को कला में विश्लेषण का आधार बनाया जाता है। कभी-कभी यह भी सम्भव है कि, कलात्मकता के विचार से निर्मित वस्तुओं को कला के समीक्षक पूर्णत: कलाहीन घोषित कर दें और कला का विचार किये बिना बनाई गई वस्तुएँ कलात्मक समझी जायें। आधुनिक कलाविदों का तो यह भी विचार है कि कलात्मकता का लक्ष्य पहले से निर्धारित कर लेना कलाकृति के निर्माण में रोड़ा अटकाने के समान है। इस प्रकार कलाओं का क्षेत्र सीमित भी माना जाता है और असीमित भी। इससे हम निम्नांकित निष्कर्षों पर पहुँचते हैं-

(क) यद्यपि प्रत्येक कलाकृति टेक्नीकल प्रक्रिया के परिणामस्वरूप अस्तित्व प्राप्त करती है तथापि तकनीकी कुशलता ही उसकी कलात्मकता का पर्याप्त आधार नहीं है।

(ख) किसी रचना-पद्धति का पूर्ण ज्ञान और कलात्मक मन्तव्य होते हुए भी कृति की कलात्मकता अनिश्चित रहती है। अतः इसके निर्माण में कुछ ऐसे कारणों का सहयोग अनुमानित किया जाता है जो मनुष्य के सामान्य दैनिक व्यवहार से भिन्न होते हैं (जैसे स्वप्न, विचित्र कल्पना आदि)। ये कारण ही रचना-पद्धतियों को विशेष दिशा में मोड़ देते हैं।

(ग) किसी कृति की कलात्मकता का निर्णय उस कृति के बन जाने के उपरान्त ही 'व्यक्ति रूप में किया जा सकता है। इस प्रकार किसी कृति का कलात्मक महत्व उसके सौन्दर्य को स्वीकार करने के पश्चात् ही निश्चित किया जा सकता है।

मनुष्य के समस्त मानसिक व्यापारों में कला का क्या स्थान है - इसका विचार सौन्दर्यशास्त्र का विषय है। दूसरा महत्वपूर्ण प्रश्न यह है कि कला का सारतत्व क्या है? यह प्रश्न जिस अन्य प्रश्न से जुड़ा हुआ है वह यह है कि किसी कृति की कलात्मकता के निर्णय का आधार क्या है? कभी-कभी यह निर्णय सौन्दर्य के सामान्य नियमों पर आधारित रहता है। किसी 'कृति के प्रत्येक अंग के विवेचन से उसकी कलात्मकता का निर्णय किया जाता है। प्रथम स्थिति में किन्हीं पूर्व निर्धारित आदर्शों की प्राप्ति हीं कला का लक्ष्य है और द्वितीय स्थिति में कलात्मक प्रक्रिया के परिणामस्वरूप कलात्मक सौन्दर्य का विकास माना जाता है। दोनों ही स्थितियों में, कलाकार ने जिस प्रक्रिया का अनुकरणं किया है, उसकी सार्थकता का निर्णय अन्तिम कला रूप को आधार मानकर किया जाता है। कृतियों के अन्तिम रूप का विचार करने पर कला मानव- व्यवहार की एक ऐसी क्रिया मानी जा सकती है जिसमें पहले से चले आते हुए शिल्प-विधान का प्रयोग होते हुए भी उससे आगे बढ़ने की चेष्टा की जाती है और इस प्रकार नवीन सौन्दर्यगत मूल्यों की स्थापना की जाती है। ये मूल्य कृति के गुण से सम्बन्धित रहते हैं। वस्तु के परिणाम अथवा उपयोग से नहीं। इस दृष्टि से प्रत्येक कृति मौलिक कही जा सकती है।

कृति का यह गुण अथवा महत्व केवल तभी तक है जब तक कि कलाविद अथवा कला-आलोचक उसे स्वीकार करते हैं। इन लोगों की आलोचना पर ही सामाजिक प्रतिक्रिया निर्भर रहती है। आलोचक भी कलाकृति की रचना-प्रक्रिया का ही विवेचन करता है और समाज भी कृति में प्रयुक्त उस रचना प्रक्रिया के अनुसार स्वयं को ढालने का प्रयत्न करता है। अतएव समाज ने शिक्षा और निर्माण के क्षेत्रों में कला का महत्वपूर्ण योगदान स्वीकार किया है।

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