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बीए सेमेस्टर-4 प्राचीन इतिहास एवं संस्कृति

सरल प्रश्नोत्तर समूह

प्रकाशक : सरल प्रश्नोत्तर सीरीज प्रकाशित वर्ष : 2023
पृष्ठ :180
मुखपृष्ठ : पेपरबैक
पुस्तक क्रमांक : 2745
आईएसबीएन :0

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बीए सेमेस्टर-4 प्राचीन इतिहास एवं संस्कृति - सरल प्रश्नोत्तर

प्रश्न- 'वेंगी' तथा 'कल्याणी' के चालुक्यों पर प्रकाश डालिए।

उत्तर-

वेंगी तथा कल्याणी के चालुक्य शासकों के अभिलेखों में प्रयुक्त चलुकि, चलुक्य, चालुक्य तथा सलुविक आदि नाम चालुक्यों का सम्बन्ध कर्नाटक से दर्शाते हैं। किन्तु जे. एफ. फ्लीट तथा डी. आर. भंडारकर के अनुसार कल्याणी के चालुक्य वातापी के चालुक्यों के वंशज नहीं थे, क्योंकि कल्याणी के चालुक्य अपने को सत्याश्रय का वंशज मानते हैं, जबकि वातापी के चालुक्य हारीति ऋषि से सम्बन्धित तथा मानव्यगोत्रीय बताये गये हैं। इसके अतिरिक्त कल्याणी के चालुक्य शासकों ने जगदेकमल्ल एवं त्रिभुवनमल्ल आदि उपाधियाँ धारणी की, परन्तु वातापी के चालुक्यों ने अंत में मल्ल शब्द आने वाले विरुदों का प्रयोग नहीं किया है फिर भी समस्त उपलब्ध साक्ष्यों के सम्यक् विवेचन से लगता है कि चालुक्य कन्नड़ देश के मूलनिवासी थे तथा कल्याणी के चालुक्य, वातापी के चालुक्यों के वंशज थे।

कौथेम, येवूर, निलगुंड तथा मीरज अनुदानपत्रों के अनुसार कल्याणी के चालुक्य राजवंश का प्रथम ज्ञात शासक भीम था जो वातापी के चालुक्य शासक विजयादित्य (696-733 ई.) का पुत्र एवं विक्रमादित्य का भाई बताया गया है। भीम पराक्रम के पश्चात् क्रमशः कीर्तिवर्मन तृतीय, तैलप प्रथम, विक्रमादित्य तृतीय, भीमराज द्वितीय, अय्यण प्रथम तथा विक्रमादित्य चतुर्थ ने राज्य किया।

किन्तु इनमें मात्र तैलप प्रथम, अय्यण प्रथमं एवं उसके पुत्र विक्रमादित्य चतुर्थ के अतिरिक्त अन्य शासकों के विषय में कोई उल्लेखनीय सूचना नहीं मिलती। पट्टदकल से प्राप्त एक खंडित अभिलेख में तैलप महाराजाधिराजदेव के लिए 'पेगडे महारजन' नाम प्रयुक्त किया गया है, जिसे कुछ इतिहासकार तैलप प्रथम मानते हैं। किन्तु तैलप एक साधारण सामंत शासक था, इसलिए यह समीकरण संदिग्ध लगता है। वस्तुतः तैलप प्रथम के बाद भी कई पीढ़ियों तक चालुक्य स्वतंत्र नहीं हो सके थे। इसके अतिरिक्त तैलप को किसी अन्य साक्ष्य में पेगडे नहीं कहा गया है।

निलगुंड लेख से पता चलता है कि अय्यण ने राष्ट्रकूट कृष्ण द्वितीय की पुत्री के साथ विवाह किया और उसे अपने श्वसुर से काफी धन-सम्पत्ति प्राप्त हुई थी। इसी राष्ट्रकूट राजकुमारी से अय्यण का पुत्र विक्रमादित्य चतुर्थ उत्पन्न हुआ था। विक्रमादित्य के कलचुरि लक्ष्मणसेन की पुत्री बोन्थादेवी के साथ विवाह किया जिससे तैलप द्वितीय का जन्म हुआ। यह कलचुरि नरेश राष्ट्रकूट कृष्ण तृतीय का मित्र था। किन्तु कृष्ण तृतीय के दक्षिण भारतीय अभियानों में उलझे होने का लाभ उठाकर कल्याणी के चालुक्य नरेश विक्रमादित्य ने कलचुरियों से सम्बन्ध स्थापित कर राष्ट्रकूटों के विरुद्ध एक सशक्त गठबन्धन बनाया जिससे राष्ट्रकूटों के पतन और चालुक्यों के अभ्युत्थान की पृष्ठभूमि बनी।

यद्यपि आरम्भिक चालुक्य शासकों के प्रशस्ति क्षेत्र और उसके केन्द्र के सम्बन्ध में स्पष्ट सूचना नहीं है, किन्तु लगता है कि वे कर्नाटक के बीजापुर जिले तथा इसके निकटवर्ती क्षेत्रों में शासन करते रहे होंगे। सम्भव है कि वे राष्ट्रकूटों के सामंत के रूप में शासन करते थे। जो भी हो, इतना अवश्य है कि विक्रमादित्य चतुर्थ के पुत्र एवं उत्तराधिकारी तैलप द्वितीय के राज्यारोहण से कल्याणी के चालुक्य राजवंश का क्रमबद्ध इतिहास मिलने लगता है और इस राजवंश की महानता एवं गरिमा के युग का शुभारम्भ होता है।

तैलप द्वितीय, 973997 ई. ( Tailap II, 973-997 A.D.) - तैलप द्वितीय कलचुरि राजकुमारी बोन्थादेवी, से उत्पन्न विक्रमादित्य चतुर्थ का पुत्र था। वह चालुक्य वंश का प्रथम शक्तिशाली एवं महत्वाकांक्षी शासक था। 957 ई. के एक अभिलेख में तैलप द्वित्तीय को नाड का सामंत तथा 965 ई. के दूसरे अभिलेख में 'महासामंताधिपति आहवमल्ल तैलपरस' कहा गया है। इसके अतिरिक्त, उसने 'महाराजाधिराज', 'परमेश्वर', 'परमभट्टारक', 'समस्तभुवनाश्रय', 'सत्याश्रयकुलतिलक' तथा 'चालुक्याभरण' नामक उपाधियाँ भी धारण की थी।

प्रारम्भ में तैलप राष्ट्रकूट कृष्ण तृतीय (कन्नरदेव ) के अधीन तर्डवाड़ी में शासन कर रहा था। उसने राष्ट्रकूट शासक भामह की पुत्री से विवाह किया था, जिसे जाकव्वे, जाक्कलादेवी या जवकलमहादेवी कहा गया है। मीरज ताम्रपत्रों के अनुसार संभवतः भामह अंतिम राष्ट्रकूट शासक कर्क द्वितीय का ही दूसरा नाम था।

तैलप ने राष्ट्रकूट कृष्ण तृतीय के काल में अपनी शक्ति में काफी अभिवृद्धि की, किन्तु कृष्ण तृतीय के समय तक राष्ट्रकूटों की कोई क्षति नहीं हुई। कृष्ण तृतीय के उत्तराधिकारियों, खोट्टिग तथा कर्क द्वितीय के काल में राष्ट्रकूट वंश अत्यंत निर्बल हो गया। फलतः 973-74 ई. में तैलप द्वितीय ने अपने अधिराज कर्क द्वितीय को पराजित कर मान्यखेट पर अधिकार कर लिया और राष्ट्रकूट साम्राज्य का अधिपति बन गया। उसकी इस सफलता का उल्लेख खारोगटन अभिलेख में मिलता है।

तैलप द्वितीय की उपलब्धियाँ
(Achievements of Tailap II)

राष्ट्रकूट सामंतों की विजय : सिंहासनारूढ़ होने के बाद तैलप द्वितीय ने सबसे पहले राष्ट्रकूट सामंतों को अपने अधीन करने के लिए अभियान किया। इस क्रम में शिमोगा (कर्नाटक) जिले के सोराव तालुक के सामंत शांतिवर्मा, जो पहले राष्ट्रकूट नरेश कर्क के अधीन था, ने तैलप की अधीनता स्वीकार कर ली।

किन्तु तैलप के प्रमुख प्रतिद्वन्द्वी गंग थे, जो राष्ट्रकूटों के सामंत थे। मारसिंह की मृत्यु के उपरांत गंग राज्य में उत्तराधिकार के लिए युद्ध हुआ जिसमें पांचालदेव अपने प्रतिद्वन्द्वी मारसिंह द्वितीय को पराजित कर विजयी हुआ और कृष्णा नदी तक अपने राज्य का विस्तार कर लिया था। पांचालदेव की वर्धमान शक्ति तैलप की साम्राज्यवादी महत्वाकांक्षा में बाधक थी। अतएव उस पर नियंत्रण करना तैलप के लिए अनिवार्य हो गया।

प्रारम्भ में तैलप को पांचाल के विरुद्ध सफलता नहीं मिली। परन्तु बाद में उसने बेल्लारी के सामंत गंग भूतिगदेव की सहायता से पांचालदेव को पराजित कर मार डाला और 'पांचालमर्दनपंचानन' ( पांचालदेव को मर्दन करने में सिंह) की उपाधि धारण की। यह घटना संभवतः 977 ई. के आसपास की होगी। भूतिगदेव की सहायता से प्रसन्न होकर तैलप ने उसे 'आहवमल्ल' के विरुद्ध से सम्मानित किया और तोरगले (धारवाड़ जिले के सीमांत पर स्थित वर्तमान तोरगल) का शासक भी बना दिया।

पांचालदेव पर विजय प्राप्त करने के कारण चालुक्य राज्य का विस्तार उत्तरी कर्नाटक तक हो गया। इसके बाद तैलप ने 977 ई. के आसपास ही मध्य और दक्षिणी मैसूर पर गंग वंश की दूसरी शाखा के शासक रणस्तंभ को पराजित कर मार डाला, जो कर्क द्वितीय का मित्र था।

बेल्लारी जिले से प्राप्त लेखों से पता चलता है कि 976 ई. के पहले ही तैलप द्वितीय ने सम्राट की उपाधियाँ धारण की थी जो नोलंब पल्लव पर उसके आधिपत्य का सूचक है। 981 ई. में उसने नोलंबरानी रेवलदेवी द्वारा पूर्व प्रदत्त दान की पुष्टि की थी। बनवासी क्षेत्र में सर्वप्रथम कन्नप तथा फिर उसके उत्तराधिकारी भाई सोभनरस ने तैलप की अधीनता स्वीकार की। सोभनरस की स्वामिभक्त और निष्ठा से प्रभावित होकर तैलप ने उसे 'गिरिदुर्गमल्ल' तथा 'सामंतचूड़ामणि' की उपाधियाँ प्रदान की थीं। बेलगाँव जिले में सौदंति के रट्टों ने भी उसकी अधीनता मान ली थी, जिसकी पुष्टि 980 ई. के सोगल एवं सौदंति से मिले अभिलेखों से होती है।

तैलप ने कोंकण प्रदेश को भी अपने अधीन किया। पश्चिमी घाट से समुद्र तक तथा पूर्ण नदी से गोना तक के बीच का क्षेत्र कोंकण कहलाता था। कोंकण प्रदेश दो भागों में विभाजित था - दक्षिणी कोंकण और उत्तरी कोंकण। दक्षिणी कोंकण के शिलाहारवंशी राष्ट्रकूटों के पारिवारिक सामंत थे। तैलप ने शिलाहार शासक अवसर तृतीय या उसके पुत्र रट्टराज को पराजित कर दक्षिणी कोंकण को अपनी अधीन कर लिया।

सेउण (दौलताबाद) देश के यादववंशी राजा भिल्लम द्वितीय ने बिना युद्ध किये ही तैलप की अधीनता स्वीकार कर ली। तदंतर तैलप ने लाट (दक्षिणी गुजरात) को अधिकृत कर अपने सेनापति बाडप्प को इस प्रांत का शासक नियुक्त किया। बाडप्प ने चालुक्य मूलराज प्रथम के विरुद्ध सफलता प्राप्त की, किन्तु चाहमान विग्रहराज ने गुर्जर राज्य को आक्रांत कर लाट को कुछ समय के लिए अपने अधीन कर लिया। तैलप ने अपने पुत्र सत्याश्रय को युवराज नियुक्त किया था जिसने शिलाहारा एवं गुर्जरों से हुए युद्धों में सक्रिय भाग लिया था। इस प्रकार तैलप ने गुजरात के अतिरिक्त उन सभी प्रदेशों पर अधिकार कर लिया जो पहले राष्ट्रकूटों के अधिकार में थे। राष्ट्रकूट प्रदेशों पर अधिकार करने के उपरांत तैलप को अपने पुराने शत्रुओं चोलों तथा परमारों से संघर्ष करना पड़ा।

चोलों से संघर्ष - तैलप द्वितीय को राष्ट्रकूटों के परंपरागत शत्रु चोलो से भी संघर्ष करना पड़ा। 980 ई. के एक लेख में तैलप को 'चोलरूपी शैल के लिए इंद्र के वज्र के समान बताया गया है। कृष्ण तृतीय के समय से ही दक्षिण पर राजनीतिक प्रभुत्व को लेकर राष्ट्रकूटों और चोलों के बीच गहरी शत्रुता चली आ रही थी। संभवतः तैलप भी राष्ट्रकूट सामंत के रूप में चोलों के विरुद्ध लड़ चुका था। इसलिए स्वतंत्र राजा होने के बाद वह चोलों का स्वाभाविक शत्रु बन गया। पता चलता है कि 980 ई. से कुछ पहले तैलप ने उत्तमचोल को युद्ध में पराजित किया था।

उत्तम चोल के बाद शक्तिशाली राजराज प्रथम ने अपनी विस्तारवादी नीति के अंतर्गत 993 ई. में गंगावाडि तथा नोलंबाड़ि को जीत लिया जो पहले राष्ट्रकूटों के अधिकार में थे। राजराज प्रथम की इस प्रसारवादी नीति के कारण तैलप द्वितीय से उसका संघर्ष होना स्वाभाविक था क्योंकि तैलप राष्ट्रकूट क्षेत्रों पर अपना पैतृक अधिकार समझता था।

992 ई. के कोग्गलि लेख (बेल्लारी जिले में स्थित ) से पता चलता है कि 'आहवमल्ल ने चोलराज को युद्ध में पराजित कर उसके 150 हाथियों को छीन लिया था। इससे लगता है कि तैलप ने राजराज को किसी युद्ध में पराजित किया था।

परमारों में संघर्ष - तैलप द्वितीय का मालवा के परमार वंश से दीर्घकालीन संघर्ष चला। इस समय परमार शासक मुंज था। तैलप और मंजु की शत्रुता का मुख्य कारण राष्ट्रकूट साम्राज्य का उत्तर पश्चिमी क्षेत्र था जिसे तैलप और मंजु दोनों अपना मानते थे। तैलप ने मुंज के ऊपर छः बार आक्रमण किया, किन्तु प्रत्येक बार उसे पराजित होना पड़ा। अंततः अपने मंत्री रुद्रादित्य की सलाह को ठुकराकर परमार मुंज ने गोदावरी पार कर चालुक्यों पर आक्रमण कर दिया। इस बार मुंज पराजित हुआ और बंदी बना लिया गया।

1003 ई. में कौथेम ताम्रपत्रों से भी पता चलता है कि तैलप द्वितीय ने उत्पल (मुंज) को, जिसने हूणों, मारवों तथा चेदियों के साथ युद्धों में वीरता प्रदर्शित की थी, पराजित करने के बाद बंदी बना लिया था। विक्रमादित्य के गडक लेख में बताया है कि तैलप ने वीर मुंज का वध कर दिया था। भिललम द्वितीय के सामगनेर दानपत्र (लगभग 1000 ई. का) के अनुसार मिल्लम ने मुंज का साथ देने के कारण लक्ष्मी को दंडित किया और उसे रणरंगभीम की साध्वी पत्नी बनने को बाध्य किया। रणरंगभीम तैलप द्वितीय का ही दूसरा नाम था। मेरुतुंग के 'प्रबंधचिंतामणि से पता चलता है कि तैलप द्वितीय ने मान्यखेट के कारागार में मुंज की देखरेख के लिए अपनी विधवा बहिन मृणालवती को नियुक्त किया था। किंतु वह मुंज के प्रेमपाश में फंस गई और एक दिन उसे परमार शासक से पता चला कि वह जेल से निकल भागने की योजना बना रहा है। मृणालवती ने इसकी सूचना तैलप को दे दी। इसके बाद तैलप ने मुंज को विविध प्रकार से प्रताड़ित किया और अंततः 995 ई. के आस-पास उसका वध कर दिया। इस प्रकार स्पष्ट है कि तैलप ने परमार नरेश को पराजित कर उसकी हत्या कर दी और वह मालवा के दक्षिणी क्षेत्र का भी शासक बन गया।

परवर्ती लेखें में तैलप को चोल, चेदि, कुंतल एवं नेपाल तक की विजय का श्रेय दिया गया है। कुल मिलाकर उसका साम्राज्य उत्तर में गोदावरी या नर्मदा नदी से लेकर दक्षिण में शिमोगा, चित्तलदुर्ग और संभवत: बेल्लारी जिलों तक, और पश्चिम में दक्षिणी कोंकण तक विस्तृत था। संभवतः उत्तरी कोंकण का भी कुछ क्षेत्र उसके अधीन था।

तैलप द्वितीय एक महान शक्तिशाली शासक था जिसने अनेक आक्रमणात्मक एवं सुरक्षात्मक युद्धों में सफलता प्राप्त की और अपने साम्राज्य का चतुर्दिक विस्तार किया। विक्रमादित्य षष्ठ के गडक लेख के अनुसार उसने चालुक्य वंश की प्रतिष्ठा को पुनः प्रतिष्ठित किया और पच्चीस वर्षों तक पृथ्वी का सुख और शांतिपूर्वक भोग किया।

तैलप द्वितीय विजेता एवं साम्राज्य निर्माता होने के साथ ही साथ विद्वानों का संरक्षक भी था। उसके साम्राज्य में कन्नड़ भाषा को फलने-फूलने का अवसर मिला। उसने 'अजितपुराण' के लेखक को 'चक्रवर्ती' की उपाधि प्रदान की थी।

तैलप द्वितीय ने रट्ट शासक भामह की पुत्री जाकव्वे के साथ विवाह किया था। इस रानी से उसके दो पुत्र उत्पन्न हुए सत्याश्रय और दशवर्मन या यशोवर्मन । दशवर्मन को तैलप द्वितीय ने गवर्नर नियुक्त किया था। तैलप की अंतिम ज्ञात तिथि 996 ई. है। संभवतः उसने 997 ई. तक शासन किया।

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