लोगों की राय

प्राचीन भारतीय और पुरातत्व इतिहास >> बीए सेमेस्टर-4 प्राचीन इतिहास एवं संस्कृति

बीए सेमेस्टर-4 प्राचीन इतिहास एवं संस्कृति

सरल प्रश्नोत्तर समूह

प्रकाशक : सरल प्रश्नोत्तर सीरीज प्रकाशित वर्ष : 2023
पृष्ठ :180
मुखपृष्ठ : पेपरबैक
पुस्तक क्रमांक : 2745
आईएसबीएन :0

Like this Hindi book 0

5 पाठक हैं

बीए सेमेस्टर-4 प्राचीन इतिहास एवं संस्कृति - सरल प्रश्नोत्तर

प्रश्न- कुलोतुंग प्रथम के विषय में बताते हुए उसकी राजनैतिक उपलब्धियों का मूल्यांकन कीजिए।

अथवा
कुलोतुंग प्रथम की सामरिक उपलब्धियों का विवेचन कीजिए।
अथवा
कुलोतुंग प्रथम के राजनीतिक जीवन पर प्रकाश डालिए।
अथवा
कुलोतुंग प्रथम की राजनीतिक उपलब्धियों का विवरण दीजिए।
अथवा
कुलोतुंग प्रथम की उपलब्धियों का विवरण दीजिए।


सम्बन्धित लघु उत्तरीय प्रश्न
1. कुलोतुंग प्रथम के विषय में आप क्या जानते हैं?
2. कुलोतुंग प्रथम के राज्यकाल की राजनैतिक उपलब्धियों की चर्चा कीजिए।
3. चोल नरेश कुलोतुंग की विजयों का उल्लेख कीजिए।
4. कुलोतुंग प्रथम की उपलब्धियों का वर्णन कीजिए।

उत्तर-

कुलोतुंग प्रथम (1070-1120 ई.)

कुलोतुंग प्रथम पूर्वी चालुक्य नरेश राजराज का पुत्र था परन्तु उसमें चोल रक्त का मिश्रण था। उसकी माता राजेन्द्र चोल की कन्या थी। उसने अपने विद्रोहियों को दबाकर अपनी स्थिति को सुदृढ़ किया और अपने समय का एक शक्तिशाली शासक सिद्ध हुआ।

पश्चिमी चुलाक्यों से युद्ध - पूर्वी चालुक्यों का राज्य इस समय दो भागों में विभाजित हो चुका था। उत्तरी भारत में सोमेश्वर 'द्वितीय और दक्षिण भाग में उसके भाई विक्रमादित्य का शासन था, दोनों भाइयों में आपस में प्रतिद्वन्द्विता थी। सोमेश्वर द्वितीय ने कुलोतुंग से मित्रता कर ली। सन् 1075 में जब कुलोतुंग ने विक्रमादित्य पर आक्रमण किया तो सोमेश्वर द्वितीय ने कुलोतुंग का साथ दिया। कुलोतुंग विक्रमादित्य को पराजित करने में सफल हुआ और गंगवाड़ि पर उसका अधिकार हो गया।

हैहयों से युद्ध - कुलोतुंग और विक्रमादित्य के संघर्ष से लाभ उठाकर हैहय राजा यश कर्णदेव ने वेंगी पर आक्रमण कर दिया। कुलोतुंग प्रथम ने हैहय नरेश को खदेड़ दिया।

लंका की स्वतन्त्रता - सन् 1072 ई. के लगभग लंका के राजा विजयबाहु ने विद्रोह करके अपने को स्वतन्त्र घोषित कर दिया। कुछ समय पश्चात् कुलोतुंग और विजयबाहु की मित्रता हो गयी और कुलोतुंग ने लंका के राजकुमार के साथ अपनी पुत्री का विवाह कर दिया।

पाण्ड्य और चेरों का दमन - कुलोतुंग के शासनकाल में पाण्ड्यों और चेरों ने भी विद्रोह किया। उनके विद्रोह का दमन करने में कुलोतुंग सफल हुआ और उन्हें दबाये रखा। उनके प्रदेशों में उसने सैनिक उपनिवेशों की स्थापना कर दी।

कडारम विजय - यह भी कहा जाता है कि कुलोतुंग ने कडारम राज्य पर भी विजय प्राप्त की थी और वहाँ के राजा को भी अपने प्रभाव में ले लिया। 1090 ई. के लगभग कडारम् राज्य के राजा ने कुलोतुंग ने नेगपटम में स्थित बौद्ध विहार के लिए दी गई भूमि को कर से मुक्त कर देने के लिए प्रार्थना की थी और इस प्रार्थना को कुलोतुंग ने स्वीकार कर लिया।

कलिंग राज्य पर विजय - दक्षिणी कलिंग वेंगी राज्य के प्रभाव में था। 1096 ई. के लगभग दक्षिण कलिंग में विद्रोह हुआ परन्तु कुलोतुंग ने अत्यन्त चतुरता से उस विद्रोह को दबा दिया। कुछ समय पश्चात् कलिंगराज ने कुलोतुंग के विरुद्ध फिर विद्रोह कर दिया और उसे कर देना स्वीकार नहीं किया। चोलों की सेना ने फिर कलिंग राज्य पर आक्रमण किया और वहां के राजा को पराजित किया।

गहड़वालों से सम्बन्ध - कुलोतुंग का अभिलेख इस बात का साक्षी है कि उत्तरी भारत के गहड़वालों के साथ कुलोतुंग के अच्छे सम्बन्ध थे और इनमें किसी प्रकार का वैमनस्य नहीं था।

होयसलों का आक्रमण - अपने शासनकाल के अन्तिम चार-पाँच वर्ष कुलोतुंग बहुत अधिक परेशान रहा। इस काल में होयसल राजा विष्णुवर्द्धन ने चोल साम्राज्य पर आक्रमण किया और चोलों से गंगवाड़ि नोलम्बवडी और तलकाड और वेंगी के प्रदेश छीन लिये।

एक और पराजय - कुलोतुंग को अपने शासनकाल के अन्तिम दिनों में होयसल नरेश विष्णुवर्द्धन से पराजित होकर केवल गंगवाडि, नोलम्बवडी और तलकाड के प्रदेश ही नहीं खो देने पड़े बल्कि 1118 ई. के लगभग उसे विक्रमादित्य षष्ठ से भी पराजित होना पड़ा। विक्रमादित्य षष्ठ ने वेंगी को अपने अधिकार में ले लिया। इस प्रकार कुलोतुंग प्रथम के शासनकाल के अन्तिम दिनों में चोलों का राज्य केवल तमिल प्रदेश तेलगू जिले तक सीमित रह गया।

विदेशों से सम्बन्ध - कुलोतुंग के विदेशों से अच्छे सम्बन्ध थे। उसकी राजसभा में श्री विजय के राजा का राजदूत आया था और कुलोतुंग ने बौद्ध विहार की भूमि को कर से मुक्त कर देने की उसकी प्रार्थना को स्वीकार किया था। कहा जाता है कि 1077 ई. में उसने 72 व्यापारियों का एक प्रतिनिधि मण्डल चीन भेजा था जो वहाँ से बहुत अधिक धन लाया था। इस सम्बन्ध में श्री के. ए. एन. शास्त्री ने लिखा है - "1077 ई. में 72 चोल व्यापारियों का एक प्रतिनिधि मण्डल चीन पहुँचा और उसने सींग, कपूर, गुलाबजल और हींग आदि के बदले में 81,800 ताम्र सिक्के जोकि लगभग इतने ही डॉलर के बराबर थे प्राप्त किये।'

प्रशासकीय सुधार - कुलोतुंग एक कुशल प्रशासक भी था। उसने भूमि की नाप-जोख करवाई थी । यह भी विदित है कि उसने 'शुगम तवित्' (करों को हटाने वाला) की उपाधि धारण की थी। परन्तु इस विषय में कुछ नहीं कहा जा सकता कि उसने कौन-कौन से कर हटाये थे। उसके शासनकाल में काँची नगर की बहुत अधिक उन्नति हुई। 1120 ई. में कुलोतुंग की मृत्यु हो गयी।

कुलोत्तुंग प्रथम की राजीतिक उपलब्धियाँ - पूर्वी चालुक्य वंशीय राजेन्द्र द्वितीय कुलोत्तुंग प्रथम (1070-1120) के नाम से चोल साम्राज्य का सम्राट बना। वह चोल शासक राजेन्द्र प्रथम का प्रपौत्र था। कुलोत्तुंग प्रथम के साथ ही चोल-चालुक्य वंश की शुरूआत हुई। इसका शासन काल शान्ति का काल था। कुलोत्तुंग प्रथम के शासनकाल में पश्चिमी चालुक्यों की ओर से चोलों का विरोध विक्रमादित्य पृष्ठ ने किया किन्तु उसे युद्ध में पराजित होना पड़ा। कुलोत्तुंग के समय में श्रीलंका के राजा विजयबाहु ने अपनी स्वतंत्रता घोषित की, किन्तु उसने श्रीलंका, चोल में प्रभाव की समाप्ति के प्रति किसी कटुता का प्रदर्शन नहीं किया तथा अपनी पुत्री का विवाह श्रीलंका के राजकुमार वीरप्पेरुमाल के साथ कर दिया। उसने भी राजराज की तरह भू-राजस्व निर्धारण के लिए भूमि का पुनः सर्वेक्षण कराया। उसने व्यपार की प्रगति में बाधक चुंगियों तथा तटकारों की समाप्त किया जिसकी वजह से उसे 'शुंङ्गम ततिचोल' (करों को हटाने वाला) की उपाधि मिली। कुलोन्तुंग प्रथम द्वारा प्रसारित चालों के स्वर्ण सिक्कों पर उसकी कुछ उपाधियों, जैसे 'कटैकोण्डचोलन' तथा 'मलैनडु मोण्ड चोलन का उल्लेख प्राप्त होता है। चीनी ऐतिहासिक स्रोतों के अनुसार 1077 ई. में कुलोत्तुंग प्रथम ने 92 व्यक्तियों का एक दूतमण्डल चीन भेजा था। यह दूतमण्डल एक व्यापारिक शिष्टमण्डल था जिसे तमिल व्यापार के लिए चीन से अधिक सुविधाएँ प्राप्त करने के लिए भेजा गया था। अपने शासन के अन्तिम वर्षों में कुलोत्तुंग को दो बार कलिंग के विरुद्ध युद्ध करना पड़ा था। इसके शासन काल में मलय प्रायद्वीप के साथ चोलों के सुदृढ़ व्यापारिक एवं सांस्कृतिक सम्बन्ध बने थे। कुलोत्तुंग भारत की मुख्य भूमि पर पाण्ड्य तथा केरल राज्यों के विद्रोह की उपेक्षा नहीं कर सका। पाण्ड्य तथा केरल में राजाओं को अपना अधिपत्य स्वीकार करने के लिए बाध्य किया। वहाँ कुलोत्तुंग प्रथम ने पुनः प्रशासनिक व्यवस्था स्थापित की।

मूल्यांकन - कुलोतुंग को अपने शासनकाल के अन्तिम दिनों में कई पराजयों का मुँह देखना पड़ा। परन्तु इन पराजयों के कारण उसके विषय में यह नहीं कहा जा सकता है कि उसमें वीरता की कमी थी। उसके सम्बन्ध में यह स्मरण रखना चाहिए कि कुलोतुंग ने 50 वर्षों तक राज्य किया और वृद्ध होने पर ही उसे पराजय का मुंह देखना पड़ा। उसने अपने यौवन काल में अनेक राज्यों को धूल-धूसरित किया था। उसे एक कुशल प्रशासक होने का श्रेय प्राप्त है, यही कारण है कि विभिन्न विद्वानों ने उसे चोल वंश के महत्वपूर्ण शासकों के मध्य स्थान दिया है।

...Prev | Next...

<< पिछला पृष्ठ प्रथम पृष्ठ अगला पृष्ठ >>

अन्य पुस्तकें

लोगों की राय

No reviews for this book