बी ए - एम ए >> बीए सेमेस्टर-4 समाजशास्त्र बीए सेमेस्टर-4 समाजशास्त्रसरल प्रश्नोत्तर समूह
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बीए सेमेस्टर-4 समाजशास्त्र - सरल प्रश्नोत्तर
स्मरण रखने योग्य महत्वपूर्ण तथ्य
विकास निरन्तर चलने वाली प्रक्रिया है, क्योंकि बदलाव दिन-प्रतिदिन आते हैं। विकास की कोई सीमा नहीं होती।
बालक के शारीरिक, मानसिक, संवेगात्मक पक्ष के विकास में एक प्रकार का सम्बन्ध होता है। अर्थात् शारीरिक विकास के साथ - साथ उसके मानसिक विकास में भी वृद्धि होती है।
विकास अचानक नहीं होता बल्कि विकास की प्रक्रिया धीरे-धीरे पहले से ही चलती रहती है।
विकास प्रत्येक व्यक्ति में भिन्न-भिन्न तरीकों से होता है। दो व्यक्तियों में एकसमान विकास प्रक्रिया नहीं देखी जा सकती है।
बालकों का विकास सिर से पैर की तरफ होता है।
व्यक्ति का विकास निश्चित क्रम के अनुसार ही होता है अर्थात् बालक बोलने से पूर्व अन्य व्यक्ति के इशारों को समझकर अपनी प्रतिक्रिया करता है।
विकास शब्द का प्रयोग सामान्यतः उस गतिशील प्रक्रिया को संदर्भित करने के लिए किया जाता है जिसके द्वारा व्यक्ति आगे बढ़ता है और अपने पूरे जीवनकाल में बदलता रहता है।
विकास एक व्यापक शब्द है जो शारीरिक, पेशीय, संज्ञानात्मक, सामाजिक, भावनात्मक और व्यक्तित्व सहित सभी क्षेत्रों से सम्बन्धित होता है।
किसी भी स्थिति में जो एक चरण से दूसरे चरण में जाता है, अर्थात् उसकी स्थिति में जो भी बदलाव आता है हम उसे विकास कहते हैं।
विकास के सिद्धान्तों के अनुरूप हम विकास के अर्थ, कार्य, प्रक्रिया एवं सीमा का निर्धारण सुनिश्चित करते हैं।
सिद्धान्त एक मानक होता है जिसके आधार पर किसी भी वस्तु की व्याख्या की जाती है।
व्यक्ति का विकास उसके वंश के अनुरूप होता है, अर्थात् जो गुण बालक के पिता, दादा में होते हैं, वही गुण उनके शिशुओं में मिलते हैं।
व्यक्ति का विकास उसके आसपास के वातावरण पर निर्भर करता है।
व्यक्ति का विकास किसी विशेष जाति के आधार पर होता है। जैसे व्यक्ति या पशुओं का विकास अपनी-अपनी कुछ विशेषताओं के अनुसार होता है।
सामाजिक व सांस्कृतिक कारक भी बच्चे के विकास को प्रभावित करते हैं।
प्रकृति का अर्थ है कि एक बच्चे को उसके माता-पिता से आनुवांशिक रूप से क्या विरासत में मिलता है, जबकि बच्चे के विकास पर पर्यावरण के प्रभाव को पोषण कहा जाता है।
मानव विकास के जन्म पूर्व और प्रसवोत्तर दोनों अवस्थाओं में पर्यावरणीय प्रभाव महत्वपूर्ण है।
विकास की कोई सीमा नहीं होती है, विकास जन्म से लेकर मृत्यु पर्यन्त चलते रहते हैं।
विकास के अर्थ को हम सामान्यतः एक बदलाव के रूप में देखते हैं।
विकास के सिद्धान्तों के अनुरूप हम विकास के अर्थ, कार्य, प्रक्रिया एवं सीमा का निर्धारण सुनिश्चित करते हैं।
विकास का सिद्धान्त एक मानक होता है जिसके आधार पर किसी भी वस्तु की व्याख्या की जा सकती है।
विकास में वंशानुक्रम के अनुरूप व्यक्ति का विकास उसके आसपास के वातावरण पर निर्भर करता है।
एक व्यक्ति का विकास निश्चित क्रम के अनुसार ही होता रहता है।
बालक पहले स्मृति स्तर में सीखता है फिर बोध स्तर पर अंत में क्रिया करके सीखता है।
किसी भी शिशु के शारीरिक व मानसिक विकास के साथ-साथ परिपक्वता का विकास भी होता है।
किशोरावस्था में विकास की गति तीव्र होती है।
विकास की सभी दशाएँ शारीरिक, मानसिक, सामाजिक, संवेगात्मक, आदि क्रियाएँ एक-दूसरे से सम्बन्धित होती हैं।
कोई भी बालक वृद्धि और विकास की दृष्टि से किसी अन्य बालक के समरूप नहीं होता।
व्यक्ति या पशुओं का विकास अपनी विशेषताओं के आधार पर होता है।
विकास और वृद्धि की सभी दिशाओं में विशेष क्रियाओं से पहले सामान्य रूप दिखता है।
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