बी ए - एम ए >> बीए सेमेस्टर-4 चित्रकला बीए सेमेस्टर-4 चित्रकलासरल प्रश्नोत्तर समूह
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बीए सेमेस्टर-4 चित्रकला - सरल प्रश्नोत्तर
प्रश्न- वर्गीकरण की पद्धतियाँ और प्रस्तुतीकरण की समस्याओं पर विचार व्यक्त करिए।
उत्तर-
प्रस्तुतीकरण की समस्यायें एवं वर्गीकरण की पद्धतियाँ कला के स्वरूप एवं विकास के प्रकारों का विचार करने पर यह जानकारी प्राप्त होती है कि सर्वप्रथम उसके दृश्य रूप के वर्गीकरण का प्रयत्न किया गया है। इसके कुछ व्यावहारिक भेद हैं किन्तु वे इसे अन्य साधारण कार्यों से अलग नहीं कर पाते जैसे पात्रों की रचना स्वर्णकारी आदि। सामग्री के प्रयोग की दृष्टि से भी इसके भेद किये गये हैं, जैसे चित्रकारी, खुदाई, बुनाई आदि। निर्मित वस्तुओं के आधार पर भी इसका वर्गीकरण हुआ है जैसे फर्नीचर, पर्दे, कालीन, पदक आदि। कुछ शब्द ऐसे भी हैं जो न किसी विशेष माध्यम का बोध कराते हैं न तकनीक का जैसे मूर्तिकला एवं वास्तुकला आदि। चित्रकला के क्षेत्र में ग्रीक शब्द 'ग्राफिकी' का अर्थ केवल लिखना ही नहीं बल्कि लिखने और चित्र बनाने के लक्ष्य एवं आकृति, कल्पना आदि बौद्धिक उद्देश्यों तक विस्तृत हैं। चीन जापान में लिपि और चित्रकला का घनिष्ठ सम्बन्ध है और वे कविता तथा इतिहास चित्रण का अभिन्न अंग हैं। कलाओं का प्रत्येक वर्गीकरण किसी एक क्रिया को अन्य क्रियाओं से अधिक महत्व प्रदान करता है। इस प्रकार एक कला सर्वश्रेष्ठ तथा अन्य कलायें क्रमशः कम महत्व की होती चली गई। यूनानी दर्शन में कलाओं का प्रथम भेद 'दृश्य' तथा 'श्रव्य' किया गया। संगीत एवं कविता को अन्य मूर्त कलाओं से अलग रखा गया। उनमें उस प्रकार के श्रम की आवश्यकता नहीं समझी गई जिसके द्वारा किसी पदार्थ को किसी विशेष रूप में ढाला जाता है। प्लेटो में इसका स्पष्ट उल्लेख मिलता है।
अरस्तू के काव्यशास्त्र में यद्यपि दृश्यकलाओं का विचार नहीं हुआ फिर भी काव्य के सिद्धान्तों का आधार लेकर ही दृश्य कलाओं के अनेक सिद्धान्तों का विकास हुआ। अरस्तू का प्रमुख विचार अनुकृति से सम्बन्धित है। अनुकृति का यह विचार कला तथा शिल्प का भेद करने में बड़ा सहायक सिद्ध हुआ। अनुकृति को हम चाहे सृजनात्मक मानें चाहे न मानें किन्तु यह अवश्य है कि नकल का हम तुरन्त कोई उपयोग नहीं कर सकते अतएव कला के उपयोगी होने का प्रश्न उठता है। वास्तव में ऐसी वस्तु का अन्य उपयोग तभी सम्भव है जब हम उसे सफल अनुकृति के द्वारा कलात्मक पूर्णता दें। यहीं से कलाकृतियों के रूपों तथा प्रस्तुतीकरण के तरीकों का वर्गीकरण आरम्भ हुआ और अन्य वस्तुओं से कलात्मक वस्तुओं में भेद आरम्भ हुआ। कलाकार का समाज में सम्मान बढ़ा और अनेक संभ्रान्त व्यक्ति कलाकारों के शिष्य बने।
मध्यकालीन यूरोप में यह भेद समाप्त होता स्पष्ट परिलक्षित है क्योंकि उस समय सभी प्रकार के शिल्पी अच्छे कलाकार थे और सभी वस्तुओं में कुछ न कुछ कलात्मकता रहती थी फिर भी यूरोप तथा मुस्लिम जगत में यांत्रिक तथा उदार कलाओं में भेद माना गया। यह वर्गीकरण आज के बड़ी कलायें (Major Arts) तथा छोटी अथवा उपयोगी कलायें (Minor or Applied Arts) नामक वर्गीकरण से बहुत मिलता-जुलता है। प्रथम प्रकार के कलारूपों की प्रेरणा लेकर ही दूसरे प्रकार के कलारूप विकसित होते हैं, किन्तु आज यह वर्गीकरण त्रुटिपूर्ण माना जाता है। आधुनिक कला रूपों से इसे व्यर्थ सिद्ध करने का प्रयत्न किया है। अनुकृति के सिद्धान्त के कारण वास्तुकला की व्याख्या में कठिनता आई है क्योंकि इसमें एक वैज्ञानिक विधि से ऐसे उपयोगी भौतिक कलेवर की रचना की जाती है जिसको अनुकृति नहीं कह सकते। रूप पद्धति तथा तत्वों की दृष्टि से कुछ आलोचकों ने इसमें साम्यता दिखाने की कोशिश की। अनुकृति के सिद्धान्त से अलग वास्तुकला के एक अलग सिद्धान्त की स्थापना का प्रयत्न प्राचीन यूनान में आरम्भ में हुआ था। इसके सिद्धान्त केवल व्यावहारिक आवश्यकताओं पर आधारित नहीं थे। भवन की कल्पना में प्रचुर प्रकाश तथा उचित वातावरण से युक्त एक निश्चित विस्तार का आदर्श निहित रहता था। इस प्रकार भवन का महत्व चित्र अथवा मूर्ति की भाँति ही उसके दृश्यमान रूप पर आधारित किया गया था।
छन्द चारुत्व तथा सम्मात्रा के विषय में यही कहा जाता है। यद्यपि उसका सौन्दर्य भी उनके दृश्य प्रभाव में निहित है तथापि उनका वास्तविक महत्व प्रकृति एवं मानव शरीर में मिलने वाले नियमों एवं अनुपातों के अनुकरण में है। मध्यकालीन पश्चिमी सभ्यता तथा भारतीय एवं पूर्वी सभ्यताओं में भवन को पूर्ण अनुकृति न मानते हुए भी प्रतीक तथा रूपक विधि से सार्वभौमिक मान्यताओं द्वारा मूल्यों को प्रस्तुत करने में समर्थ माना गया है। इसके विपरीत पुनरुत्थान कालीन यूरोप में यह समझा जाता था कि कोई भी भवन की आकृति एक ऐसे विस्तार को प्रस्तुत करती है जो निश्चित लक्ष्य को लेकर गणितीय नियमों के आधार पर निर्मित किया गया हो। इस प्रकार वास्तुकला प्रकृति के बाह्य पक्षों की अनुकृति न करके सत्य के आन्तरिक एवं नित्य स्वरूप को प्रस्तुत करती है। इस सिद्धान्त के आधार पर अठारहवीं तथा उन्नीसवीं सदी में अन्य कलाओं से भिन्न भवनकला का एक स्वतन्त्र सौन्दर्यशास्त्र विकसित करने का प्रयत्न किया गया। इस कला को अन्य कलाओं से श्रेष्ठ और अधिक संकल्प विकल्पमात्मक माना गया था। आधुनिक युग में भी यह स्वीकार किया जाता है कि भवन कला पूर्णतः मानव के उपयोग को ध्यान में रखते हुए प्रतिरूपण से एकदम अलग नहीं की जा सकती बल्कि इसमें आधुनिक मानव समाज की ही आध्यात्मिकता प्रतिफलित हुई है। यदि भवन कलाओं को अन्य कलाओं से श्रेष्ठ माना जाता है तो सभी कलाओं को उनके मूल्यों के आधार पर महत्व देना चाहिए। ये मूल्य प्रस्तुतीकरण की प्रभावशीलता से सम्बन्धित रहते हैं। जब तक वस्तुएँ ईश्वर के चिह्नों के रूप में, मध्यकालीन यूरोप की भाँति रहती हैं तब तक उनमें इन मूल्यों की स्थापना नहीं होती किन्तु जब प्राकृतिक पदार्थों में किसी के साक्षात् अस्तित्व और अर्थवत्ता की कल्पना कर लेते हैं तभी उनमें इन मूल्यों का समावेश हो जाता है। इसी आधार पर सोलहवीं शताब्दी के आरम्भ में यह विवाद उत्पन्न हुआ कि मूर्तिकला एवं चित्रकला में किसे श्रेष्ठ कहा जाये। मूर्ति में गढ़नशीलता होती है किन्तु चित्र में समतल पर ही गढ़नशीलता के अतिरिक्त गहराई, वातावरण एवं गतिशीलता का मूर्तिकला से भी अधिक प्रभाव दिया जा सकता है। इस प्रकार सादृश्य, प्राकृतिक परिवर्तनशीलता, मानवीय भावों और आत्मा का अच्छा संकेत भी दिया जा सकता है। माइकेल एंजिलों का विचार था कि मूर्तिकला श्रेष्ठ है क्योंकि मूर्ति को काटा - छाँटा जाता है और इस प्रकार आरम्भ में लिए हुए पदार्थ (भोग) को कम करके अभिव्यक्ति की जाती है जबकि चित्र में हम कुछ न कुछ रंग लगाते हैं। इस प्रकार उसकी स्थूलता में निरन्तर वृद्धि करते हैं। यद्यपि यह विचार तकनीकी प्रकिया पर आधारित है फिर भी इसे स्थूल रूप में शारीरिक श्रम से सम्बन्धित नहीं समझना चाहिए। माइकेल एंजिलो का विचार था कि धीरे-धीरे पदार्थ की काट-छाँट करके कलाकार भौतिक माध्यम को नष्ट करता है और अपने लक्षित भाव को उसके बन्धन से मुक्त करता है। इसी सिद्धान्त के आधार पर किन्तु ठीक इसके विपरीत चीन तथा जापान में चित्रकला को श्रेष्ठ माना जाता है क्योंकि चित्र में बहुत कम रंगों से बहुत कम प्रयत्न द्वारा किसी आकृति के साक्षात्कार का प्रयत्न किया जाता है। मूर्ति को एक शिल्प माना जाता है क्योंकि इसमें भौतिक पदार्थ की सीधी काट-छांट के द्वारा हिंसात्मक क्रिया का आश्रय लिया जाता है।
सत्रहवीं शदी से यूरोप में चित्रकला को बहुत महत्व दिया जाने लगा है। यह प्रस्तुतीकरण का सर्वाधिक प्रभावशाली माध्यम है अतः बाह्य यथार्थ तथा आन्तरिक परिस्थितियों के अंकन के हेतु यह सर्वाधिक उपयुक्त है। इसमें केवल दृश्यात्मक वस्तु-बोध एवं संवेदन ही नहीं वरन् कलाकार की मन:स्थित की भी व्याख्या की जा सकती है। किसी भाव को प्रस्तुत करने वाली विकसित बड़ी (Major) कलाओं (चित्रकला, मूर्तिकला एवं भवन) की परिधि में भी प्रस्तुतीकरण के प्रकारों के आधार पर उनके उपभेद किये जा सकते हैं। जैसे - धार्मिक, नागरिक अथवा सैनिक वास्तुः अनुष्ठान मूलक, पवित्र व्यक्तिमूलक अथवा आलंकारिक मूर्ति शिल्प ऐतिहासिक, धार्मिक, व्यक्ति मूलक आलंकारिक, दृश्यात्मक अथवा लौकिक पक्ष (विषयों) से सम्बन्धित चित्र - शिल्प आदि। दृश्यों में वीरभाव मूलक, खण्डरों से सम्बद्ध, परिप्रेक्षात्मक एवं विचित्र कल्पनात्मक इत्यादि उपभेद मिलते हैं। आकृति चित्रों के नग्न आकृति, एकल चित्र अथवा समूह चित्र आदि का भेद किया जा सकता है। इन भेदों में केवल किसी कलाकार की शिल्पगत योग्यता का ही आधार पर ही नहीं है बल्कि इन वस्तुओं के प्रति कलाकार तथा दर्शक की भावनात्मक प्रतिक्रिया का आधार है। यह प्रतिक्रिया वस्तु के सभी पक्षों के प्रति न होकर केवल किसी एक ही पक्ष के प्रति होती है, जिससे कि कलाविद् प्रभावित एवं प्रेरित होता है। स्थिर जीवन में फूल, वाद्ययन्त्र भोजन सामग्री आदि का भेद किया जा सकता है।
आधुनिक सौन्दर्य कला के भौतिक पक्षों के वर्गीकरण को केवल व्यावहारिक मानता है और इन्हें केवल ऐतिहासिक विकास को समझने में महत्वपूर्ण समझता है। इनका उपयोग वह किसी सौन्दर्यानुभव को प्रत्यक्ष करने तथा उसके संदर्भ में किसी भौतिक सामग्री के प्रयोग एवं कलात्मक क्रिया - व्यापार को स्पष्ट करने में ही करना उचित समझता है। इसके विपरीत कला का इतिहास कला के ऐतिहासिक भेद करता है और तिथियों और भौगोलिक परिस्थितियों के आधार पर कलाओं एवं प्रवृत्तियों का वर्गीकरण करता है। स्वदेशी अथवा विदेशी के आधार पर कलाओं का समर्थन अथवा विरोध भी किया जाता रहा है। ग्रीक, रोमन, लैटिन तथा आधुनिक आदि शब्दों के साथ भी यही हुआ है। इटली के गोथिक कलाकारों ने ग्रीक कला के विरोध में ही नवीन शैली का विकास किया था। पिसानो तथा जियोत्तो इसमें प्रमुख थे। धीरे - धीरे लैटिन का अर्थ आधुनिक हुआ और आधुनिक को जर्मनी से जोड़ा जाने लगा। इस प्रकार आधुनिक का विरोध भी हुआ । वर्तमान युग में आधुनिक शब्द का अर्थ कई बार बदला गया है। ऐतिहासिक तथा आविष्कारक प्रवृत्तियों का समन्वय करके देखने पर महान प्रतिभाशाली व्यक्तित्व सामने आते हैं जिन्होंने अपने - अपने देश की कला पर निर्णायक प्रभाव डाला है। इस प्रकार का अध्ययन कला- शैलियों के आधार को जन्म देता है और इस प्रकार से स्कूलों' का जन्म हुआ। 'स्कूल' शब्द का प्रयोग सन् 1440 ई. में सर्वप्रथम माइकेल सेवानारोला ने पादुआ में जियोत्तो की शैली का अनुकरण करने वाले कलाकारों के लिए किया था। बसारी ने इसका बहुत कम प्रयोग किया किन्तु सत्रहवीं शदी में इसका व्यापक प्रयोग होने लगा। अठारहवीं शदी में राष्ट्रीय, क्षेत्रीय तथा स्थानीय स्कूलों के भेद पर पर्याप्त बल दिया जाने लगा। यूरोप की कला को मुख्य युगों में बाँटने का प्रयत्न सर्वप्रथम सन् 1763 ई. में विकिलमैन ने किया था। विकिलमैन ने ऐतिहासिक के बजाय कलाकारों के आदर्शों का आधार बनाया था और स्कूल शब्द के स्थान पर 'शैली' शब्द का प्रयोग किया। उसके विचार से 'स्कूल' में ज्यों की त्यों (जैसा है वैसा ही बनाना) परम्परा का अनुकरण होता है जबकि 'शैली' में आगे आने वाले कलाकारों की व्यक्तिगत उपलब्धियों का महत्व होता है। इसके साथ ही शैली शब्द सांस्कृतिक परिवर्तनों का भी संकेत देता है। 'स्कूल' में जहाँ एक प्रवर्त्तक आचार्य होता है और अन्य कलाकार उसके अनुकर्त्ता एवं शिष्य होते हैं वहाँ पर शैली से आरम्भ - विकास - चरर्मोन्नति-परिवर्तन ह्यस इत्यादि का क्रम रहता है।
सन् 1835 - 1838 ई. के मध्य प्रकाशित सौन्दर्यशास्त्र की पुस्तक में जर्मन विद्वान हीगेल ने कलाओं के वर्गीकरण को ऐतिहासिक गोले (परिधि, घेरा) से निकालकर सामान्य सौन्दर्यशास्त्र में स्थान दिया। उसने कला के तीन स्तर माने-
1. प्रतीकात्मक (वास्तुकला)
2. शास्त्रीय (मूर्तिकला)
3. स्वच्छन्द (चित्रकला)
उन्नीसवीं शती में व्यापक प्रवृत्तियों के आधार पर कला के कुछ सामान्य भेद करने का प्रयत्न हुआ जिसके फलस्वरूप कला का इतिहास प्राचीन क्लासीकल (शास्त्रीय), रोमनस्क, गोथिक, पुनरुत्थान, रीतिवाद, बरोक, नवशास्त्रीय, रोमाण्टिक (स्वच्छन्दवाद) इत्यादि प्रवृत्तियों (वादों) में वर्गीकृत किया। इसके सूक्ष्म भेद भी किये गये जैसे आरम्भिक पुनरुथान अथवा अन्तिम गोथिक इत्यादि। कुछ आलोचकों ने कलाकृतियों के केवल विशुद्ध दृश्य संवेदनों को महत्व देने का प्रयत्न किया है। उन्होंने कला का वर्गीकरण दृश्यात्मक अवयवों के आधार पर करने की चेष्टा की है। ये अवयव एक युग की कला में है तो दूसरे युम में नहीं है। जैसे पुन्ज (Mass), धरातल, खुली अथवा बंधी आकृति चित्रात्मक अथवा घनात्मक रूप स्थिरता अथवा गतिशीलता आदि। यद्यपि चित्रों को समझने में इनसे अत्यधिक सहायता मिलती है। तथापि (फिर भी) ये समस्त कला को कोई सामान्य आधार नहीं दे सके हैं। इनके द्वारा प्रस्तुत आधार पर कलाकृतियों की समीक्षा करने पर एक तो एक तत्व के विचार के समय शेष तत्वों को छोड़ देना पड़ता है और दूसरे अनेक देशों और अनेक युगों के एक-दूसरे से पूर्णतः निम्न कलारूपों में भी ये एक समान मिल जाते हैं जिससे किसी शोध की कला के वास्तविक भौगोलिक स्वरूप को पहचानने में कठिनाई होती है।
आधुनिक युग के कलाकार प्राय: पूर्व निर्धारित वर्गों, वादों (isn) तथा तकनीक को लेकर ही प्रकट होते हैं। अतः इनके अनुसार कला का अध्ययन, पूर्व निश्चित धारणाओं के अन्तर्गत ही किया जाने लगा है या किया जाना चाहिए। धनवाद (Cubism), अभिव्यंजनावाद (Expressnism Impressnism), अतियथार्थवाद इत्यादि के अन्तर्गत रूप में दल बनाकर कार्य करना इसकी पुष्टि करता है।
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