प्राचीन भारतीय और पुरातत्व इतिहास >> बीए सेमेस्टर-4 प्राचीन इतिहास एवं संस्कृति बीए सेमेस्टर-4 प्राचीन इतिहास एवं संस्कृतिसरल प्रश्नोत्तर समूह
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बीए सेमेस्टर-4 प्राचीन इतिहास एवं संस्कृति - सरल प्रश्नोत्तर
प्रश्न- त्रिकोणात्मक संघर्ष में गोविन्द तृतीय की भूमिका का वर्णन कीजिए।
उत्तर-
त्रिकोणात्मक संघर्ष में गोविन्द तृतीय की भूमिका
सर्वप्रथम गोविन्द तृतीय ने नर्मदा नदी के दक्षिण के महत्वपूर्ण राज्यों पर विजय प्राप्त की। उसके बाद उसने एक योजना बनाई कि उत्तर भारत की राजनीति में दखलन्दाजी की जाये। गोविन्द तृतीय के पिता राष्ट्रकूट नरेश ध्रुव थे। ध्रुव जब उत्तर भारतीय अभियान में सफलता प्राप्त करने के बाद अपनी राजधानी मान्यखट वापस आया, उस समय कान्यकुब्ज राज्य पर अपना प्रभुत्व स्थापित करने के लिए प्रतिहारों एवं शक्तिशाली पालों के बीच कूटनीतिक चालों, सैन्य अभियानों एवं संघर्षों का सिलसिला तीव्र गति पर था। पता चलता है कि पहले चरण में प्रतिहार नरेश वत्सराज ने गौडाधिय धर्मपाल पर विजय प्राप्त कर ली और कान्यकुब्ज में इन्द्रायुद्ध को अपना सामन्त नियुक्त किया। लेकिन दक्षिणापथेश्वर राष्ट्रकूट नरेश ध्रुव ने अपने उत्तर भारतीय अभियान में सर्वप्रथम वत्सराज को हराया और उसके बाद धर्मपाल को हराकर वहाँ अपनी सामरिक शक्ति एवं दिग्विजय कीर्ति की स्थापना की। लेकिन उसने उन राज्यों को अपने साम्राज्य में नहीं मिलाया था। राष्ट्रकूट नरेश ध्रुव की मृत्यु के बाद उसका पुत्र गोविन्द तृतीय राजसिंहासन पर बैठा। गोविन्द तृतीय अनेक वर्षों में उत्तराधिकार के लिए छिड़े गृहयुद्ध को शान्त न कर पाया तथा दक्षिण भारतीय युद्धों को पुनः संगठित करने में इसको काफी समय लगा। जब तक गोविन्द तृतीय पूर्ण रूप से व्यवस्थित हो पाया था, तब तक गौड़ाधिप धर्मपाल ने अपनी शक्ति को संगठित करके कान्यकुब्ज पर अपना अधिकार स्थापित करने के लिए सफल अभियान चलाया। उस समय कान्यकुब्ज के राजसिंहासन को लेकर आयुद्ध वंश के दो भाई इन्द्रायुद्ध एवं चक्रायुद्ध आपस में लड़-झगड़ रहे थे। इन्द्रायुद्ध की तरफ प्रतिहार नरेश थे और चक्रायुद्ध की तरफ गौड़ नरेश धर्मपाल थे।
धर्मपाल के 32वें वर्ष के खालिमपुर अभिलेख से यह पता चलता है कि कन्नौज नरेश चक्रायुद्ध को धर्मपाल का पूर्ण संरक्षण प्राप्त था। गौड़ाधिप नारायणपाल के 17वें वर्ष के अभिलेख से यह पता चलता है कि धर्मपाल ने कान्यकुब्ज की राजगद्दी पर अधिकार करके उस पर चक्रायुद्ध को बैठाया था। यह तभी सम्भव है जब धर्मपाल ने इन्द्रायुद्ध को हराया होगा। इस प्रकार खालिमपुर अभिलेख के साक्ष्याधार पर धर्मपाल का प्रभुत्व सम्पूर्ण उत्तर भारत पर स्थापित माना जा सकता है। 11वीं सदी के प्रसिद्ध चम्पूकाव्य 'उदय सुन्दरी कथा' में धर्मपाल को उत्तरापथ का स्वामी घोषित किया गया है।
उपर्युक्त वर्णन के आधार पर उत्तर भारत में घटित त्रिकोणात्मक संघर्ष के द्वितीय चरण में गौडाधिप पालों का अभियान प्रतिहारों के विरुद्ध बना रहा तथा उन्हें अपने अभियानों में अधिकतर सफलता प्राप्त हुई।
उत्तर भारत पर प्रभुत्व स्थापना के लिए जो त्रिकोणात्मक संघर्ष चल रहा था, उस त्रिकोणात्मक संघर्ष के द्वितीय चरण में प्रतिहार नरेश वत्सराज की भूमिका साक्ष्याभाव के कारण अज्ञात है लेकिन इस संघर्ष के तृतीय चरण में पहले चरण की भाँति राष्ट्रकूट, प्रतिहार एवं पाल शक्तियों के बीच टकराव पैदा हो गया।
यह पता चलता है कि ध्रुव के दबाव में आकर प्रतिहार शासक वत्सराज ने कुछ समय तक राजपूताना में शरण अवश्य ले ली थी, लेकिन ध्रुव जैसे ही अपनी राजधानी मान्यखेट वापस आया, वैसे ही उसने उज्जयिनी पर दोबारा शासन जमा लिया। जब वत्सराज मृत्यु को प्राप्त हो गया था तब उसके उत्तराधिकारी नागभट्ट के समय में भी पूर्व में धर्मपाल का दबाव था और दक्षिण से राष्ट्रकूटों के अभियान का। इस दशा में नागभट्ट ने अपने साम्राज्य की सुरक्षा के लिए पहले अवंति - राजपूताना की सीमाओं को सुरक्षित करना आवश्यक समझा। ग्वालियर प्रशस्ति से पता चलता है कि आन्ध्र, विदर्भ, सिन्ध तथा कलिंग के राजाओं ने उसके समक्ष आत्मसमर्पण किया था। ये सभी राज्य पूर्व में पालों तथा दक्षिण में राष्ट्रकूटों से भयाक्रान्त होने के कारण अपने पड़ोसी शक्तिशाली प्रतिहार नरेश नागभट्ट के सामने समर्पित होकर उससे भिन्नता रखना उचित समझते रहे होंगे, क्योंकि प्रतिहारों की उस समय इन दोनों बड़ी शक्तियों से दुश्मनी ठनी हुई थी। लेकिन राष्ट्रकूट शासक गोविन्द तृतीय को नागभट्ट एवं उपर्युक्त राज्यों की मैत्री एवं उनका गठबन्धन रास न आया और उसने प्रतीहारों की इन नवोदित संगठित शक्ति को दबाने के लिए मालवा नरेश नागभट्ट पर आक्रमण कर दिया। संजन, राधनपुर तथा पठारी स्तम्भ लेखों से यह ज्ञात होता है कि गोविन्द तृतीय ने इस अभियान में नागभट्ट को बुरी तरह भयाक्रान्त कर दिया जिसके फलस्वरूप वह अपनी आत्म-रक्षा के लिए किसी गुप्त स्थान पर छिप गया। राष्ट्रकूट अभिलेखों से यह ज्ञात होता है कि नागभट्ट स्वप्न में युद्ध के नाम से घबरा जाता था । गोविन्द तृतीय के अनुज इन्द्र मालवा एवं गुजरात की तरफ से गुर्जर प्रतिहारों को स्वयं ही पराजित किया । नागभट्ट को गोविन्द तृतीय ने झांसी एवं ग्वालियर के मध्यवर्ती क्षेत्रों में ही कहीं पराजित किया होगा।
प्रतिहार शासक नागभट्ट जब पराजित हुआ तब उसने राजपूताना में जाकर शरण ली। इसके बाद गोविन्द तृतीय ने पांचाल राज्य की ओर प्रस्थान किया। वहाँ के शासक ने युद्ध करने से पहले ही गोविन्द तृतीय की शरण ले ली। संजन ताम्रपत्र के अनुसार हिमालय की उपत्यका तक राष्ट्रकूटों की रणभेरी निनादित हो चुकी थी। उसने उत्तरी भारत के पराजित राजाओं से विपुल सम्पत्ति प्राप्त की। अपने पिता की तरह उसने भी इन राज्यों को अपने साम्राज्य में सम्मिलित नहीं किया । ध्रुव बहुत ही पराक्रमी था । पिता की तरह गोविन्द तृतीय ने भी राष्ट्रकूट राजवंश की कीर्ति की विजय पताका को सम्पूर्ण उत्तरी भारत में फहराकर सुयश प्राप्त किया था।
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