प्राचीन भारतीय और पुरातत्व इतिहास >> बीए सेमेस्टर-4 प्राचीन इतिहास एवं संस्कृति बीए सेमेस्टर-4 प्राचीन इतिहास एवं संस्कृतिसरल प्रश्नोत्तर समूह
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बीए सेमेस्टर-4 प्राचीन इतिहास एवं संस्कृति - सरल प्रश्नोत्तर
प्रश्न- चालुक्य कालीन धर्म एवं कला का वर्णन कीजिए। इस वंश की क्या उपलब्धियाँ रहीं?
सम्बन्धित लघु उत्तरीय प्रश्न
1. चालुक्य कालीन धर्म का वर्णन कीजिए।
2. चालुक्यों की कला का वर्णन कीजिए।
3. चालुक्य वंश की उपलब्धियाँ बताइये।
4. बादामी के चालुक्य कला पर प्रकाश डालिए।
उत्तर-
चालुक्य कालीन धर्म
धर्म की दृष्टि से चालुक्य काल का विशेष महत्व है। इस युग के अधिकांश राजा धर्मपरायण थे और ये धार्मिक कार्यों में अभिरुचि रखते थे।
हिन्दू धर्म - चालुक्य काल में हिन्दू धर्म की विशेष उन्नति हुई और इस धर्म को राज्याश्रय प्राप्त हुआ। इस काल में अनेक वैदिक यज्ञ भी किये गये। पुलकेशिन द्वितीय ने अश्वमेघ यज्ञ किया था। यज्ञ सम्बन्धी अनेक ग्रन्थों का सृजन किया गया। चालुक्य काल में अधिकतर ब्रह्मा, विष्णु और शिव की पूजा की जाती थी जिसमें विष्णु का विशेष महत्व था। विष्णु का नरसिंह और वाराह रूप अधिक लोकप्रिय था। बादामी, ऐहोल, पट्टडकल आदि स्थानों पर विशेष देवताओं के मन्दिरों की स्थापना की गयी थी।
जैन धर्म - जैन धर्म का स्थान हिन्दू धर्म के बाद था। धार्मिक दृष्टि से चालुक्य नरेश सहिष्णु थे और उन्होंने जैन धर्मावलम्बियों के साथ अच्छा व्यवहार किया था । ऐहोल अभिलेख को लेकर रविकीर्ति जैन का पुलकेशिन द्वितीय ने बहुत अधिक सम्मान किया था। विजयादित्य तथा विक्रमादित्य ने भी जैन धर्मावलम्बियों को दान दिये थे।
बौद्ध धर्म - बौद्ध धर्म हिन्दू धर्म और जैन धर्मों की अपेक्षा गिरी हुई अवस्था में था। अजन्ता की गुफाओं में बने चित्रों में से कुछ चालुक्य काल के बने मालूम होते हैं। ह्वेनसांग ने चालुक्यों के शासनकाल में बौद्ध विहारों की संख्या और बौद्ध भिक्षुकों की संख्या 5000 बतलाई है। इस युग में हीनयानी और महायानी दोनों ही अपने-अपने सम्प्रदाय का अलग-अलग प्रचार कर रहे थे।
चालुक्य काल की कला
चालुक्यों के शासन में कला एवं स्थापत्य को विशेष प्रोत्साहन मिला। इस समय जैनों तथा बौद्धों के अनुकरण पर हिन्दू देवताओं के लिए पर्वतों को काटकर अनेक मन्दिर बनवाये गये। इस समय कला के तीन प्रमुख केन्द्र थे जिनका विवरण निम्नवत है-
1. बादामी - बादामी के चालुक्यों ने वास्तुकला के क्षेत्र में उल्लेखनीय प्रगति की। इस समय पत्थरों को काटकर चार स्तम्भयुक्त मण्डप बनाये गये जिनमें से तीन हिन्दू तथा एक जैन धर्म से सम्बन्धित है। प्रत्येक में स्तम्भयुक्त बरामदा, मेहराबयुक्त हाल और एक छोटा गर्भगृह पाषाण में गहराई से काटकर बनाये गये हैं। इनमें से एक 'वैष्णव गुहा' है जिसके बरामदे में विष्णु की दो रिलीफ मूर्तियाँ प्राप्त होती हैं। इन गुफाओं की वास्तुकला अत्यन्त उच्चकोटि की है। प्रत्येक चबूतरे पर उड़ते हुए गणों के विभिन्न मुद्राओं में उत्कीर्ण चित्र अत्यन्त उल्लेखनीय हैं। दूसरी 'शैल गुफा' है जिसका गर्भगृह वर्गाकार है। मण्डप तथा बरामदे में एकाश्मक पत्थरों को लगाया गया है। ये पत्थर मूर्ति-शिल्प, कोनियों तथा कारनिस के उद्देश्य से सजाये गये हैं। गुफा मन्दिरों का बाहरी भाग तो सादा है किन्तु भीतरी दीवारों पर विभिन्न प्रकार की सुन्दर-सुन्दर चित्रकारियाँ प्राप्त होती हैं।
2. एहोल - एहोल को 'मन्दिरों का नगर' कहा जाता है। इनका निर्माण 450-600 ई. के बीच हुआ। इन मन्दिरों में नागर तथा द्रविड़ शैलियों का मिश्रण मिलता है। अधिकांश मन्दिर विष्णु तथा शिव के हैं। एहोल का 'विष्णु मन्दिर' अभी भी सुरक्षित अवस्था में है। यहाँ के हिन्दू गुहा मन्दिरों में सबसे सुन्दर 'सूर्य का मन्दिर' है। यहाँ का 'दुर्गा मन्दिर' उत्तर तथा दक्षिण की वास्तुकला के समन्वय का अनुपम उदाहरण प्रस्तुत करता है। मूर्तिकला की दृष्टि से दुर्गा का मन्दिर सूर्य के मन्दिर से अधिक सुन्दर है। एहोल के सबसे बाद का मन्दिर 'मेगुती जैन मन्दिर है। इसका निर्माण एक अलंकृत अधिष्ठान पर हुआ है जिसमें गर्भगृह, स्तम्भयुक्त मण्डप तथा अन्तराल हैं। यह द्रविड़ शैली का मन्दिर है। इसे भूमि से सीधे ऊपर ढाँचा खड़ा कर बनाया गया है। मन्दिर के प्रवेश के लिए मुखमण्डप बनाया गया है। दुर्भाग्यवश इसका निर्माण अधूरा रह गया।
3. पट्टडकल - बादामी तथा ऐहोल के मन्दिरों के अतिरिक्त पट्टडकल में भी चालुक्य मन्दिरों के सुन्दर नमूने मिलते हैं। ये मन्दिर नागर तथा द्रविड़ शैली में बने हैं। नागर शैली में बना 'पापनाथ का मन्दिर तथा द्रविड़ शैली में बने 'विरूपाक्ष' तथा 'संगमेश्वर मन्दिर विशेष रूप से उल्लेखनीय हैं। पट्टडकल के सभी मन्दिरों में विरूपाक्ष का मन्दिर सर्वाधिक तथा आकर्षक है। विरूपाक्ष मन्दिर पर पल्लव शैली का प्रभाव दृष्टिगोचर होता है।
वास्तुकला के साथ-साथ चालुक्य काल में मूर्तिकला का भी विकास हुआ। मूर्तियों पर गुप्त तथा पल्लव शैली का प्रभाव दिखाई देता है। अधिकांश मूर्तियों का निर्माण मन्दिरों को सजाने के लिए किया गया है। गुफा स्तम्भों तथा छतों पर बड़ी संख्या में मूर्तियाँ चित्रित की गई हैं। बादामी की एक गुफा में नटराज शिव की भिन्न-भिन्न मुद्राओं में सोलह मूर्तियाँ उकेरी गई हैं जो काफी सुन्दर हैं। एहोल तथा पट्टडकल मन्दिरों में भी मूर्ति- शिल्प की अधिकता है। यहाँ शिव, ब्रह्मा तथा विष्णु की मूर्तियाँ अत्यन्त सुन्दर एवं कलात्मक ढंग से बनाई गई हैं। यहाँ रामायण के दृश्यों का भी मनोहर अंकन हुआ है।
संक्षेप में हम कह सकते हैं कि दक्षिण भारत के विभिन्न वंशों में चालुक्य वंश ने कला की उन्नति में विशेष योगदान दिया।
चालुक्य वंश की उपलब्धियाँ
चालुक्य वंश के शासकों ने दक्षिणापथ में एक विशाल साम्राज्य स्थापित किया। बादामी के चालुक्यों ने प्रायः 200 वर्षों तक, उसी प्रकार कल्याणी के चालुक्यों ने भी बाद में प्रायः उतने ही समय तक इस साम्राज्य तथा इसकी कीर्ति को स्थापित रखा। इस वंश के शासकों में अनेक शासक महान योद्धा हुए और उन्होंने उत्तर तथा दक्षिण भारत के अनेक यशस्वी शासकों को परास्त करने में सफलता पायी। उनमें से अनेक शासकों ने परमेश्वर, परमभट्टारक आदि की उपाधियां ग्रहण कीं। इस प्रकार दक्षिण भारत की राजनीति में उनका स्थान एक लम्बे समय तक महत्वपूर्ण रहा।
परन्तु राजनीति के अतिरिक्त उन्होंने दक्षिण भारत की सांस्कृतिक प्रगति में भी महत्वपूर्ण भाग लिया। चालुक्य शासकों का राज्य आर्थिक दृष्टि से सम्पन्न था और उसके अन्तर्गत कई अच्छे बन्दरगाह थे जिनसे विदेशी व्यापार में सुविधा थी। इस सम्पन्नता का उपयोग चालुक्य शासकों ने साहित्य तथा ललित कलाओं की प्रगति के लिए किया।
धार्मिक दृष्टि से चालुक्य राजा हिन्दू धर्म के अनुयायी थे। उन्होंने प्राचीन वैदिक धर्म के अनुसार अनेक यज्ञ किये। उनके समय में धार्मिक ग्रन्थों की रचना अथवा उनका संकलन किया गया। पुलकेशिन द्वितीय और कुछ अन्य शासकों ने अश्वमेघ यज्ञ तथा ताङ्मेय यज्ञ किये। परन्तु उन्होंने पौराणिक हिन्दू धर्म का भी पालन किया तथा शिव और विष्णु के मन्दिरों का निर्माण किया। इसलिए हिन्दू धर्म दक्षिण भारत में लोकप्रिय हुआ।
उनके समय में बौद्ध धर्म अवनति पर था परन्तु सर्वथा लुप्त नहीं हुआ था, जैसा कि चीनी यात्री ह्वेनसांग के वर्णन से सिद्ध होता है। ह्वेनसांग ने अनेक व्यवस्थित बौद्ध विहार और मठों को चालुक्य राज्य के अन्तर्गत पाया था।
ललितकलाओं में चित्रकला और सबसे अधिक वास्तुकला की भी प्रगति इसी समय हुई। अजन्ता के भित्ति चित्रों में से कुछ का निर्माण चालुक्य शासकों के समय में हुआ। इनमें से एक चित्र में पुलकेशिन द्वितीय के दरबार में पार्शिया (ईरान) के राजदूत के स्वागत के दृश्य को चित्रित किया गया है। वास्तुकला के क्षेत्र में चालुक्यों के समय की एक मुख्य विशेषता पहाड़ों और चट्टानों को काटकर बड़े-बड़े मन्दिरों का निर्माण करना था। उनके समय में विभिन्न हिन्दू गुहा (गुफा) मन्दिरों तथा चैत्यों के हालों का निर्माण किया गया। सम्राट मंगलेश ने वातापी के विष्णु के गुफा मन्दिर का निर्माण कराया। 634 ई. में मेगुति का शिव मन्दिर बनाया गया जिसमें रविकीर्ति द्वारा लिखित पुलकेशिन द्वितीय की प्रशस्ति भी है। ऐहोल का विष्णु मन्दिर जिसमें विक्रमादित्य द्वितीय का एक अभिलेख है, चालुक्य कला का एक अच्छा नमूना माना गया है। सम्राट विक्रमादित्य ने बीजापुर जिले में विजयेश्वर (शिव) का मन्दिर बनवाया, जिसे अल- संगमेश्वर का मन्दिर कहा जाता है। उसकी बहन ने लक्ष्मेश्वर नामक स्थान पर एक जैन मन्दिर का निर्माण कराया। सम्राट विक्रमादित्य की पत्नी ने पट्टडकल (बीजापुर जिला) नामक स्थान पर लोकेश्वर नाम का एक शिव मन्दिर बनवाया जिसे अब विरूपाक्ष मन्दिर कहा जाता है। इतिहासकार हैवेल ने इस मन्दिर बहुत प्रशंसा की है। विक्रमादित्य की एक अन्य पत्नी ने इसी मन्दिर के निकट त्रिलोकेश्वर नाम का एक अन्य भव्य मन्दिर बनवाया। चालुक्य शासकों के समय में बने हुए इन मन्दिरों ने भारतीय वास्तुकला की प्रगति में सहयोग दिया।
इस प्रकार चालुक्य शासकों ने दक्षिण भारत की राजनीतिक और सांस्कृतिक प्रगति में महत्वपूर्ण भाग लिया।
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