लोगों की राय

प्राचीन भारतीय और पुरातत्व इतिहास >> बीए सेमेस्टर-4 प्राचीन इतिहास एवं संस्कृति

बीए सेमेस्टर-4 प्राचीन इतिहास एवं संस्कृति

सरल प्रश्नोत्तर समूह

प्रकाशक : सरल प्रश्नोत्तर सीरीज प्रकाशित वर्ष : 2023
पृष्ठ :180
मुखपृष्ठ : पेपरबैक
पुस्तक क्रमांक : 2745
आईएसबीएन :0

Like this Hindi book 0

5 पाठक हैं

बीए सेमेस्टर-4 प्राचीन इतिहास एवं संस्कृति - सरल प्रश्नोत्तर

प्रश्न- पल्लव नरेश महेन्द्रवर्मन प्रथम कौन था? उसकी राजनीतिक एवं सांस्कृतिक उपलब्धियों का वर्णन कीजिए।

अथवा
पल्लव शासक महेन्द्रवर्मन I के विषय में बताते हुए उसकी विजयों / उपलब्धियों का मूल्यांकन कीजिए।
अथवा
महेन्द्रवर्मन प्रथम की उपलब्धियों पर प्रकाश डालिए।

अथवा
महेन्द्रवर्मन प्रथम के जीवन एवं उपलब्धियों का वर्णन कीजिए।


सम्बन्धित लघु उत्तरीय प्रश्न
1. पल्लव शासक महेन्द्रवर्मन प्रथम का वर्णन कीजिए।
2. महेन्द्रवर्मन प्रथम की उपलब्धियों का विवरण प्रस्तुत कीजिए।
3. महेन्द्रवर्मन I की सैनिक सफलताएँ बताइए।
4. महेन्द्रवर्मन I की सांस्कृतिक उपलब्धियों की चर्चा कीजिए।

उत्तर-

पल्लव नरेश महेन्द्रवर्मन् प्रथम (600-630 ई.)

सिंहविष्णु के पश्चात् 600 ई. में उसका पुत्र तथा उत्तराधिकारी महेन्द्रवर्मन प्रथम पल्लव वंश का शासक हुआ। वह अपने पिता की भांति वीर योग्य एवं साहसी था। उसने मत्तविलास, विचित्रचित्र, गुणभर आदि उपाधियाँ ग्रहण की थीं। वह एक महान निर्माता, कवि एवं संगीतज्ञ था। उसके समय में पल्लव साम्राज्य न केवल राजनीतिक दृष्टि से सुदृढ़ हुआ, बल्कि साहित्यिक, सांस्कृतिक एवं कलात्मक दृष्टि से भी उन्नति के शिखर पर पहुँच गया।

राजनीतिक उपलब्धियाँ - महेन्द्रवर्मन् प्रथम के समय की एक प्रमुख घटना पल्लव-चालुक्य संघर्ष है। एहोल अभिलेख से पता चलता है कि चालुक्य नरेश पुलकेशिन द्वितीय कदम्बों तथा वेंगी के चालुक्यों को जीतता हुआ पल्लव राज्य में घुस गया। उसकी सेनाएँ काञ्ची से केवल 15 मील दूर उत्तर में पुल्लिलूर तक आ पहुँची। पुलकेशिन् तथा महेन्द्रवर्मन् के बीच कड़ा संघर्ष हुआ। ऐहोल लेख के अनुसार पल्लवपति ने चालुक्य सेना का डटकर मुकाबला किया। यद्यपि महेन्द्रवर्मन् अपनी राजधानी को बचाने में सफल रहा परन्तु पल्लव राज्य के उत्तरी भागों पर पुलकेशिन् का अधिकार हो गया।

नन्दिवर्मा द्वितीय के कुशाक्कुडि लेख में कहा गया है कि महेन्द्रवर्मन् ने पुल्लिलूर नामक स्थान पर (कांची से लगभग 24 किमी. दूर) अपने प्रमुख शत्रुओं पर विजय प्राप्त की थी। इस लेख में शत्रुओं के नाम नहीं दिये गये हैं। कुछ विद्वानों का मानना है कि इन शत्रुओं में पुलकेशिन द्वितीय भी सम्मिलित था। किन्तु यह सत्य प्रतीत नहीं होता, क्योंकि यदि महेन्द्रवर्मन पुलकेशिन द्वितीय को पराजित करता तो इसका उल्लेख लेख में अवश्य किया गया होता। ऐसा अनुमान है कि जब कोशल, कलिंग आदि राज्यों पर अधिकार करने के पश्चात् पुलकेशिन द्वितीय ने महेन्द्रवर्मन् पर आक्रमण किया तो महेन्द्रवर्मन् ने पुल्लिलूर में विद्रोहियों को रोकने का प्रयास किया। संयोग से उसे सफलता मिल गई और उसने चालुक्य सेना के

प्रवाह को बढ़ने से रोक दिया। इस प्रकार कांची की तो रक्षा हो गई, परन्तु पल्लव साम्राज्य के उत्तरी भाग चालुक्यों के अधीन हो गये।

महेन्द्रवर्मन् प्रथम द्वारा पुल्लिलूर में पराजित शत्रुओं के लिये बहुवचन का प्रयोग किया गया है जिससे ज्ञात होता है कि ये शत्रु एक नहीं बल्कि कई थे। कुछ विद्वानों का मानना है कि इनमें तेलुगुचोड शासक नल्लडि भी था। उसने संभवतः कुछ दिनों के लिए काञ्ची के समीपवर्ती भागों पर अपना अधिकार कर लिया था। ऐसा प्रतीत होता है कि नल्लडि की सहायता के लिये कुछ और लोग भी आये हों, जिन्हें महेन्द्रवर्मन प्रथम ने पराजित किया हो। टी.वी. महालिंगम के अनुसार, "तेलुगुचोड शासक नल्लंडि ने कुछ समय के लिये काञ्ची के समीप क्षेत्र पर अधिकार कर लिया था। महेन्द्रवर्मन ने पुल्लिलूर के युद्ध में उसी को उसके कुछ सहायकों के साथ पराजित किया होगा।

सांस्कृतिक उपलब्धियाँ - महेन्द्रवर्मन् प्रथम पराक्रमी होने के साथ-साथ कला एवं साहित्य का महान संरक्षक तथा बहुमुखी प्रतिभा का धनी था। उसकी साहित्यिक अभिरुचि उसके द्वारा रचित 'मत्तविलासप्रहसन' नामक कृति से प्रमाणित हो जाती है। यह संस्कृत साहित्य का प्राचीनतम ग्रन्थ है। विद्वानों का विचार है कि उसने संगीतशास्त्र पर भी एक शास्त्रीय ग्रन्थ लिखा था ।

महेन्द्रवर्मन् प्रथम अपने प्रारम्भिक जीवन में जैन धर्मावलम्बी था परन्तु बाद में उसने हिन्दू धर्म ग्रहण कर लिया। उसके शासनकाल में शैव एवं वैष्णव धर्म से सम्बन्धित अनेक विशाल एवं भव्य मन्दिरों का निर्माण कराया गया। मंडपट्ट लेख में कहा गया है कि उसने ब्रह्मा, ईश्वर (शिव) तथा विष्णु के एकाश्मक मन्दिर बनवाये थे। त्रिचनापल्ली लेख में उसे शिवलिंग का उपासक कहा गया है। उसके समय में निर्मित मन्दिर त्रिचनापल्ली, महेन्द्रवाड़ी दलवणूर तथा वल्लम में आज भी विद्यमान हैं। मन्दिरों के अतिरिक्त महेन्द्रवाड़ी तथा चित्रमेघ नामक तडागों का निर्माण भी उसके समय में करवाया गया था। वह एक संगीतज्ञ भी था तथा उसने प्रसिद्ध संगीतज्ञ रुद्राचार्य से संगीत की शिक्षा ली थी। उसने संगीत पढ़ने वाले छात्रों के लिए वीणाशास्त्र पर एक शास्त्रीय ग्रन्थ लिखा था जिसे 'कुडिमियामलय' नामक संस्कृत अभिलेख में उत्कीर्ण करवाया था।

महेन्द्रवर्मन प्रथम की उपलब्धियाँ - बहुमुखी प्रतिभा के धनी तथा बुद्धि और शांति में समान रूप से महान् महेन्द्रवर्मन प्रथम 600 ई. में राजसिंहासन पर बैठा। मामल्लपुरम् (महाबलीपुरम) की वाराह गुफा में महेन्द्रवर्मन तथा उसके पिता का चित्र नक्काशी में अंकित मिलता है। उसकी मत्तविलास, विचित्र- चित्र गुणकार जैसी अनेक उपाधियाँ थीं। वह महान राज्यनिर्माता, कवि तथा संगीतज्ञ था। कुछ समय के लिए उसने जैन धर्म को अङ्गीकार किया, किन्तु अरपंर के प्रभाव में इसे छोड़कर शीघ्र ही उसने शैव धर्म को अपना लिया। अपने पिता की तरह महेन्द्रवर्मन प्रथम के शासन काल (600-630 ई.) के प्रारम्भ में पल्लव राज्य का विस्तार उत्तर कृष्ण नदी और संभवतः उससे भी कुछ आगे तक था तथा विष्णुकुण्डियों का राज्य उसकी सीमा पर था। विष्णुकण्डियों के पतन के पश्चात् पुलकेशिन द्वितीय ने महेन्द्रवर्मन प्रथम से जिसकी बढ़ती हुई शक्ति उसे समान थी, लोहा लेने का विचार किया। उसकी सेनाएँ पल्लव राज्य में: दूर तक घुस गई तथा जब राजधानी से सिर्फ 15 मील उत्तर पुल्लपुर पहुँच गई तभी उसका प्रतिरोध किया। घमासान लड़ाई हुई। महेन्द्र वर्मन प्रथम अपनी राजधानी को बचाने में सफल हुआ। परन्तु उसे अपना उत्तरी भाग खोना पड़ा। चालुक्य तथा पल्लव राजवंशों के बीच लम्बे समय तक चलने वाले संघर्ष का यहीं से प्रारम्भ हुआ। सिंहविष्णु का पुत्र तथा उत्तराधिकारी महेन्द्रवर्मन प्रथम ने मन्तरविलास प्रहसन नामक हास्य ग्रन्थ की रचना की थी। इसमें व्यापारियों तथा भिक्षुओं पर व्यंग्य कसा गया है। प्रसिद्ध संगीतज्ञ रुद्राचार्य से महेन्द्रवर्मन प्रथम ने संगीत की शिक्षण ग्रहण की। महेन्द्रवर्मन प्रथम के समय से ही पल्लव-चालुक्य संघर्ष आरम्भ हुआ था। उसने शैव सन्त अप्पार के प्रभाव में आकर शैव धर्म ग्रहण किया था तथा उसकी सबसे महान उपलब्धियाँ यह थी वह अपने साम्राज्य को बचाने में सफल रहा था।

...Prev | Next...

<< पिछला पृष्ठ प्रथम पृष्ठ अगला पृष्ठ >>

अन्य पुस्तकें

लोगों की राय

No reviews for this book