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बीए सेमेस्टर-4 इतिहास

सरल प्रश्नोत्तर समूह

प्रकाशक : सरल प्रश्नोत्तर सीरीज प्रकाशित वर्ष : 2023
पृष्ठ :180
मुखपृष्ठ : पेपरबैक
पुस्तक क्रमांक : 2742
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बीए सेमेस्टर-4 इतिहास - सरल प्रश्नोत्तर

स्मरण रखने योग्य महत्वपूर्ण तथ्य

सन् 1813 ई. में उद्योगपतियों और अन्य व्यापारियों का हमला अन्ततः सफल हो गया तथा भारत के व्यापार पर ईस्ट इण्डिया कम्पनी का एकाधिकार समाप्त कर दिया गया।

भारत में औद्योगिक पूँजीवादी शोषण का नया दौर सन् 1813 ई. से आरम्भ हो गया।

सन् 1840 ई. में की संसदीय जाँच में यह बताया कि भारत आने वाले इंग्लैण्ड के सूती ओर रेशमी सामानों पर जहाँ 3.5 प्रतिशत ओर ऊनी सामान पर 2 प्रतिशत और ऊनी वस्त्र पर 30 प्रतिशत कर लगाया गया। इस नीति से भारतीय उद्योग-धन्धे नष्ट हो गये।

अंग्रेजों की व्यापारिक नीति के कारण तैयार माल के स्थान पर कपास और रेशम जैसे कच्चे मालों के निर्यात करने के लिये विवश हुआ।

स्वतन्त्रता से पूर्व भारत की प्रशुल्क नीति का इतिहास व्यापारिक प्रतिस्पर्द्धाओं का इतिहास रहा है।

भारत में जब ब्रिटिश साम्राज्य स्थापित हुआ, तब तक ब्रिटेन विश्व का एक महत्वपूर्ण औद्योगिक देश बन चुका था। वह चाहता था, कि उसके द्वारा निर्मित माल भारत में बिके और भारत का कच्चा माल उसे प्राप्त होता रहे, अतः ब्रिटेन से स्वतंत्र व्यापार नीति अपनाई इसका परिणाम यह हुआ कि भारत के उद्योग-धन्धे, जिन्हें संरक्षण की आवश्यकता थी, मुक्त व्यापार की नीति के कारण नष्ट हो गये।

सन् 1882 ई. से सन् 1994 ई. तक भारत सरकार ने स्वतंत्र नीति के सिद्धान्तों का पूर्ण रूप से पालन किया और आयातित वस्तुओं पर किसी प्रकार का कोई कर नहीं लगाया।

आर्थिक स्वतंत्रता का लाभ उठाते हुए भारत सरकार ने सन् 1921 ई. में प्राशुल्लिका स्वतंत्रता का एक प्रस्ताव पारित किया।

19वीं सदी और 20वीं सदी में ब्रिटिश आर्थिक नीतियों का एक प्रमुख परिणाम था भारत में धन का निष्कासन।

कम्पनी के भारत आगमन से पूर्व भारत की ग्राम समाज व्यवस्था आत्मनिर्वाही थी परन्तु अंग्रेजों द्वारा इसके मूल आधार को नष्ट कर दिये जाने के परिणामस्वरूप यह स्वायत्त शासित समाज के स्थान पर एक केन्द्रीभूत राज्य की प्रशासनिक ईकाई के रूप में परिवर्तित हो गयी।

ग्राम समाज में न्याय का जो कार्य पंचायतें करती थी, उनका स्थान सरकारी अदालतों, (न्यायालयों) ने ले लिया। सरकारी थाने रक्षक की भूमिका निभाने लगे तथा पटवारी अब जमीन का हिसाब-किताब रखने लगे।

ब्रिटिश साम्राज्यवादियों ने भारतीय अर्थव्यवस्था के मूल आधारों का इंग्लैण्ड के हितों की दृष्टि से दोहन किया जिसका सीधा प्रभाव प्राचीन काल से चले आ रहे लघु उद्योगों पर पड़ा।

ब्रिटिश साम्राज्यवादियों की आर्थिक नीति का मूल प्रयोजन भारतीय हस्तशिल्प या लघु उद्योगों को विनष्ट करना था। 1881 ई. से 1911 ई. के मध्य बीज उत्पादन, निर्माण कार्य एवं खनिज कार्यों में लगे श्रमिकों की प्रतिशत दर 35% से घटकर 17% रह गयी।

ब्रिटिश साम्राज्यवादियों ने भारतीय कृषि का प्रयोग अपने लाभ के लिये किया। कृषि का वाणिज्यीकरण करने से कृषकों के समक्ष गम्भीर समस्याएँ उत्पन्न हो गईं।

अंग्रेजों की महलवाड़ी एवं रैय्यतवाड़ी व्यवस्था ने सरकार एवं कृषक के मध्य बिचौलियों को जन्म दिया जिन्होंने कृषकों का बहुत शोषण किया।

कृषि की अत्यन्त शोचनीय स्थिति ने भारतीय राष्ट्रवादी नेताओं को आन्दोलन के लिये प्रेरित किया जिससे प्रभावित होकर ब्रिटिश सरकार ने कृषि के क्षेत्र में कतिपय सुधार किये।

कृषि की दृष्टि से कम्पनी द्वारा किये गये सुधार यद्यपि महत्वपूर्ण थे परन्तु कृषि का वाणिज्यीकरण कर दिये जाने से इनसे केवल अंग्रेजों की इच्छा पूर्ति में सहयोग दिया और इससे कृषक वर्ग को लाभ न मिल सका।

कृषि के व्यवसायीकरण की इस प्रक्रिया में सरकार ने उन्हीं फसलों के विकास में योगदान दिया, जिनकी विदेशी बाजार में आवश्यकता थी।

कृषि के व्यवसायीकरण का प्रमुख कारण भारत में ब्रिटिश सरकार की साम्राज्यवाद नीति थी जो ब्रिटेन में प्रचलित राजनीतिक दर्शन तथा विचारधारा से प्रभावित थी। इसका मुख्य आधार साम्राज्यवाद की आवश्यकता तो पूरा करना था।

सरकार ने भू-राजस्व की जो प्रणालियाँ लागू कीं उनका उद्देश्य अपनी आय की वृद्धि करना तथा अपने समर्थक जमींदारों को प्रसन्न करना था। इस काल में ब्रिटिश नीति ब्रिटेन की आवश्यकताओं के लिए कृषि उत्पादन के प्रयोग की थी।

कृषि उत्पादन को एक स्थान से दूसरे स्थान पर पहुँचाने के लिए सरकार ने रेलों का जाल बिछा दिया।

ब्रिटेन के वस्त्र तथा उद्योग शहरी आबादी की आवश्यकतायें पूरी करने के लिए कच्चे कपास को भारत के विभिन्न क्षेत्रों से रेलों द्वारा बन्दरगाहों तक पहुँचाया जाता था।

उन्नीसवीं शताब्दी में भारत का ब्रिटेन के एक कृषि उपनिवेश के रूप में उदय हुआ।

कृषि के व्यवसायीकरण की इस प्रक्रिया में सरकार ने उन्हीं फसलों के विकास में योगदान दिया, जिनकी विदेशी बाजार में आवश्यकता थी।

किसान तथा श्रमिकों का शोषण - नील तथा चाय की खेती पर अंग्रेजों का वर्चस्व था। वे कृषकों तथा मजदूरों पर अनेक प्रकार से अत्याचार करते थे।

जमींदार तथा ऋणदाता व्यापारियों को लाभ - कृषि के व्यवसायीकरण के परिणामस्वरूप जमींदार तथा ऋणदाता व्यापारी सशक्त हो गये, उनके द्वारा कृषकों का शोषण पहले से बढ़ गया। इस प्रणाली का मुख्य आधार अग्रिम ऋण प्रदान करना था।

व्यवसायीकरण से सामान्य किसानों को कोई लाभ नहीं हुआ। बड़े किसान तथा जमींदार ही इससे लाभान्वित हुए।

संयुक्त प्रांत में व्यवसायिक खेती ने कुछ असन्तुलनों को जन्म दिया। किसानों पर लगान की दर बहुत बढ़ा दी और उसको कठोरता से वसूल किया गया। इससे ऋणग्रस्तता बढ़ी।

महाराष्ट्र में नयी में नयी भू-राजस्व प्रणाली लागू करने से इसी प्रकार की अस्त-व्यस्तता पैदा हुई। इसके कारण आर्थिक विषमता बढ़ी और दलित वर्गों की हालत बदतर हो गयी। इसमें जमींदारों, व्यापारियों तथा अंग्रेजों के विरुद्ध किसानों में भयंकर रोष उत्पन्न हुआ।

प्राचीन लघु उद्योगों का हास

ब्रिटिश साम्राज्यवादियों ने भारतीय अर्थव्यवस्था के मूल आधारों का इंग्लैण्ड के हितों की दृष्टि से दोहन किया जिसका सीधा प्रभाव प्राचीन काल से चले आ रहे लघु उद्योगों पर पड़ा।

ब्रिटिश साम्राज्यवादियों की आर्थिक नीति का मूल प्रयोजन भारतीय हस्तशिल्प या लघु उद्योगों को विनष्ट करना था। 1881 ई. से 1911 ई. के मध्य बीज उत्पादन, निर्माण कार्य एवं खनिज कार्यों में लगे श्रमिकों की प्रतिशत दर 35% से घटकर 17% रह गयी।

कृषि पर प्रभाव

ब्रिटिश साम्राज्यवादियों ने भारतीय कृषि का प्रयोग अपने लाभ के लिये किया। कृषि का वाणिज्यीकरण करने से कृषकों के समक्ष गम्भीर समस्याएँ उत्पन्न हो गईं।

अंग्रेजों की महलवाड़ी एवं रैय्यतवाड़ी व्यवस्था ने सरकार एवं कृषक के मध्य बिचौलियों को जन्म दिया जिन्होंने कृषकों का बहुत शोषण किया।

कृषि की अत्यन्त शोचनीय स्थिति ने भारतीय राष्ट्रवादी नेताओं को आन्दोलन के लिये प्रेरित किया जिससे प्रभावित होकर ब्रिटिश सरकार ने कृषि के क्षेत्र में कतिपय सुधार किये।

कृषि की दृष्टि से कम्पनी द्वारा किये गये सुधार यद्यपि महत्वपूर्ण थे परन्तु कृषि का वाणिज्यीकरण कर दिये जाने से इनसे केवल अंग्रेजों की इच्छा पूर्ति में सहयोग दिया और इससे कृषक वर्ग को लाभ न मिल सका।

प्राचीन भारतीय उद्योगों के ह्रास, कृषि के वाणिज्यीकरण एवं आधुनिक उद्योगों के विकास ने कल-कारखानों में 1890 ई. के बाद मजदूरों की संख्या में अभूतपूर्व वृद्धि की।

मजदूर वर्ग की वृद्धि होने से उनकी शिक्षा, मजदूरी, स्वास्थ्य कार्य करने की अवधि तथा आवास इत्यादि से सम्बन्धित अनेक समस्याएँ उत्पन्न हुईं जिनके समाधान के लिये ब्रिटिश सरकार ने कई अधिनियम पास किये।

ब्रिटिस शासन में पास किये गये अधिनियमों ने श्रमिकों की स्थिति पर सकारात्मक प्रभाव डाला। उनकी स्थिति में महत्वपूर्ण सुधार हुए, इस तथ्य से इन्कार नहीं किया जा सकता

व्यापारिक दृष्टि से ब्रिटिश नीति का प्रभाव भारत के सन्दर्भ में लाभकारी नहीं माना जा सकता। अंग्रेजों की आयात एवं निर्यात की विदेशी नीति ने पूँजी व्यवस्था को झकझोर दिया।

नौरोजी द्वारा विदेशी पूँजी को भारतीय संसाधनों की लूट और शोषण का माध्यम' कहा गया है। इसी प्रकार हिन्दुस्तान रिव्यू के सम्पादक ने इसे 'लूट पाट के अन्तर्राष्ट्रीय तन्त्र' की संज्ञा दी है।

अंग्रेजों द्वारा भारतीय पूँजी के बाहर जाने से भारतीय पूँजी का भारत में अस्तित्व समाप्त हो रहा था क्योंकि अंग्रेज भारतीय पूँजी का स्थान भारत में विदेशी पूँजी को देने पर तुले थे।

ब्रिटिश काल में भारतीय ग्राम समाज व्यवस्था का पतन, प्राचीन लघु उद्योगों का नाश, कृषि का वाणिज्यीकरण, अंग्रेजों की आयात-निर्यात नीति तथा भारतीय पूँजी का निष्कासन भारत की निर्धनता के लिये अधिक उत्तरदायी कारक थे।

ब्रिटिश राज्य के समर्थक दादाभाई नौरोजी ने 1871 ई. में कहा था कि "अंग्रेजी शासन के कारण देश लगातार निर्धन तथा पंगु बनता चला जा रहा है।"

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