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प्राचीन भारतीय और पुरातत्व इतिहास >> बीए सेमेस्टर-4 प्राचीन इतिहास एवं संस्कृति

बीए सेमेस्टर-4 प्राचीन इतिहास एवं संस्कृति

सरल प्रश्नोत्तर समूह

प्रकाशक : सरल प्रश्नोत्तर सीरीज प्रकाशित वर्ष : 2023
पृष्ठ :180
मुखपृष्ठ : पेपरबैक
पुस्तक क्रमांक : 2745
आईएसबीएन :0

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बीए सेमेस्टर-4 प्राचीन इतिहास एवं संस्कृति - सरल प्रश्नोत्तर

प्रश्न- चालुक्यों के अधीन दक्षिण की स्थिति का उल्लेख कीजिए।

उत्तर-

चालुक्यों के अधीन दक्षिण की स्थिति

चालुक्यों के समय दक्षिण भारत ने सांस्कृतिक क्षेत्र में अच्छी प्रगति की। इस काल की सांस्कृतिक प्रगति के अनेकानेक रूपों एवं गुणों का परिचय चीनी यात्री ह्वेनसांग के विवरण, अभिलेखों, साहित्यिक ग्रन्थों, तत्कालीन मन्दिरों, भवनों एवं कलाकृतियों द्वारा प्राप्त होता है। इन साक्ष्यों के आधार पर तत्कालीन संस्कृति का वर्णन निम्नलिखित शीर्षकों के अन्तर्गत किया जा सकता है-

धार्मिक दशा - चालुक्य वंश के नरेश हिन्दू धर्म को मानते थे। वे ब्रह्मा, शिव, विष्णु तथा मातृदेवियों की पूजा करते थे। पुलकेशिन प्रथम ने तो अश्वमेघ जैसे विशाल यज्ञ का अनुष्ठान भी किया था, लेकिन इससे यह समझना उचित नहीं होगा कि चालुक्य नरेश अन्य धर्मों के प्रति असहिष्णु थे। जब चालुक्यों का उत्कर्ष हुआ उस समय दक्षिण भारत में जैन धर्म का बोलबाला था। रविकीर्ति ने एहोल अभिलेख की रचना की थी। यह जैन धर्मावलम्बी था लेकिन फिर भी उस पर पुलकेशिन द्वितीय की बड़ी कृपा थी। ह्वेनसांग के उल्लेखों से पता चलता है कि चालुक्य राज्य में उनके बौद्ध मठ, बिहार तथा चैत्य थे। उसने चालुक्य राजधानी में अशोक स्तूपों की स्थिति को बताया है। इन धर्मों के अतिरिक्त अनेक सम्प्रदाय भी फल-फूल रहे थे जिनको धार्मिक स्वतंत्रता प्राप्त थी।

सामान्य जनजीवन - ह्वेनसांग के यात्रा विवरण से चालुक्यकालीन दक्षिणी जनजीवन की सांस्कृतिक उपलब्धियों के परिचय के प्रमुख स्रोत का पता चलता है।

ह्वेनसांग के अनुसार  - “जलवायु ऊष्ण है, लोग स्वभाव से ईमानदार हैं। वे कद में लम्बे तथा स्वभाव में प्रतिशोधपूर्ण हैं, अपने प्रति उपकार करने वालों के प्रति वे कृतज्ञ होते हैं तथा शत्रुता रखने वालों के प्रति वाद रहित, अपमानित किये जाने पर वे प्राणों की बलि देकर भी प्रतिशोध लेते हैं। यदि कोई उनसे सहायता की याचना करता है, तो वे हृदय से सहायक होते हैं। युद्ध में भागने वाले अथवा पराजित होने वाले व्यक्ति को दण्डित नहीं किया जाता है, वरन् उसे स्त्री की वेशभूषा पहना दी जाती है जिससे उसको शर्म आती है।'

इस कथन के आधार पर यह कहा जा सकता है कि तत्कालीन प्रजा का जीवन व्यर्थ के आडम्बरों से रहित होते हुए भी सदैव सुसंस्कृत तथा सरल था।

चालुक्यकालीन कला - चालुक्यकालीन संस्कृति प्रसंग के अन्तर्गत तत्कालीन कला अपने उद्देश्य तथा परिणामों में अत्यन्त उच्चकोटि की थी । चालुक्य वंश के नरेश कला से अत्यधिक प्रेम करते थे। चालुक्य कला तीन केन्द्रों में विद्यमान थी ऐहोल वातापी, पट्टडकल । एहोल को मन्दिरों का नगर कहा जा सकता है। यहाँ का दुर्गावती का मन्दिर स्थापत्य कला की श्रेष्ठतम रचना है। वातापी वस्तुकला का प्रमुख केन्द्र था । यहाँ के पहाड़ों को काटकर चार मण्डप बनाये गये जिसका विशेष महत्व है। इनमें से तीन हिन्दू धर्म तथा एक जैन धर्म से सम्बन्धित है। यहाँ के मन्दिरों का अलंकरण ऐहोल से भी अधिक सुन्दर है। पट्टडकल के मन्दिरों की निर्माण शैली, अलंकरण तथा वास्तुकला अत्यन्त सुन्दर है। इन मन्दिरों में आर्य तथा द्रविड़ शैली की उत्कृष्टतम अभिव्यक्ति विरूपाक्ष मन्दिर में है । पारसनाथ का मन्दिर आर्य शैली के प्रयोग द्वारा बनाया गया है। यह मन्दिर अत्यन्त प्रसिद्ध है। इस मन्दिर के ऊपर की ओर एक पर्वत है जो ऊपर जाते हुए संकीर्ण होता गया है। गोतुती का शिव मंदिर जिसका निर्माण चालुक्य काल में हुआ था, अत्यन्त अद्भुत है। एहोल का विष्णु मन्दिर अपनी वास्तुकला के लिए आज भी प्रसिद्ध एवं दर्शनीय है। यह पता चला है कि अजन्ता की गुफाओं के कुछ भाग चालुक्यों ने बनवाये थे। चालुक्य नरेश पुलकेशिन ने एक गुफा में फारसी दूत के स्वागत समारोह का बड़ा सजीव चित्रण किया है। इस चित्र की जितनी प्रशंसा की जाये कम होगी। यह चित्र अजन्ता चित्र का एक सुन्दर चित्र है। इसलिए चोल वंश में वास्तुकला, मूर्तिकला तथा चित्रकला ने बहुत प्रगति की थी।

उपर्युक्त विवरण के आधार पर यह कहा जा सकता है कि चालुक्यों के समय में दक्षिण भारत में एक महान संस्कृति फल-फूल रही थी। यह संस्कृति अपने अर्थ, उद्देश्य तथा परिणाम में उत्तरी भारत की सांस्कृतिक उपलब्धियों से किसी दशा में कम नहीं थी बल्कि कुछ क्षेत्रों में ज्यादा ही थी। आज भी उसका प्राचीनतम रूप देखा जा सकता है।

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