प्राचीन भारतीय और पुरातत्व इतिहास >> बीए सेमेस्टर-4 प्राचीन इतिहास एवं संस्कृति बीए सेमेस्टर-4 प्राचीन इतिहास एवं संस्कृतिसरल प्रश्नोत्तर समूह
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बीए सेमेस्टर-4 प्राचीन इतिहास एवं संस्कृति - सरल प्रश्नोत्तर
अध्याय - 2
पल्लव राजवंश
(Pallava Dynasty)
प्रश्न- पल्लव वंश के इतिहास के साधन का उल्लेख कीजिए। इस वंश की उत्पत्ति के विषय में आप क्या जानते हैं? स्पष्ट कीजिए।
अथवा
पल्लव इतिहास के अध्ययन के लिये कौन-से ऐतिहासिक साक्ष्य उपलब्ध होते हैं? स्पष्ट कीजिए।
अथवा
पल्लवों की उत्पत्ति के बारे में आप क्या जानते हैं?
अथवा
पल्लवों के प्रारम्भिक इतिहास का वर्णन कीजिए।
सम्बन्धित लघु उत्तरीय प्रश्न
1. पल्लव राजवंश के इतिहास के अध्ययन के स्रोतों का उल्लेख कीजिए।
2. पल्लव कौन थे?
3. पल्लवों की उत्पत्ति के सम्बन्ध में प्रमुख मतों की विवेचना कीजिए।
उत्तर-
पल्लव वंश के इतिहास के साधन
पल्लव वंश के इतिहास निर्माण के लिये पर्याप्त साहित्यिक एवं पुरातात्विक साक्ष्य उपलब्ध होते हैं। इसके साथ ही ह्वेनसांग के विवरण से भी इस वंश के विषय में हमें पर्याप्त जानकारी प्राप्त होती है।
साहित्यिक साक्ष्य - पल्लवों के समय में संस्कृत तथा तमिल भाषा में बहुत-से ग्रन्थों की रचना की गयी। संस्कृत ग्रन्थों में 'मत्तविलासप्रहसन' तथा 'अवन्तिसुन्दरीकथा' विशेष महत्वपूर्ण हैं। 'मत्तविलासप्रहसन की रचना स्वयं पल्लव नरेश महेन्द्रवर्मन ने की थी जिसमें कापालिकों तथा भिक्षुओं पर व्यंग्य किया गया है। इसके साथ ही पुलिस तथा न्याय विभाग में व्याप्त भ्रष्टाचारों की ओर भी परोक्षत: संकेत हुआ है। इसी प्रकार अवन्तिसुन्दरीकथा से पल्लव शासक सिंहविष्णु तथा उसके समकालिकों के समय की राजनीतिक तथा सांस्कृतिक घटनाओं का ज्ञान प्राप्त होता है। इसमें मामल्लपुरम् तथा वहाँ स्थित अनन्तशायी विष्णु की मूर्ति का भी उल्लेख हुआ है।
तमिल ग्रन्थों में 'नन्दिक्कलम्बकम्' उल्लेखनीय है जिसके अध्ययन से हमें नन्दिवर्मन तृतीय के जीवनवृत्त तथा उसकी उपलब्धियों की जानकारी प्राप्त होती है। इसके साथ ही पल्लवकालीन काञ्ची नगर के समाज तथा संस्कृति का विवरण भी इसमें मिलता है।
पल्लव इतिहास के साधनों के रूप में जैन ग्रन्थ 'लोक विभाग' तथा बौद्ध ग्रन्थ 'महावंश' का भी विशेष महत्व है। लोक विभाग से नरसिंहवर्मन के राज्य तथा शासन की जानकारी प्राप्त होती है तथा 'महावंश' से प्रारम्भिक पल्लव शासकों की तिथि निर्धारित करने में विशेष सहायता मिलती है।
पुरातात्विक साक्ष्य - पल्लव इतिहास की जानकारी हेतु तत्कालीन अभिलेखों को प्रामाणिक साधन माना जाता है जिनसे पल्लवों की वंशावली तथा तिथियों का ज्ञान होता है। अभिलेख इस वंश के शासकों की राजनैतिक तथा सांस्कृतिक उपलब्धियों पर पर्याप्त प्रकाश डालते हैं। पल्लव वंश के प्रारम्भिक इतिहास के लिये शिवस्कन्दवर्मन् के मैडवोलु तथा हीरहडगल्ली के लेख उपयोगी हैं जो प्राकृत भाषा में लिखे गये हैं। इनका काल सामान्य तौर पर 250 ई. से लेकर 350 ई. तक माना जाता है। संस्कृत के लेखों में सबसे प्राचीन लेख कुमारविष्णु द्वितीय का केन्दलूर दानपत्र तथा नन्दिवर्मन का उदयेन्दिरम् दानपत्र हैं। इनसे भी हमें पल्लव शासकों के विषय में अनेक महत्वपूर्ण जानकारी प्राप्त होती है।
विदेशी विवरण - इसके अन्तर्गत चीनी यात्री ह्वेनसांग के विवरण का उल्लेख किया जा सकता है। 640 ई. में ह्वेनसांग पल्लवों की राजधानी काञ्ची की यात्रा पर गया था। उस समय वहाँ नरसिंहवर्मन प्रथम शासन करता था। ह्वेनसांग उसे 'महान राजा' बताता है। उसके विवरण से ज्ञात होता है कि काञ्ची धर्मपाल बोधिसत्व की जन्मभूमि थी। ह्वेनसांग महाबलीपुरम् तथा काञ्ची की समृद्धि का भी वर्णन करता है। उसके अनुसार काञ्ची में अनेक बौद्ध विहार थे जिसमें कई भिक्षु निवास करते थे।
पल्लवों की उत्पत्ति
पल्लवों की उत्पत्ति के विषय में इतिहासकारों में मतभेद हैं। कुछ इतिहासकारों ने इन्हें पल्लवों से सम्बन्धित और कुछ ने नागों से सम्बन्धित और कुछ ने वाकाटकों से सम्बन्धित बतलाया है, जिसका विशेष विवरण निम्नलिखित है-
(1) पल्लवों से सम्बन्धित - पल्लवों और पल्लव शट्ट में एकरूपता है और इसलिए बी.एल. राइस आदि विद्वान पल्लवों की उत्पत्ति पल्लवों से बताते हैं। अपने मत की पुष्टि के लिए वे पल्लव नरेश नन्दिवर्मन द्वितीय के सिंहासनारोहण की एक मूर्ति का उल्लेख करते हैं। इस मूर्ति में पल्लव नरेश डोमिट्रियस की भांति गजशीश धारण किये हुए चित्रित किया गया है। दुबीमा महोदय भी पल्लवों को पल्लवों से सम्बन्धित मानते हैं। उनका कथन है कि पल्लव वंश की स्थापना रुद्रदामन के पल्हव मन्त्री सुविशाख ने की थी।
राइस और द्रुबीमा महोदय के विचार ठीक नहीं प्रतीत होते। पल्लवों के किसी भी अभिलेख में इन्हें पल्लव नहीं बतलाया गया है। पल्लवों ने अश्वमेध यज्ञ किया था, यदि वे पल्लवों से सम्बन्धित होते तो कभी भी अश्वमेध यज्ञ नहीं करते। अतः पल्लवों को पल्हव मानना उचित नहीं है।
(2) चोलों और नागों से सम्बन्धित - मादुलियर सी. रसयगम, श्री सी.यस. निवासचारी एवं श्री एम.एम. रामास्वामी आयंगर आदि विद्वानों का मत है कि पल्लव चोलों तथा नागों से सम्बंन्धित थे। रसयगम् महोदय ने लिखा है कि एक चोल राजा किल्लवलवन ने मनोपल्लवन के नागराज की पुत्री से विवाह किया था। उसके पुत्र ने टोण्डमण्डलम् पर राज्य किया जिसकी राजधानी कांची थी। नागकन्या के प्रदेश मनोपल्लवम् के आधार पर ही राजकुमार के वंश का नाम पल्लव वंश पड़ा। इस प्रकार पल्लव चोलों और नागों के सम्मिश्रण थे। श्री निवासचारी आयंगर और राधास्वामी लिखते हैं - “The theory of the Parthian origin of the Pallavas has now been nearly given up and it is now generally held that they represent a dynasty of Chola and Naga origin."
(3) वाकाटकों से सम्बन्धित - डॉ. के.पी. जायसवाल का मत है कि पल्लव वास्तव में वाकाटकों की एक शाखा थी। उन्होंने सैनिक व्यवसाय को अपना लिया और दक्षिण में अपने राज्य की स्थापना की। डॉ. जायसवाल का यह मत उचित नहीं प्रतीत होता क्योंकि तालगण्डा अभिलेख में पल्लवों को क्षत्रिय कहा गया है।
उपर्युक्त सभी मतों में नाग-चोल वंश से सम्बन्धित मत अधिक उचित प्रतीत होता है। डॉ. स्मिथ ने भी मत का समर्थन किया है।
पल्लवों की उत्पत्ति कहाँ से हुई ? इस विषय में यह मत अधिक समीचीन प्रतीत होता है कि उनकी उत्पत्ति टोण्डमण्डलम में हुई। डॉ. कृष्णस्वामी आयंगर ने लिखा है, "कांची के पल्लवों के लिये उनके समय के अभिलेखों में 'पल्हव' शब्द प्राप्त नहीं होता ! ... .... पहली बार जब इस शब्द को पल्लवों के लिए प्रयोग किया गया तो यह तमिल शब्द टोयंडर और पक्ष 'टोयंडन' का अनुवाद दिखाई देता है और इसकी पुष्टि कुछ ताम्र अनुदान-पत्रों से होती है, जिसमें उसके समानार्थक शब्द 'पल्लव' के पक्ष में धुंधले से प्रभाव मिलते हैं। यह निःसन्देह इस वंश का बाद के समय का प्रयोग है किन्तु इससे संकेत मिलता है कि उस समय भी पारस्परिक विचार यही था कि वे पल्लवों की तरह विदेशी नहीं थे। जितने भी प्रभावों का निरीक्षण किया गया है उसमें इसका कोई भी संकेत नहीं है कि वे लोग उत्तर-पश्चिम से आये थे और बाद में राजवंशी बन गये। इस प्रकार एक जनसमूह का दूसरे जनसमूह के साथ सम्बन्ध होना केवल एक संदिग्ध सम्भावना पर आधारित है जबकि एक दक्षिणी शब्द का संस्कृत में परिवर्तन या अनुवाद सम्भावना से अधिक है जैसाकि 'द्रविड' या 'द्रमिड़' शब्द से ज्ञात होता है।'
टोण्डमंडलम् में सातवाहनों का अधिकार था। यहाँ पल्लव सातवाहनों के अधीन सामन्तों के रूप में शासन करते थे। सातवाहनों के पतन के बाद 225 ई. के लगभग पल्लवों ने यहाँ अपनी स्वतंत्रता घोषित कर दी। टोण्डमण्डलम् एक समय अशोक के साम्राज्य का एक प्रान्त था। पुलिन्दवंशी सम्भवतः टोण्डमण्डलम् के कुटुम्ब के ही थे। शिवस्कन्दवर्मन पल्लव के मायिदबोलु और राहड़गल्ली के प्राकृत ताम्रपत्र अनुदानों से प्रतीत होता है कि पल्लवों का कांची से कृष्णा नदी तक विकास हुआ। उत्पत्ति की समस्या से सम्बन्धित ऐतिहासिक तथ्यों को परस्पर सार्थक बनाने के लिए काँची के पल्लवों की टोण्डमण्डलम् से उत्पत्ति का विचार सर्वश्रेष्ठ है।
अधिकांश विद्वान इस बात से सहमत हैं कि पल्लव वंश ने कभी सातवाहनों की अधीनता में शासन किया था। संगम साहित्य में पल्लवों को 'तोण्डैयर' कहा गया है, जिसका अर्थ 'दास' होता है। डॉ. स्मिथ का कथन है, "जो कुछ उनके विषय में जानकारी प्राप्त है वह प्रदर्शित करती है कि वे प्रायद्वीपीय जाति के थे। कदाचित् कुरम्बों से मिलती-जुलती और घनिष्ठ रूप से सम्बन्धित, जो मुख्य रूप से ग्रामीण जीवन से सम्बन्धित लोग थे जिन्होंने प्रारम्भिक तमिल परम्पराओं में महत्वपूर्ण योगदान दिया।'
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