बी ए - एम ए >> बीए सेमेस्टर-2 चित्रकला - कला के मूल तत्व बीए सेमेस्टर-2 चित्रकला - कला के मूल तत्वसरल प्रश्नोत्तर समूह
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बीए सेमेस्टर-2 चित्रकला - सरल प्रश्नोत्तर
प्रश्न- दृश्य संयोजन के कितने सिद्धान्त हैं?
अथवा
चित्र संयोजन के कितने सिद्धान्त है? सभी पर प्रकाश डालिये।
अथवा
संयोजन के कितने सिद्धान्त हैं? चित्रकला में उनका क्या उपयोग है?
उत्तर -
चित्र संयोजन के सिद्धान्त चित्रण सृजना सैद्धान्तिक प्रक्रिया के अधीन सक्रिय पाई जाती है और संयोजन के मुख्य सिद्धान्त निम्नलिखित हैं-
1. अनुपात (Proportion) - चित्र में अनुपात उसका महत्वपूर्ण अंग होता है। आकृतियों और वर्ण के पारस्परिक सम्बन्ध को ध्यान में रखकर ही चित्रांकन किया जाता है। अनुपात का सही प्रयोग आकृति एवं सम्पूर्ण चित्र संयोजन को सुन्दर एवं आकर्षक बनाता है। विभिन्न आकृतियों का आपसी सम्बन्ध अनुपात ही निश्चित करता है। अनुपात चित्रण में परिप्रेक्ष्य को सही ढंग से बनाएं रखने में सहयोग करता है। आकृति विभाजन उसके आन्तरिक रूप और मध्य आकार को उचित ढंग से प्रस्तुत करता है। भारतीय शरीर रचना के अनुरूप ताल नाप विज्ञान का प्रयोग अनुपात ज्ञान और उसके प्रयोग के लिए चित्र सृजना की प्रक्रिया में महत्वपूर्ण सिद्धान्त प्रचलित है। अनुपात और प्रमाण का निकट का सम्बन्ध है। आकृति का माप स्वतन्त्र रूप में प्रमाण कहलाता है। किन्तु वही प्रमाण चित्रभूमि के विस्तार में अनुपात समझा जाता है।
2. सन्तुलन (Balance) - संतुलन चित्रभूमि के समस्त विरोधी प्रभावों को व्यवस्थित करता है। चित्र में मुख्य आकृति के आधीन अन्य सहयोगी आकृतियाँ अंकित की जाती है जिनका संतुलित प्रयोग आवश्यक माना जाता है। अन्यथा चित्र कम प्रभावक बन सकता है। सन्तुलन के रूप हैं- रेखा सन्तुलन, वर्ण सन्तुलन, आकृति सन्तुलन, तान सन्तुलन, परिप्रेक्ष्य संतुलन। एक श्रेष्ठ चित्र में सुविचारित संतुलन होता है कि कभी-कभी एक छोटे से अंश में रिक्तता प्रदान करने पर सम्पूर्ण सन्तुलन को बिगाड़े देता है। अतः सम्पूर्ण चित्र में सन्तुलन का महत्वपूर्ण स्थान है।
3. विरोध (Contrast ) - चित्र में एकरसता उसका अवगुण माना जाता है और इस अवगुण को दूर करने के लिए, चित्रकार विरोध का समावेश करता है। विरोध के द्वारा चित्र का संयोजन संघन हो जाता है और आकृतियाँ अधिक महत्वपूर्ण हो जाती है। विरोधी तत्वों का संयोजन रुचिकर होता है और यह विरोध निम्न तत्वों के अधीन सम्भव है - रेखा का विरोध, दिशा का विरोध, वर्ण विरोध, बल विरोध, आकार विरोध, धरातलीय गठन विरोध।
4. प्रभाविता ( Dominance) - चित्र सृजना की प्रक्रिया में प्रभाविता के सिद्धान्त क प्रयोग आवश्यक माना गया है। इसके अर्न्तगत मुख्य आकृति के महत्व को प्रधानता दी जाती है और गौण आकृति को उसके अनुसार द्वितीय स्थिति में संयोजित करते है। इसके लिए-
(i) केन्द्र के समीप आकर्षक बिन्दु (point of attaraction) को मानते है।
(ii) प्रमुख आकृति का आकार, स्वरूप और रंग अधिक सबल रूप में प्रयोग किये जाते हैं।
(iii) गौण आकृतियों को अलग समकृत करते हैं। मुख्य आकृति के पीछे पर्याप्त रिक्त पृष्ठभूमि छोड़ी जाती है।
5. सामंजस्य (Harmony) - चित्र में अनेक आकृतियाँ अंकित की जाती है। इनमें समता रखकर चित्रण सामंजस्य को जन्म देता है। जब चित्र में रेखांकन का स्वरूप, रंग, तान, गठन आदि एक-दूसरे से समता रखते है तो सामंजस्य की स्थिति उत्पन्न होती है। इसका स्थान एकरसता (monotony ) विसम्वाद (dicord) के बीच का माना जाता है। किसी श्रेष्ठ चित्र में सामंजस्य का रहना आवश्यक माना जाता है। अतः चित्र सृजना में इसका प्रयोग महत्वपूर्ण है।
6. लय (Rhythm) - गति ( movement) ही लय (rhythm) है। जहाँ गति के प्रभाव से मेल होता है वहाँ लय की अनुभूति होती है। भारतीय चित्रण विद्या में लय को चित्र की आकृतियों का प्राण माना है। उसके अभाव में चित्र निर्जीव होता है। एक आकृति के बार-बार आवृति करने से क्रमिक गति बढ़ती प्रतीत होती है और चित्र में क्रियागत स्थिति उत्पन्न होती है। इस प्रकार चित्रकार निश्चित क्रम में आकृतियों की अथवा रंग की पुनरावृत्ति करके व्यवस्थित लय का जन्म दे सकता है।
7. एकता (Unity) - कला सृजन के अधीन चित्र में एकता (unity) का तात्पर्य, सब ही तात्विक अंगों में आपसी सम्बन्ध बनाए रखने से होता हैं। यही कारण है कि चित्र में विभिन्न अव्यवों का सम्पूर्ण रूप से है जो विभिन्न तत्वों के सहयोग से उत्पन्न होता है तो चित्र के सम्पूर्ण प्रभाव में जब एक ही भाव उत्पन्न होता है तो चित्र में एकता मानी जाती है। चित्र में एक आकर्षण केन्द्र स्थापित करके उससे सम्बन्ध जोड़ते हुए ही एकता उत्पन्न की जा सकती है।
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