प्राचीन भारतीय और पुरातत्व इतिहास >> बीए सेमेस्टर-4 प्राचीन इतिहास एवं संस्कृति बीए सेमेस्टर-4 प्राचीन इतिहास एवं संस्कृतिसरल प्रश्नोत्तर समूह
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बीए सेमेस्टर-4 प्राचीन इतिहास एवं संस्कृति - सरल प्रश्नोत्तर
प्रश्न- पुलकेशिन द्वितीय के शासनकाल तक बादामी के चालुक्य वंश का इतिहास लिखिए।
अथवा
पुलकेशिन द्वितीय के शासन काल तक बादामी के चालुक्य वंश का इतिहास पर प्रकाश डालिए।
उत्तर-
पुलकेशिन द्वितीय के काल तक बादामी का चालुक्य वंश
छठी शताब्दी में चालुक्य दक्षिण भारत में आकर एक प्रमुख शक्ति के रूप में उभरे। चालुक्यों की मुख्य रूप से तीन शाखाओं की जानकारी मिलती है, ये हैं- वातापी (बादामी) के चालुक्य, कल्याणी के चालुक्य तथा वेंगी के चालुक्य।
कैरा ताम्रपत्र ( 472-73 ई.) के अनुसार, बादामी के चालुक्य राजवंश का प्रथम ऐतिहासिक शासक जयसिंह था। वह अपनी प्रतिभा के बल पर आन्ध्र प्रदेश के बीजापुर क्षेत्र का सामंत शासक बन गया। जयसिंह के राज्यकाल का कोई ऐतिहासिक अभिलेख उपलब्ध न होने के कारण उसकी उपलब्धियों की पूर्ण जानकारी नहीं हो पाती है परन्तु परवर्ती चालुक्य साक्ष्यों में उसकी विजयों तथा उपाधियों की सूचना अवश्य मिलती है। जगदेकमल्ल के दौलताबाद लेख में जयसिंह को कदम्ब नरेशों के ऐश्वर्य की विनाशकर्त्ता कहा गया है। कैथोम एवं अन्य अभिलेखों में उसे राष्ट्रकूट शासक इन्द्र तथा उसके पुत्र कृष्ण को पराजित करने वाला बताया गया है।
जयसिंह के पुत्र रणराग के समय में चालुक्यों की शक्ति में वृद्धि हुई। यद्यपि रणराग के शासनकाल का कोई अभिलेख उपलब्ध नहीं हुआ है तथापि उसका शासनकाल 520 ई. के लगभग माना जा सकता है। येवूर अभिलेख में उसे एक पराक्रमी राजा बताया गया है। वह शैवधर्मानुयायी था।
छठी शताब्दी के मध्य में बादामी के चालुक्य राजवंश का तीसरा शासक पुलकेशिन प्रथम था जिसने चालुक्य सत्ता का बहुत अधिक प्रसार किया। उसके समय में 'वातापीपुर' चालुक्यों की राजधानी बनी। उसने अश्वमेध यज्ञ का संपादन किया जिसका उल्लेख 543 ई. के एक बादामी शासक के अभिलेख में हुआ है। वह 540 ई. के लगभग शासक बना। अपने राज्य को सुरक्षित बनाए रखने की दृष्टि से उसने बादामी में एक सुदृढ़ दुर्ग का निर्माण करवाया। महाकूट सांभलेख के अनुसार, पुलकेशिन प्रथम ने अश्वमेध यज्ञ के अतिरिक्त बाजपेय तथा हिरण्यगर्भ आदि यज्ञों का संपादन कराया। स्पष्ट है कि वैदिक धर्म में उसकी गहन आस्था थी। मंगलरसराज के नेरूर अभिलेख के अनुसार, पुलकेशिन प्रथम रामायण, महाभारत, पुराण आदि का ज्ञाता होने के साथ-साथ राजनीति में भी पारंगत था। विभिन्न अभिलेखों से उसके चरित्र की कतिपय विशेषताओं का बोध होता है। उसे दृढ़प्रतिज्ञ, सत्यवादी तथा ब्राह्मण कहा गया है। उसके लिए 'धर्ममहाराज' विरुद का प्रयोग हुआ है। पुलकेशिन प्रथम ने रणविक्रम, सत्याश्रय, धर्ममहाराज, पृथ्वीवल्लभराज, राजासिंह आदि उपाधियाँ धारण कीं। विभिन्न चालुक्य शासकों में उसे एक योग्य एवं सफल शासक कहा जा सकता है, जिसकी साहित्य एवं धर्म में गहन अभिरुचि थी।
पुलकेशिन प्रथम के बाद उसका पुत्र कीर्तिवर्मन प्रथम शासक बना जिसका काल 566 ई. के लगभग माना जाता है। विभिन्न अभिलेखों में उसे महान विजेता कहा गया है जिसने मगध, बंग, कलिंग, मुद्रक, गंग, मषक, पाण्ड्य, चौलिप, द्रमिल, नल, कदम्ब, मौर्य आदि राज्यों पर विजय पायी। ऐतिहासिक दृष्टि से कहा जा सकता है कि उसने कोंकण, उत्तरी किनारा तथा उत्तरी दक्षिण के प्रदेशों को विजित किया था जिससे दक्षिण महाराष्ट्र, कर्नाटक तथा तमिलनाडु के प्रदेशों तक उसके साम्राज्य का विस्तार हो गया था। कोंकण पर अधिकार से गोवा (रेवती द्वीप) भी उसके क्षेत्राधिकार में आ गया था। गोवा एक महत्वपूर्ण बंदरगाह था जिससे चालुक्यों की आर्थिक स्थिति में सुधार हुआ और अन्तर्प्रदेशीय व अन्तर्राष्ट्रीय व्यापार बढ़ा। अपनी विभिन्न उपलब्धियों के उपलक्ष्य में कीर्तिवर्मन ने 'पृथ्वीवल्लभ' एवं 'सत्याश्रय' आदि अनेक उपाधियाँ धारण कीं और उसने विभिन्न यज्ञों का संपादन भी किया। अपने शासनकाल में उसने कई कलात्मक कार्यों के निर्माण को प्रोत्साहन दिया।
कीर्तिवर्मन प्रथम की मृत्यु के उपरान्त मंगलेश चालुक्य शासक बना जो कीर्तिवर्मन प्रथम का छोटा भाई था जिसे 597 ई. में मनोनीत किया गया। वह चालुक्य वंश का शक्तिशाली शासक माना गया है। उसने कलचुरि वंश के राजा से युद्ध किया और खानदेश व उसके आस-पास के क्षेत्र को जीतकर उन्हें. चालुक्य राज्य में शामिल कर लिया। ऐहोल अभिलेख में उल्लेख हुआ है कि जो विजयश्री अब तक कलचुरि राजवंश को वरण करती थी, वही अब मंगलेश के पौरुष एवं वीरता पर प्रसन्न हो गई थी। बाद में उसने कदम्बों को उखाड़ फेंका। वातापी के चालुक्यों की शक्ति के कारण ही यह शाखा इतिहास में वातापी के चालुक्यों के नाम से प्रसिद्ध हुई।
पुलकेशिन द्वितीय के बारे में ऐहोल अभिलेख में उसके समकालीन कवि रविकीर्ति द्वारा लिखी गई प्रशस्ति से जानकारी मिलती है। यह संस्कृत भाषा में है। इसमें कहीं-कहीं वर्णन अतिशयोक्तिपूर्ण है लेकिन इसका विवरण महत्वपूर्ण है। पुलकेशिन द्वितीय इस राजवंश का पराक्रमी व प्रसिद्ध शासक था जिसने लगभग 33 वर्ष तक शासन किया। पुलकेशिन द्वितीय ने गृहयुद्ध में चाचा मंगलेश पर विजय प्राप्त कर राज्य हासिल किया था। उसने 'पृथ्वीवल्लभ सत्याश्रय' की उपाधि से अपने को विभूषित किया। वह जीवन भर युद्धों में रत रहा और सम्पूर्ण दक्षिण भारत पर उसने अपना प्रभुत्व कायम किया। अपनी आंतरिक स्थिति को मजबूत बनाने के लिए उसने विद्रोही सामंतों का दमन किया और बाद में पड़ोसी राजाओं के विरुद्ध भी अभियान किए। उसने राष्ट्रकूट राजा गोविन्द को भीमा नदी के तट पर एक युद्ध में परास्त किया। इतिहासकारों में गोविन्द की पहचान को लेकर मतभेद हैं। कुछ उसे विद्रोही राजकुमार भी मानते हैं। जी. आर. भण्डारकर ने उसकी पहचान राष्ट्रकूट शासक गोविन्द प्रथम से की है। यह स्पष्ट है कि गोविन्द चालुक्यों का शत्रु था। विपरीत परिस्थितियों में बड़े धैर्य के साथ पुलकेशिन द्वितीय ने अपने प्रतिद्वन्दियों एवं विद्रोहियों को परास्त किया। बाद में उसने कदम्बों की राजधानी बनवासी पर अपना अधिकार जमा लिया। मैसूर के गंगों व केरल के अलूपों से भी उसका मुकाबला हुआ। पुलकेशिन ने कोंकण की राजधानी पुरी पर भी अधिकार किया। लाट, मालवा व भृगुकच्छ के गुर्जरों को भी उसने पराजित किया। पल्लव राजा महेन्द्रवर्मन को पराजित कर उसकी राजधानी कांची तक उसने अपने साम्राज्य का विस्तार किया। उसकी विजयों से भयभीत होकर चेर, चोल व पाण्ड्य शासकों ने उसकी अधीनता स्वीकार कर ली थी।
समकालीन स्रोतों से विदित होता है कि उसने नर्मदा से कावेरी तट तक के सभी प्रदेशों पर अपना आधिपत्य कायम कर लिया था। इस प्रकार उसने दक्षिण के बड़े भू-भाग पर राजनीतिक एकता कायम की। दक्षिण में अपनी स्थिति सुदृढ़ करने के बाद वह उत्तर की ओर उन्मुख हुआ।
पुलकेशिन द्वितीय का सर्वाधिक महत्वपूर्ण सैनिक संघर्ष उत्तर भारत के सर्वशक्तिमान शासक हर्षवर्द्धन के विरुद्ध हुआ । हर्ष भीं उत्तर भारत में अपनी स्थिति सुदृढ़ करने के बाद दक्षिण में अपने साम्राज्य का विस्तार चाहता था। दोनों की साम्राज्यवादी महत्वाकांक्षाओं के कारण उनमें टकराव आवश्यक था। पुलकेशिन की साम्राज्य-सीमा दक्षिण गुजरात तक आ गई थी और दोनों शासकों के बीच नर्मदा नदी के तट पर संघर्ष हुआ। इस युद्ध के विषय में एहोल अभिलेख से पर्याप्त जानकारी मिलती है। यह युद्ध सर्वथा निर्णायक सिद्ध हुआ एवं हर्षवर्द्धन को दक्षिण विजय की महत्वाकांक्षा सदैव के लिए त्यागनी पड़ी। इससे पुलकेशिन द्वितीय के आत्म गौरव में वृद्धि हुई। उसने 'परमेश्वर' व 'दक्षिणापथेश्वर' उपाधियाँ धारण कीं।
इस प्रकार पुलकेशिन द्वितीय महान विजेता ही नहीं, कुशल शासक भी था। उसकी शासन व्यवस्था उदार थी। सभी सामंत उसके प्रति आज्ञाकारी थे। उसकी प्रजा सुखी व समृद्ध थी। चालुक्य वंश के प्रारंम्भिक राजा वैदिक धर्म के अनुयायी थे परन्तु पुलकेशिन द्वितीय कालान्तर में जैन धर्म का अनुयायी हो गया था। कला एवं साहित्य का उसे आश्रयदाता कहा गया है।
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