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बीए सेमेस्टर-4 चित्रकला

सरल प्रश्नोत्तर समूह

प्रकाशक : सरल प्रश्नोत्तर सीरीज प्रकाशित वर्ष : 2023
पृष्ठ :160
मुखपृष्ठ : पेपरबैक
पुस्तक क्रमांक : 2750
आईएसबीएन :0

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बीए सेमेस्टर-4 चित्रकला - सरल प्रश्नोत्तर

 

अध्याय - 3
कला और सौन्दर्य
(Art and Beauty)

 

प्रश्न- कला और सौन्दर्य के विषय में आप क्या जानते हैं?

उत्तर-

कला और सौन्दर्य (Art and Beauty) - सौन्दर्य एक भावना है। हम सभी संसार में विविध प्रकार की वस्तुएँ देखते हैं, इन वस्तुओं को देखने पर हमारे मन में जो प्रभाव पड़ते हैं उनमें से एक सुन्दरता का प्रभाव भी स्पष्ट परिलक्षित है। विविध प्रकार की सुन्दरता के अनुभव के आधार पर हम सभी वस्तुओं में निहित एक सामान्य सौन्दर्य गुण की कल्पना कर लेते हैं परन्तु यह सौन्दर्य गुण पूर्णरूपेण कहीं भी दृष्टव्य नहीं है। इसका कुछ अंश ही दृष्टव्य है अतएव सौन्दर्य एक काल्पनिक प्रत्यय मात्र है जो वस्तुओं की सुन्दरता के आधार पर विकसित होता है। इस दृष्टि से हम वस्तुओं को सुन्दर कहते हैं।

सौन्दर्य के विषय में दो मान्यतायें हैं - एक मत यह है कि सौन्दर्य वस्तु में निहित होता है। इसे भौतिक सौन्दर्य कहा जा सकता है। दूसरा अभौतिक अथवा मानसिक सौन्दर्य है। इन दोनों भेदों को क्रमश: वस्तुगत (Objective) तथा आत्मगत (subjective) सौन्दर्य भी कहा जा सकता है।

अंग्रेजी भाषा में सौन्दर्य का वाचक शब्द Beauty है।

परिभाषा - 'बो' का अर्थ है प्रिय तथा ty - 'टी' भाववाचक प्रत्यय है। इस प्रकार ब्यूटी का शाब्दिक अर्थ है - वह गुण जो इन्द्रियों को तीव्र आनन्द प्रदान करता है। भारतीय साहित्य में सौन्दर्य को इसी रूप में परिभाषित किया गया है। भारतीय साहित्य में सौन्दर्य का व्युत्पत्तिमूलक अर्थ है - सुन्दर + व्यज् = सुन्दर होने का भाव = सुन्दरता अर्थात् जो चित्त को आर्द्र (गीला) बना देता है। वास्तव में सौन्दर्य वस्तु की पूर्णता, अलौकिक अनुभूति का प्रेय तत्व है। इस अनुभूति को विश्लेषित - परिभाषित करने के लिए सौन्दर्यशास्त्र विज्ञान की भाँति कार्य करता है। अंग्रेजी में सौन्दर्य के लिए 'ब्यूटीं शब्द का प्रयोग होता है। अंग्रेजी भाषा के शब्दकोश के अनुसार इसका अर्थ, 'इन्द्रियों को तीव्र आनन्द देने वाला गुण अथवा गुणों का समूह है। ब्यूटी' की व्युत्पत्ति करते हुए दो भाग किये गये हैं- 'ब्यू' अर्थात् 'बो' का अर्थ है 'श्रृंगार अथवा चित्ताकर्षण रसिकता' और 'टी' भाववाचक प्रत्यय होने से ब्यूटी का अर्थ हुआ-भाव उत्पन्न करने वाली चित्ताकर्षक रसिकता। (दि शार्टर ऑक्सफोर्ड डिक्शनरी)

विश्व में सौन्दर्यशास्त्र के दो अंग हैं- कला एवं सौन्दर्य परन्तु कला और सौन्दर्य का कोई सम्बन्ध नहीं है। यह जरूरी नहीं है कि हर (प्रत्येक ) कलात्मक वस्तु सुन्दर हो और यह भी जरूरी नहीं है कि सौन्दर्य का जन्म सदैव ही कला के गर्भ से हो। इस प्रकार सौन्दर्य के दो प्रकार परिलक्षित हैं - प्राकृतिक एवं कलात्मक।

वस्तुगत सौन्दर्य - सौन्दर्य एक अत्यन्त व्यापक धारणा है, इसके अन्तर्गत प्रकृति से लेकर मानव निर्मित पदार्थ तक सभी समाहित हैं। अतएव इसके दो भेद किये गये हैं- 1. प्राकृतिक 2. मानव निर्मित तथा कृत्रिम।

प्राकृतिक सौन्दर्य - प्रकृति ईश्वर द्वारा बनाई गई रचना (कृति) है जिसे कलाकृति नहीं माना जा सकता। मनुष्य प्रकृति के संरक्षण में पलकर बड़ा हुआ है। अतः मनुष्य की सौन्दर्य भावना के विकास का मूल आधार प्रकृति को माना गया है। प्राकृतिक सौन्दर्य के भेद किये गये हैं - सुन्दर और उदात्त। जिन वस्तुओं का आकार अधिक बड़ा न हो, जो निकट हों तथा उन्हें देखकर प्रियता, माधुर्य अथवा प्रसन्नता का भाव जागृत हो, वे सुन्दर में गिनी जाती हैं। प्रकृति की विशाल आकार की वस्तुओं जैसे समुद्र, पर्वत, विशाल आकार के मेघ और विस्तृत आकाश आदि को देखकर मनुष्य को अपनी लघुता का आभास होता है और वह कुछ देर के लिए आश्चर्य चकित होता है। हमारी प्रवृत्तियों में गतिरोधक उत्पन्न होता है किन्तु पुनः विशाल वस्तुओं के साथ तादाम्य भाव जाग्रत करके हम भी विशालता और उच्चता का अनुभव करने लगते हैं। यही 'उदात्त' की अनुभूति है। जो प्राकृतिक वस्तुएँ हमारे जन्म से ही सम्पर्क में आकर इन्द्रिय सुख अथवा अनुकूलता प्रदान करती हैं उनसे उनके रूप, रंग, ध्वनि, स्पर्श, गति इत्यादि हमें सुन्दर प्रतीत होते हैं। परन्तु प्रकृति में सौन्दर्य हमें इन्द्रिय बोध के कारण ही अनुभव होता है। प्रकृति वास्तव में सुन्दर या असुन्दर है और नहीं भी है। सभी प्राकृतिक वस्तुओं को दृष्टा अपने नेत्रो से देखकर मन में उस वस्तु के लिए सुन्दर और असुन्दर की धारणा बना लेते हैं। यह आवश्यक नहीं कि वह वस्तु अगर हमें सुन्दर लग रही है तो दूसरे व्यक्ति को भी सुन्दर लगेंगी।

सभी प्राकृतिक वस्तुएँ सृष्टि के उत्पादन और विनाश के नियम के अनुसार बनती हैं और नष्ट होती रहती हैं। प्रकृति की रचना सृष्टि के नियमों के आधार पर होती है, सौन्दर्य के नियमों के आधार पर नहीं। प्राकृतिक सौन्दर्य विश्व में समाहित है किन्तु सौन्दर्य सापेक्ष होता है। व्यक्ति की मन:स्थिति पर ही सौन्दर्य आधारित है। कला का लक्ष्य सौन्दर्य नहीं है। सौन्दर्य वहीं दृष्टिगत होने लगता है जहाँ किसी व्यक्ति को अभिरूचि की वस्तु मिल जाती हैं। सौन्दर्य कला के मूल्यांकन का महत्वपूर्ण मापदण्ड है परन्तु सौन्दर्य के मापदण्ड परिवर्तित होते रहते हैं प्राचीन काल में संतुलन सौन्दर्य का प्रमुख अंग रहा। कला के मूलभूत तत्वों को एक ही संयोजन में.. संयोजित किया गया रेखा, रंग, आकार, प्रमाण, संतुलन इत्यादि किन्तु कलाकार के परिवर्तन की इच्छा से प्रयोगों में परिवर्तन होता रहता है जिससे सौन्दर्य के मानदण्ड में भी परिवर्तन होते हैं। परन्तु कुछ भी हो कला का मानदण्ड सौन्दर्य ही है। कला का सौन्दर्य उद्गम प्रकृति व पुरुष के साहचर्य का परिणाम है। सौन्दर्य का उद्गम प्रकृति है। प्रकृति के सौन्दर्य से प्रेरित होकर ही कलाकार अपनी कल्पना व ज्ञान से कलाकृति का निर्माण करता है। मानव में सौन्दर्य ज्ञान जन्मजात होता है। कला इतिहास में इसके प्रमाण मिलते हैं। उपयोगिता के आधार पर कलात्मक वस्तुओं की निर्मित के पश्चात् भी वह उन्हें सुन्दर बनाने के लिए चित्रित करता था। इस प्रकार उपयोगिता के साथ ही वह अपनी आत्म संतुष्टि व आनन्दानुभूति ( आनन्द (सुख) की अनुभूति) के लिए सौन्दर्य पूर्व सृजन भी चाहता है किन्तु सौन्दर्य पर गहन विचारों के पश्चात् मूल प्रश्न है कि सौन्दर्य क्या है? वस्तुतः सौन्दर्य एक भौतिक यथार्थता होने के साथ ही एक मानसिक अनुभूति भी है। सौन्दर्य के दो पक्ष हैं - व्यावहारिक व दार्शनिक। व्यावहारिक पक्ष यथार्थता से जुड़ा है तो दार्शनिक पक्ष मानसिक अनुभूति से। इसलिये सौन्दर्य वस्तु में भी है व दृष्टि में भी है। दोनों के पारस्परिक सहयोग से ही हमें सौन्दर्य को सुखपूर्वक अनुभव होता है।

पाश्चात्य विचारकों ने सौन्दर्य को अपने विचारों के अनुसार विविध रूपों में परिभाषित किया है-

1. सुकरात के अनुसार - "सुन्दर व शिव एक हैं अतः सुन्दर जीवन सापेक्ष है।'

2. प्लेटो के अनुसार - "सुन्दर, शिव और सत्य एक है। सुन्दर परम व पूर्ण है तथा सुन्दर के लिए नैतिक होना आवश्यक है।"

3. अरस्तू के अनुसार - "सौन्दर्य को आकांक्षा, वासना और उपयोगिता के ऊपर की वस्तु माना है।

4. प्लूटार्क के अनुसार - "सौन्दर्य एक प्रकार की कलात्मक कुशलता है।'

5. प्लाटिनस के अनुसार - "सौन्दर्य को पूर्णत: भावगत और रहस्यात्मक अनुभूति माना।"

6. बाउमगार्टेन के अनुसार - "सौन्दर्य का चरम प्रतिमान प्रकृति को बताते हुए प्रकृति के अनुकरण को ही सौन्दर्य सृजन कहा।"

7. काण्ट के अनुसार - "सौन्दर्य चिन्तनशील धारणा का आनन्द है।'

8. शेफ्टसबरी के अनुसार -  "सौन्दर्य और परम विभू एक है।'

9. रस्किन के अनुसार - "सौन्दर्य ईश्वर की विभूति है।'

10. चर्निशेष्स्की के अनुसार - "सौन्दर्य ही जीवन है।'

भारतीय विचारकों की दृष्टि में भी सौन्दर्य का विशेष महत्व रहा है जो चारुत्व, रमणीयता, शोभा, क्रान्ति, चमत्कार, वैचित्र्य, वक्रता इत्यादि नामों से दृष्टिगत होता है। भारतीय मनीषियों की दृष्टि में सौन्दर्य का महत्व वैदिककाल से ही रहा है। सौन्दर्य के उक्त पर्यायों के आधार पर सहज ही अनुमान लगाया जा सकता है कि भारतीय विद्वानों की दृष्टि में सौन्दर्य शब्द का अत्यधिक महत्व था। वेदों व उपनिषदों में अनेक स्थानों पर सौन्दर्य का स्वाभाविक वर्णन हुआ है। ऋषियों द्वारा वर्णित सौन्दर्य परम तत्व का सौन्दय है जिसे मानव का प्रकृति दोनों में देखने का प्रयास किया है।

1. कालिदास के अनुसार - "परम सौन्दर्य की निर्मिति मानसिक सहज ज्ञान से सम्भव है।'

2. कवि भारवि के अनुसार - "सौन्दर्य को वस्तुनिष्ठ माना हैं। जो रम्य है, सुन्दर है, उसके लिए कोई आहार्य गुण अपेक्षित नहीं होता।"

3. माघ की दृष्टि के अनुसार - "सौन्दर्य वह है जो क्षण-क्षण नवता प्राप्त करें।"

4. भवभूति के अनुसार - "सौन्दर्य विलक्षण एवं अतुलनीय है।"

5. तुलसीदास के अनुसार - "सौन्दर्य को अतुलनीय, विलक्षण व पूर्ण माना है।'

6. कवि बिहारी के अनुसार - "सौन्दर्य को किसी सीमा में बाँधकर नहीं रखा जा सकता। सौन्दर्य मन की रुचि के अनुसार कम या अधिक अनुभव किया जाता है।'

7. आचार्य रूप गोस्वामी के अनुसार - "सौन्दर्य को सर्वप्रथम प्रत्यक्ष रूप में परिभाषित किया। उनके अनुसार अंग - प्रत्यंग का जो यथोचित सन्निवेश है, जो संश्लिष्ट संधि-बंध है उसे सौन्दर्य कहते हैं।'

8. मधु सूदन सरस्वती ने परमात्मा को - "सौन्दर्यसार सर्वस्व" कहकर उसके आध्यात्मिक स्वरूप को अंकित किया है।"

कृत्रिम सौन्दर्य - प्राकृतिक सौन्दर्य से प्रेरणा लेते हुए मानव निर्मित सौन्दर्य का विकास होता है। प्रकृति की विभिन्न सामग्रियों के जो गुण हैं, उन्हीं के अनुसार सामग्री का प्रयोग करते हुए मनुष्य कई प्रकार की सुन्दर वस्तुओं की रचना करता है। अतएव कृत्रिम सौन्दर्य में भी सामग्री प्रकृति से ही ली गई है। कृत्रिम सौन्दर्य से युक्त हम विभिन्न प्रकार की सामग्री का निर्माण करते है परन्तु वह सभी कलात्मक दृष्टि से महत्वपूर्ण नहीं होती। कुछ सामग्री केवल हमारी इन्द्रियों को कुछ समय के लिए सुख देती है। ऐसी वस्तुओं को शिल्प की श्रेणी में रखा जाता है। दूसरी ओर, सामग्री का श्रेष्ठ संयोजन ऐसे रूपों में किया जाता है जो कलात्मक दृष्टि से अभिव्यंजनीय होते हैं। कृत्रिम सौन्दर्य का प्रारम्भ प्रकृति के रूपों के पीछे छिपे नियमों की समझ से होता है, इसका सबसे स्थूल उदाहरण हैं। प्राकृतिक रूपों की नकल बनाना या भ्रम उत्पन्न करना। जब हम प्राकृतिक रूपों के वातावरण और परिस्थितियों के अनुसार विकास का अध्ययन करते हैं और उससे प्राप्त नियमों के आधार पर रूप रचना करते हैं तो ऐसे रूप अवयव प्रधान (आर्गेनिक) कहे जाते हैं। रूप तत्व के आधार पर सौन्दर्य के निर्देशन में मानव आकृति का आरम्भ से ही पर्याप्त महत्व रहा है। विश्व की शास्त्रीय कलाओं के प्रमुख रूप मानव शरीर के सौन्दर्य के आधार पर ही गढ़े (बनाये गये हैं। सम्पूर्ण संसार में पुरुष तथा नारी के शारीरिक सौन्दर्य के विभिन्न नियम बनाये गये हैं। ये नियम मुख्य रूप से शारीरिक स्वास्थ्य पर आधारित हैं तथा इनमें पुरुषोचित एवं स्त्रियोचित शारीरिक कार्य क्षमताओं का भी महत्व दृष्टिगोचर है। इसके अन्तर्गत समविभक्तता, शक्ति, स्थूलता अथवा कृशता, दृढ़ता अथवा कोमलता, उभार अथवा कान्ति, दीप्ति, लावण्य इत्यादि शरीर के स्वस्थ विकास की अहम भूमिका है। जब हम प्रकृति को गणितीय नियमों में बांधकर उन नियमों को ही कलात्मक रूप-रचना का आधार बना लेते है तो निर्माणात्मक सौन्दर्य का जन्म होता है। ऐसे रूप प्रायः ज्यामितीय होते हैं। इनका आधार दृष्टि विज्ञान न होकर भौतिक विज्ञान हैं जो प्रकृति की शक्तियों के आकर्षण तथा संतुलन के द्वारा पदार्थों की रूप रचना का विश्लेषण करता है। पिण्ड, शंकु, घन, बेलन, त्रिभुज, पंचभुज, षटभुज आदि इसी के परिणाम हैं। अतएव कलाकार अपनी कृतियों में इन्हीं ज्यामितीय रूपों का आश्रय लेकर चित्र रचना करता है। प्लेटो एवं अन्य विद्वानों ने इन्हें सृष्टि के पूर्णतम और सर्वोत्तम रूप माना और इनमें उच्चतम तथा गम्भीरतम प्रत्ययों की प्रतीकता भी निरूपित की थी। यूरोप के अनेक विद्वानों ने गणितीय आधार पर व्यवस्था, मात्रा, निश्चित सीमा, अनुपात, सामंजस्य, संतुलन आदि को सौन्दर्य का प्रमुख लक्षण माना है।

साहचर्यगत सौन्दर्य - सौन्दर्य की वस्तुगत सत्ता का विरोध करने वालों का यह विचार है कि सौन्दर्य वस्तु में न होकर दृष्टा के मन में होता है। क्योंकि कोई वस्तु सभी का एक समान सुन्दर नहीं लगती। जो वस्तु एक व्यक्ति को अच्छी लगती है वह किसी दूसरे व्यक्ति को बिल्कुल भी आकर्षित नहीं करती, अतः सौन्दर्य भावना हमारे मन की एक वृत्ति है जिसका आरोप हम बाहरी वस्तुओं पर डालते हैं। वास्तव में इस कथन में कोई तथ्य नहीं है। इसके विरुद्ध प्रथम बात यह है कि संसार में कुछ वस्तुएँ ऐसी हैं जिनकी सुन्दरता को सभी स्वीकार करते हैं, जैसे सुन्दर बालक का मुख मण्डल, सुन्दर- पुष्प, सूर्योदय अथवा चाँदनी रात्रि। दूसरी बात यह है कि, हमारी सौन्दर्य भावना का यह पक्ष सामाजिक विकास की प्रक्रिया का ही एक अंग है। वस्तुओं तथा रूपों के प्रति हमारी प्रतिकियायें शारीरिक आवश्यकताओं तथा इन्द्रिय-बोध के साथ-साथ सामाजिक प्रभावों से ही निश्चित आकार ग्रहण करती है। तीसरी बात यह है कि, मनुष्य सौन्दर्य - उत्पन्न नहीं करता, वह अपने सामाजिक विकास के क्रम में अपने चारों ओर बिखरे सौन्दर्य को केवल पहचानना सीखता है। प्रकृति के निरन्तर साहचर्य के कारण ही वह इसमें सफल होता है। अलग-अलग लोगों के सौन्दर्य सम्बन्धी मानदण्डों में भेद का कारण उनके परिवेश की भिन्नता है। परिवेश (वातावरण) की विशेषता के अतिरिक्त सभी स्थानों पर सौन्दर्य सम्बन्धी प्रतिक्रिया के प्राकृतिक नियम में से एक है। सौन्दर्य के अनुभव का प्रथम स्तर हमारा इन्द्रिय - बोध (ज्ञान) है। इसी के साथ-साथ हमारा भाव जगत है जिसे सामाजिक विकास ने परिष्कृत और समृद्ध किया है। भाव जगत सामाजिक जीवन के विकास के बिना विकसित और समृद्ध नहीं हो सकता।

नैतिक सौन्दर्य - विभिन्न प्रकार की वस्तुएँ हैं जो देखने में बाहर से सुन्दर लगती हैं जैसे कुकुरमुत्ता के समूह, मकड़ी के जाले अथवा हरियारों के अलंकरण आदि। परन्तु इनके सौन्दर्य के साथ-साथ हानिकारक और प्राणघातक पक्ष भी जुड़े हुए हैं। अतः इनमें से किसी में भी आन्तरिक सौन्दर्य नहीं होता। इनके विपरीत कुछ वस्तुएँ ऐसी हैं जो बाहर से सुन्दर नहीं होती पर उनमें आन्तरिक सौन्दर्य होता है। इस प्रकार सौन्दर्य में मूल्यों का प्रश्न है और हम वस्तुगत के स्थान पर आत्मगत सौन्दर्य की ओर बढ़ जाते हैं। जो कार्य अथवा वस्तुएँ हमें सामाजिक कल्याण अथवा परमार्थ की ओर ले जाते हैं वे सभी नैतिक दृष्टि से सुन्दर दिखाई देने लगते हैं।

इस तरह नैतिक सौन्दर्य आंतरिक सौन्दर्य का प्रथम रूप माना गया है। कुछ दार्शनिक सौन्दर्यशास्त्रियों ने ईश्वरीय अथवा आध्यात्मिक सौन्दर्य का प्रतिपादन किया है। इसके अनुसार, गम्भीर ईश्वरीय प्रेम की अनुभूति के माध्यम से शुद्ध हृदय व्यक्ति को जो दिव्य दृष्टि प्राप्त होती है वही सौन्दर्य दृष्टि है। इससे समस्त सृष्टि में एकता और परमतत्व के दर्शन होते हैं। सृष्टि की पूर्णता में उस सृष्टिकर्ता के प्रति हमेशा मन में कृतज्ञता का भाव उत्पन्न होता है। इस तरह एकता अथवा पूर्णता का अनुभव ही सौन्दर्य का अनुभव है। सौन्दर्य की व्याख्या करने वाली नैतिक तथा आध्यात्मिक दृष्टियाँ विशुद्ध सौन्दर्यात्मक मूल्य की दृष्टियाँ नहीं है। यह उचित है कि कला को सामाजिक उत्तरदायित्व का भी निर्वाह करना चाहिए किन्तु कला का सर्वोत्कृत लक्ष्य किस सीमा तक इससे नियंत्रित होता है इस विषय में पर्याप्त मतभेद दृष्टिगत हैं।

कलात्मक सौन्दर्य - प्राकृतिक सौन्दर्य से कला का सौन्दर्य भिन्न रूप में परिलक्षित है। प्रकृति का सौन्दर्य जीव विज्ञान एवं भौतिक विज्ञान के नियमों पर आधारित है परन्तु कला का सौन्दर्य प्राकृतिक सौन्दर्य के मानसिक प्रभावों एवं कलात्मक सामग्री पर निम्नलिखित आधारित है-

1. अनुकृति - मूलक सौन्दर्य कलाकार उन्हीं को विषय-वस्तु के रूप में प्रस्तुत करता है जो रूप प्रकृति व क्रिया पर आधारित होते हैं। वे ही कलाकार को आकर्षित एवं प्रभावित करते हैं। इसका प्रथम चरण अनुकृति मूलक है। इसमें प्रकृति की केवल स्वभावगत विशेषताओं को स्पष्ट देखा जा सकता है, किन्तु कभी-कभी प्रकृति के तथ्य के सूक्ष्म से सूक्ष्म विवरणों को ज्यों की त्यों दिखाने का प्रयत्न स्पष्ट परिलक्षित है। ऐसी कलायें केवल प्रतिकृति मूलक होती हैं। इसका सौन्दर्य केवल वास्तविकता के भ्रम का आश्चर्यमात्र होता है। अनुकृति का सौन्दर्य वास्तविक सौन्दर्य नहीं माना जा सकता। अनुकृति करके कलाकार प्राकृतिक पुष्प से सुन्दर और सजीव पुष्प की सृष्टि नहीं कर सकता।

2. आदर्श आकृति मूलक सौन्दर्य - कलाकार प्राकृतिक स्वरूपों का अनुकृति न करके संयोजन प्रभाव वर्धन, भाव-प्रदर्शन इत्यादि के विचार से रूपान्तरित करता है जिसके अन्तर्गत कोई 'आदर्श भाव, आदर्श क्रिया-कलाप तथा आदर्श रूप स्पष्ट दृष्टिगत है। ऐसे रूपों की व्याख्या चित्रकला की उन आकृतियों से की जा सकती है जो स्थाई गुणों तथा प्रतीकात्मकता से युक्त होती है। सृष्टि के पीछे छिपे नियमों का गम्भीर अध्ययन करने के उपरान्त ही कलाकार इनकी रचना में सफल होते हैं।

3. मानवीय सौन्दर्य - कला विचारकों के अनुसार कला का सौन्दर्य मानववृत सौन्दर्य है जो कलाकार के मन में जन्म लेता है और रस की अनुभूति करने वाले मानव के मन में प्रतिफलित होता है। उसमें कलाकार रूपी मानव के हृदय की उदारता, विशालता, उन्माद तथा उत्पीड़न स्पष्ट परिलक्षित है। अतएव रसिक भी उसे अपनी निकटतम तीव्रतम और मधुरतम अनुभूति मानकर उसका रसास्वादन करता है। "कला में मानव सौन्दर्य की अभिव्यक्ति ही कला सृजन के लिए मूल प्रेरणा है।' कला सौन्दर्य की मानवता ही कला को महत्व और औचित्य प्रदान करती है। यही इसका प्राकृतिक सौन्दर्य से अन्तर और अतिशय है। इस प्रकार मानवता ही कला सौन्दर्य के परीक्षण के लिए उसकी अचूक कसौटी है। कला सौन्दर्य मानवता के कारण ही प्राकृतिक सौन्दर्य की अपेक्षा अधिक मार्मिक होता है। मानवता के विकास और विस्तार के साथ कला का भी विकास और विस्तार होता है। प्रत्येक युग की कला अपने युग की मानवता की प्रतीक होती है। कलाकार अपने व्यक्तित्व में अपने युग की समष्टि का अनुभव करता है। उसके व्यक्तित्व में मानवता, उसके आदर्श, आह्लाद और अवसाद, गान और क्रन्दन (रोना), आशा और अभिलाषा सभी स्पष्ट होते हैं।

4. काम - मूलक सौन्दर्य - फ्रायड तथा जुंग मनोवैज्ञानिकों के अनुसार, कला, काम अथवा जीवनी-शक्ति को मूर्त करने का प्रयत्न करती है। हमारी कामना भोजन-पान, स्पर्श, काम इत्यादि अनेक प्रकार से तृप्ति के लिए विकल रहती है। यही कामना वस्तुओं को सौन्दर्य तथा आकर्षण प्रदान करती है। कला भी इसी की तृप्ति के अनेक साधनों में से एक है। जब यह काम तत्व सरस होकर तृप्ति और आसक्ति उत्पन्न करता है, हम कला को सुन्दर कहते हैं। भारत में भी भोजराज ने सम्पूर्ण कलाओं श्रृंगार तत्व की अभिव्यक्ति माना है। उनके मत से सम्पूर्ण भाव और भावनाएँ इसी तत्व की दीप्ति को समृद्ध करने के लिए दृष्टव्य हैं।

5. सामग्री से सम्बन्धित सौन्दर्य - कला के सौन्दर्य दर्शन का एक वृहद अंश भावों अथवा विचारों के आधार पर कलाओं की विषय - वस्तु को समाज के लिए शिव-अशिव, सत्य - असत्य अथवा सुन्दर - असुन्दर के विवाद में उलझा हुआ दृष्टव्य हैं जिसके सहारे भौतिक सुख से लेकर ईश्वरीय आनन्द तक की अनुभूति को प्रदर्शित किया गया है, परन्तु इस सबसे भिन्न कलाओं के सौन्दर्य का महत्वपूर्ण आधार उनकी सामग्री के सौन्दर्य से भी सम्बन्धित है। क्योंकि सामग्री के प्रयोग की कुशलता अकुशलता ही उसके सौन्दर्य का स्तर निर्धारण करती है, अतएव इसकी आलोचना तकनीकी आधार पर ही की जा सकती है। प्रत्येक कलात्मक माध्यम का अपना अलग-अलग महत्व एवं सौन्दर्य होता है और माध्यम की सामग्री का कुशल प्रयोग ही उसका निर्णायक है। इस सौन्दर्य का सीधा सम्बन्ध हमारे इन्द्रिय बोध से है। यह कलाकृति का वह सर्वांग शरीर है जिसके बिना कलाकृति का अस्तित्व ही नहीं है। कृति के सौन्दर्य के अनुभव को यह निरन्तर प्रभावित करता रहता है। यह कृति का एक ऐसा अनुरंजनकारी पक्ष है जिसका महत्व कृति के पीछे छिपे आदर्श भावों तथा विचारों से किसी भी प्रकार क्रम नहीं है और न ही इससे भावों एवं विचारों को अलग किया जा सकता है। कलाकृति में दोनों का एक-दूसरे के बिना न अस्तित्व है, न सौन्दर्य है। कवि जयदेव के गीत-गोविन्द के छन्द इसके सर्वाधिक सुन्दर उदाहरण हैं। यहाँ पर अनुभूति और सौन्दर्य एक - दूसरे से आगे निकलना चाहते हैं। यह एक होड़ है किन्तु कलाओं के इन्द्रियबोधगत सौन्दर्य के विषय में यह ध्यान देने योग्य तथ्य है कि चित्र, मूर्ति, वास्तु तथा संगीत के इन्द्रिय-बोध से काव्य का इन्द्रिय बोध भिन्न होता है क्योंकि वह ध्वनियों के सौन्दर्य पर आश्रित न रहकर काव्य भाषा के अर्थ बोध पर ही प्रधानरूप से अवलम्बित रहता है, यद्यपि भाषा के माध्यम से अन्य प्रकार के इन्द्रिय-बोध के संकेत भी स्पष्ट परिलक्षित हैं। कलाओं के सौन्दर्यानुभव का एक विशेष लक्षण यह है कि इसका अनुभव उदासीनता का अनुभव होता है। कलाकृति के सौन्दर्य का अनुभव सम्पूर्ण रूप में होता है। सौन्दर्य में सम्पूर्णता की यह दृष्टि जीवन तथा सृष्टि की सम्पूर्णता और एकता के विचार से ही प्रेरित है अतः यह कल्याणकारी भी है। अतएव जो सुन्दर है वह शिव भी है। पिरामिडों में रेगिस्तान की विशालता के सत्य का ऐलीफेण्टा में समुद्र के एकान्त द्वीप का और कोणार्क में सागर में से उगते हुए सूर्य के सत्य को ही प्रणाम किया जाता है। ये सभी वस्तु बोध की आंतरिक अनुभूति, भावों तथा मानव सभ्यता की प्रगति के ही विभिन्न चरणों के प्रतीक हैं। मानव जीवन ऐसा स्रोत है जहाँ समस्त कलायें घुले - मिले रूप में प्रारम्भ हुई हैं जिनका पारम्परिक अन्तः सम्बन्ध है जिसे विभाजित नहीं किया जा सकता। इस प्रकार सौन्दर्य की परम्परा में सौन्दर्यानुभूति, कलाकृति, रचना-प्रक्रिया, कलानुभूति इत्यादि कला अध्ययन स्वभाविकतापूर्ण है। प्रकृति के विभिन्न पक्षों तथा मानव के सौन्दर्यात्मक दृष्टिकोण का इसमें समावेश है।

आधुनिक युग में व्यापक दृष्टिकोण के कारण सौन्दर्य और कला का क्षेत्र अधिक विस्तृत हो गया है।

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