प्राचीन भारतीय और पुरातत्व इतिहास >> बीए सेमेस्टर-4 प्राचीन इतिहास एवं संस्कृति बीए सेमेस्टर-4 प्राचीन इतिहास एवं संस्कृतिसरल प्रश्नोत्तर समूह
|
5 पाठक हैं |
बीए सेमेस्टर-4 प्राचीन इतिहास एवं संस्कृति - सरल प्रश्नोत्तर
प्रश्न- बादामी के चालुक्यों एवं काँची के पल्लवों के संघर्ष का वर्णन कीजिए।
अथवा
पल्लव-चालुक्य संघर्ष का वर्णन कीजिए।
अथवा
पल्लव नरेश महेन्द्रवर्मन प्रथम व चालुक्य नरेश पुलकेशिन द्वितीय के मध्य संघर्ष का वर्णन कीजिए।
सम्बन्धित लघु उत्तरीय प्रश्न
1. नरसिंहवर्मन प्रथम और पुलकेशिन द्वितीय के मध्य हुए संघर्ष को बताइये।
2. परमेश्वरवर्मन प्रथम तथा विक्रमादित्य के युद्ध का उल्लेख कीजिए।
उत्तर-
पल्लव- चालुक्य संघर्ष
सातवीं और आठवीं शताब्दी के बीच काँची के पल्लवों और बादामी के पूर्वकालीन पश्चिमी चालुक्यों में घमासान युद्ध छिड़ गया। यह युद्ध दोनों ही राज्यों के लिए घातक सिद्ध हुआ।
पल्लव नरेश महेन्द्रवर्मन और चालुक्य नरेश पुलकेशिन द्वितीय का युद्ध - 600 ई. के लगभग महेन्द्रवर्मन ने काँची का सिंहासन ग्रहण किया। महेन्द्रवर्मन एक प्रतापी और वीर सम्राट था। यह उसका दुर्भाग्य ही था कि उसके समय में चालुक्य वंश में पुलकेशिन द्वितीय नामक एक प्रतिभाशाली सम्राट शासन कर रहा था। बादामी के चालुक्यों में इतना शक्तिशाली कोई नहीं था जितना कि पुलकेशिन द्वितीय था। डॉ. डी.सी. सरकार के अनुसार, "निःसन्देह पुलकेशिन द्वितीय बादामी के चालुक्यों का महानतम् सम्राट था और प्राचीन भारत के महानतम सम्राटों में से एक था।
पुलकेशिन द्वितीय पल्लवों की बढ़ती हुई शक्ति को न देख सका और पल्लवों के राज्य पर हमला बोल दिया। पुलकेशिन द्वितीय ने पल्लवों के उत्तरी भागों को अपने अधिकार में कर लिया। वह उसकी राजधानी काँची पर भी अधिकार करना चाहता था। काँची पर अधिकार करने के लिए उसने महेन्द्रवर्मन से युद्ध किया लेकिन वह बड़ी कठिनाई से काँची को बचा पाया। पुलकेशिन द्वितीय पल्लव साम्राज्य के उत्तरी प्रदेश को नहीं छीन पाया। ये प्रदेश चालुक्यों के संरक्षण में हो गये। पुलकेशिन ने अपने भाई विष्णुवर्धन को यहाँ का कार्य सौंपा जिसने वेंगी में एक नवीन चालुक्य शाखा की नींव डाली।
पल्लव नरेश नरसिंहवर्मन प्रथम और चालुक्य नरेश पुलेकशिन द्वितीय का युद्ध - 630 ई. में पल्लव नरेश महेन्द्रवर्मन की मृत्यु हो गयी। उसकी मृत्यु के बाद नरसिंहवर्मन सिंहासन पर बैठा। उसके शासनकाल में पल्लवों ने बहुत प्रगति की थी।
श्री नीलकान्त शास्त्री के अनुसार - "तथापि इसमें कोई सन्देह नहीं कि उसके अधीन पल्लव शक्ति ने इतनी अधिक मजबूती और प्रतिष्ठा अर्जित कर ली जो कि उसने सिंहविष्णु (574-600) के अधीन अपने प्रादुर्भाव के समय से कभी अर्जित नहीं की थी।'
अपने पिता के चालुक्यों से पराजित होने से नरसिंहवर्मन प्रथम बहुत अधिक क्षुब्ध था। वह इस अवसर की खोज में था कि किस प्रकार चालुक्यों को नीचा दिखाया जाये। दुर्भाग्य से इसी समय पुलकेशिन द्वितीय ने पल्लव राज्य पर आक्रमण कर दिया। पल्लव नरेश नरसिंह प्रथम ने पुलकेशिन के विरुद्ध लंका के राजकुमार मानवर्मा से सहायता ली और पुलकेशिन को अपने राज्य में घुसने से पहले ही बुरी तरह पराजित किया लेकिन चालुक्यों को दबाने के लिए उसने पुलकेशिन के साम्राज्य पर आक्रमण किया और उसकी राजधानी बादामी को नष्ट कर दिया। पुलकेशिन की इस युद्ध में मौत हो गयी और नरसिंहवर्मन ने इस विजय के शुभ अवसर पर 'वातापीकोण्ड' की उपाधि धारण की।
पल्लव नरेश नरसिंहवर्मन और चालुक्य नरेश विक्रमादित्य प्रथम का युद्ध - जब पुलकेशिन की मृत्यु हो गयी तो उसके बाद चालुक्य राज्य की स्थिति अत्यन्त दयनीय हो गयी। 642 ई. से 655 ई. के बीच बादामी के चालुक्य सिंहासन पर किसी राजा ने लगातार शासन नहीं किया। बादामी और दक्षिण प्रदेशों पर पल्लवों का ही अधिकार रहा। 655 ई. के अन्तिम चरण में पुलकेशिन द्वितीय के छोटे पुत्र विक्रमादित्य प्रथम ने अपने नाना गंग नरेश दुर्विनीत की सहायता से पल्लवों से युद्ध किया और उन्हें बादामी से बाहर निकाल दिया। उसने अपने विद्रोह को नष्ट कर दिया। विक्रमादित्य प्रथम ने श्रीपृथ्वीवल्लभ, महाराजाधिराज, परमेश्वर, रणसिक आदि उपाधियाँ धारण की थीं।
पल्लव नरेश महेन्द्रवर्मन प्रथम और चालुक्य नरेश विक्रमादित्य प्रथम का युद्ध- नरसिंहवर्मन की मृत्यु के बाद उसका पुत्र महेन्द्रवर्मन द्वितीय गद्दी पर बैठा। चालुक्य नरेश विक्रमादित्य ने उस पर आक्रमण करके उसे भी हराया। महेन्द्रवर्मन ने केवल दो वर्ष तक राज्य किया और 670 ई. में उसकी मृत्यु हो गयी। पल्लव नरेश परमेश्वरवर्मन प्रथम और चालुक्य नरेश विक्रमादित्य का युद्ध महेंन्द्रवर्मन की मृत्यु के बाद परमेश्वरवर्मन प्रथम पल्लव वंश के सिंहासन पर बैठा। परमेश्वरवर्मन प्रथम के विरुद्ध चालुक्य नरेश विक्रमादित्य प्रथम ने पाण्ड्य नरेश मारवर्मन ने सन्धि कर ली। चालुक्यों और पाण्ड्यों ने मिलकर परमेश्वरवर्मन् पर हमला बोल दिया लेकिन उसने हिम्मत से काम लिया और विक्रमादित्य का ध्यान काँची से हटाने के लिए अपनी एक सेना चालुक्य राज्य पर आक्रमण करने के लिए भेज दी। उसकी सेना ने विक्रमादित्य के पुत्र और पौत्र विजयादित्य को हरा दिया। इसके बाद परमेश्वरवर्मन और विक्रमादित्य के बीच घमासान युद्ध हुआ। यह युद्ध पेरुवलनल्लू नामक स्थान पर हुआ। इस युद्ध में परमेश्वरवर्मन ने चालुक्य नरेश विक्रमादित्य को पराजित किया और पल्लव राज्य से बाहर खदेड़ दिया।
पल्लव नरेश परमेश्वरवर्मन द्वितीय और चालुक्य नरेश विजयादित्य का युद्ध - परमेश्वरवर्मन द्वितीय ने 722 ई. से 780 ई. तक शासन किया। यद्यपि उसने चालुक्यों को पराजित किया था फिर भी चालुक्य शान्त न बैठे और दोनों में युद्ध छिड़ गया। चालुक्य नरेश विजयादित्य के पुत्र युवराज विक्रमादित्य द्वितीय ने गंग राजकुमार एरेयप्य की सहायता से काँची पर आक्रमण कर दिया और परमेश्वरवर्मन द्वितीय को हरा दिया।
पल्लव नरेश नन्दिवर्मन द्वितीय और चालुक्य नरेश विक्रमादित्य का युद्ध - 734 ई. में विक्रमादित्य द्वितीय ने चालुक्यों को नियंत्रित करने एवं साम्राज्य की भली-भाँति चलाने के लिए गद्दी ग्रहण की। उसी समय पल्लव वंश में नन्दिवर्मन द्वितीय शासन कर रहा था। चालुक्य नरेश ने पल्लव नरेश पर हमला बोल दिया और उसकी राजधानी काँची पर अपना अधिकार कर लिया। चालुक्य सेना पल्लव राज्य के मन्दिरों और वहाँ की जनता से बहुत सारा धन वसूलने के बाद अपने देश वापस लौट आयी और नन्दिवर्मन ने काँची पर पुनः अधिकार कर लिया।
पल्लव- चालुक्य संघर्ष का अन्त - पल्लव नरेश नन्दिवर्मन द्वितीय ने 800 ई. तक शासन किया। इसी बीच चालुक्य नरेश विक्रमादित्य की मृत्यु हो गयी। 746 ई. में कीर्तिवर्मन द्वितीय चालुक्यों का राजा बना। कीर्तिवर्मन द्वितीय और पल्लव नरेश के बीच युद्ध हुआ या नहीं, इसकी निश्चित जानकारी नहीं है। लेकिन इस बात की जानकारी अवश्य है कि पल्लव नरेश नन्दिवर्मन ने चालुक्य नरेश कीर्तिवर्मन द्वितीय से डरकर उससे सन्धि कर ली और अपनी पुत्री रेवा का विवाह कीर्तिवर्मन द्वितीय से कर दिया। अपने शासनकाल के अन्तिम दिनों में चालुक्य नरेश कीर्तिवर्मन द्वितीय ने अनेक कठिनाइयाँ झेलीं। 759 ई. में राष्ट्रकूट नरेश दन्तिदुर्ग ने खुला विद्रोह करके स्वयं को दक्षिणापथ का स्वतन्त्र राजा घोषित कर दिया। कीर्तीवर्मन का शासनकाल 4, 5 वर्षों का है लेकिन उसमें शक्ति क्षीण हो गयी थी। दन्तिदुर्ग की मृत्यु के बाद उसने पुनः अपनी शक्ति को संगठित करना चाहा लेकिन राष्ट्रकूट नरेश कृष्ण प्रथम ने उसको पराजित कर दिया और उसके राज्य को उससे छीन लिया। इस प्रकार बादामी की चालुक्य शाखा के राज्य का अन्त हो गया। पल्लवों ने 897 ई. तक राज्य किया और इसके बाद पल्लव राज्य भी चोल राज्य में सम्मिलित हो गया।
निष्कर्ष - इस प्रकार यह कहा जा सकता है कि पल्लवों और चालुक्यों के बीच जो युद्ध हुआ, उस युद्ध में दोनों में से किसी को भी तनिक भी लाभ न हुआ। लगातार युद्ध करते रहने के कारण इन दोनों की शक्ति समाप्त हो गयी थी। राष्ट्रकूटों ने चालुक्यों के राज्य का तथा चोलों ने पल्लवों के राज्य का अपहरण कर लिया और अब दक्षिण भारत में अन्य राजवंशों का जन्म हुआ।
|