बी ए - एम ए >> बीए सेमेस्टर-2 चित्रकला - कला के मूल तत्व बीए सेमेस्टर-2 चित्रकला - कला के मूल तत्वसरल प्रश्नोत्तर समूह
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बीए सेमेस्टर-2 चित्रकला - सरल प्रश्नोत्तर
प्रश्न- कला का वर्गीकरण करते हुए उसके विभिन्न पक्षों को समझाइयें।
उत्तर -
(Classification of Arts )
कला के वर्गीकरण तथा विभाजन करने में भी मतभेद है। कुछ तो कला को अविभाज्य
मानते हैं। जिनमे क्रोचे (सौन्दर्यशास्त्रीय) प्रमुख है क्रोंचे का यह मानना है कि - कलाओं में श्रेणी विभाजन तो किया जा सकता है, परन्तु वर्गीकरण नहीं क्योंकि एक कला को दूसरी कला से पृथक नहीं किया जा सकता है।
आधुनिक काल में 'उपयोगिता' और 'सौन्दर्य' के आधार पर कुछ विद्वानों ने इसके दो विभाजन किये हैं।
1. उपयोगी कला एवं
2. ललित कला
"महर्षि पाणिनी" ने इन्हे "चारू", "कारू" के नामों से सम्बोधित किया है, चारू का सम्बन्ध ललित कलाओं से हैं जिसमें सौन्दर्य को ही अभिव्यक्ति का महत्व दिया जाता है। जबकि कारू का सम्बन्ध उपयोगी कला से हैं। जिसमें सुन्दरता के साथ-साथ उपयोगिता का महत्व है।
आधुनिक काल में कलाओं का वर्गीकरण दो बिन्दुओं पर किया गया
1. उपयोगी कला - उपयोगी कला मानव समाज के लिए उपयोगी होती है। उपयोगी कलाओं का सम्बन्ध हमारी भौतिक आवश्यकताओं की पूर्ति से हैं।
2. ललित कला - ललित कला सौन्दर्य प्रधान होती है। ललित कलाओं का सम्बन्ध हमारी 'मानसिक आवश्यकताओं की पूर्ति', "सौन्दर्य बोध' और 'आध्यात्मिक चेतना' से है। अतः आनन्द और सौन्दर्य ग्राह्य होने के कारण ललित कलायें, उपयोगी कलाओं की महत्वमयी है। पाश्चात्य विद्वानों ने ललित कलाओं के अर्न्तगत पाँच प्रकार की कलायें मानी हैं- काव्यकला, संगीत कला, चित्रकला, मूर्तिकला और स्थापत्य कला। इनमें काव्यकला अर्थप्रधान, संगीतकला ध्वनिप्रधान और अन्य कलाये रूप प्रधान है। जिस कला में जितने कम मूर्त और स्थूल पदार्थ प्रयोग में आते हैं, वही सर्वोत्कृष्ट व "स्थापत्य कला" को निम्न श्रेणी में रखा गया है।
मोनियर विलियम्स ने संस्कृत कोष में भारतीय दृष्टिकोण से कला के दो भेद किये हैं- 1. बाह्य कला - बाह्य कला के अर्न्तगत चित्रकला, वास्तुकला, बढ़ईगिरी, सुनारी आदि बाह्य कला के रूप कहलाते हैं।
2. गोपनीय कला या आन्तरिक कला - आलिगंन प्रेम का स्वरूप मनुष्य के अन्दर की चीजों को बाह्य रूप देती है। कला के द्वारा समस्त, जनसमूह आधारित रसास्वादन और आनन्द प्राप्त करता है। कला आनन्द प्रमोद का ही साधन नहीं है। बल्कि जीवन की वह अभिव्यक्ति भी उसका प्रधान अंग है।
1. आचरण विषयक कला (Art of Conduet) - आचरण विषयक कला का उददेश्य सदैव उपदेशात्मक रहा है। कला का मुख्य उद्देश्य सदैव चरित्र रहा है। जो कला चरित्र की ओर समाज को अग्रसर नहीं करती वह कला निरथर्क है। 'सत्यं शिवम् सुन्दरम' में शिवम् का महत्व इस बात में हैं कि उसकी विशालता से समाज की चारित्रिक व्यवस्था ठीक रहती है। आचरण समाज के जीवन का मुख्य अंग है वही समृद्धिशालिता की ओर अग्रसर अद्वितीय है। इसका अतीत गौरवशाली है। गुप्त काल, स्वर्ण युग कहलाता है। इसी कारण चरित्र पर विशेष बल दिया गया है।
2. ललित कला (Fine Art) - ललित कला के अर्न्तगत, संगीत, काव्य, चित्रकला मूर्तिकला स्थापत्यकला का स्थान है। सबसे उत्तम ललित कला में मूर्त रूप कम से कम होता है। संगीत में मूर्त रूप सूक्ष्म होता है। इसी कारण ललित कला सर्वश्रेष्ठ कला है। काव्य में संगीत से अधिक में मूर्त रूप होता है। चित्र में काव्य से अधिक मूर्ति में चित्र से अधिक और स्थापत्य कला मूर्त रूप सबसे अधिक होता है। इसमें लालित्य की पराकाष्ठा होती है। सौन्दर्यात्मक अनुभूति की ललित कला सुन्दर सोपान है। जिस समाज में ललित कला का जितना अधिक मूल्यांकन और भाव होगा वह उतनी ही अधिक शिष्ट और सभ्य सामान कहलायेगी।
3. उदार कला (Liberal Art) - उदार कला के अर्न्तगत व्याकरण तर्क, रेखागाणित संगीत, इतिहास आदि सभी का स्थान है। इसके अर्न्तगत समस्त उदार कलाओं को विषय स्थान प्राप्त करते हैं। कला संकाय के अर्न्तगत कोई ऐसा विषय नहीं है जिसका सम्बन्ध कला से न होकर, प्रत्येक विषय का कला से अन्योन्याश्रित सम्बन्ध है।
अरस्तु के अनुसार कलाओं का निम्न विभाजन किया जा सकता है।
1. अनुकृति के आधार पर-
(i) अनुकृति मूलक (Imitative) - काव्य, नृत्य, नाट्य, संगीत चित्र एवं मूर्ति।
(ii) अनुकृति मूलक (Non Imitative) - वास्तु एवं अन्य उपयोगी कलाए।
2. गति के आधार पर-
गतिशील (Dynamic) - काव्य एवं नाटक, नृत्य एवं संगीत :
स्थिर (Static) - चित्र तथा मूर्तिकला
अरस्तु ने गतिशील कलाओं में लय की व्यंजना शक्ति को बहुत अधिक महत्व दिया था श्रवणेन्द्रिय को ही इसका प्रमुख माध्यम माना था। किन्तु दृष्टि द्वारा लयानुभूति में सहायता मिलने की सम्भावनाएँ भी बतायी थी। अरस्तु की इसी विचारधारा पर आगे चलकर हीगल, बोसाके, काण्ट आदि ने कलाओं के श्रृव्य और दृश्य वर्गीकरण का उल्लेख किया है।
कला के सामान्य भेद, ललित व उपयोगी को मानते हुए ललित कला का विभिन्न आधारों,
पर विभाजन किया जाय जो इस प्रकार है -
1. रूप के आधार पर - इनको दो भागों में बाँटा जा सकता है -
(i) रूपात्मक कला - रूपात्मक या स्थान पर आधारित कला में मूर्ति, चित्र तथा वास्तुकला आती है। इनका स्वरूप देखा जा सकता है।
(ii) गत्यात्मक कला - गत्यात्मक या गति पर आधारित कला देखी नहीं जा सकती इसमें संगीत तथा काव्य आते है। संगीत में तो केवल स्वरों में ही आनन्द की प्राप्त होती है। परन्तु काव्य शब्दों का संगीत द्वारा ही गाकर प्रभाव होता है। कुछ विद्वानों ने इन्ही को अचल और चल ललित कलायें कहा है।
(क) आँख को आनन्द देने वाली ललित कला (दृश्य कलायें Visual; Arts ) - चित्र, मूर्ति स्थापत्य कलाक |
(ख) कान को आनन्द देने वाली ललित कला (श्रृव्य कलायें Auditory Art) - संगीत एवं काव्य कला।
(ग) आँख व कान दोनों को आनन्द देने वाली ललित कला (दृश्य एवं श्रृव्य कलायें Audio Visual Art) - नृत्य एवं नाटक।
3. मूर्तता के आधार - पर इसके निम्न प्रकार हैं-
(i) मूर्त कला - मूर्त रूप में ललित कलाओं में स्थापत्य कला, मूर्तिकला और चित्रकला की गणना है।
(ii) अमूर्त कला - अमूर्त रूप में ललित कलाओं में संगीत और काव्य को स्थान मिला है। क्योंकि इसका कोई मूर्त रूप नहीं होता है। कविता यद्यपि लिखी जाती है परन्तु उसको सुनने में ही आनन्द आता है, उसका कोई मूर्त रूप दृष्टिगोचर नहीं होता है।
4. अनुकरण के आधार पर - इसके निम्न प्रकार है -
(i) अनुकरण पर आधारित - अनुकरण में चित्रकला प्रथम आती है क्योंकि चित्रकार को जो कुछ भी दिखायी देता है उसी अनुकृति की अभिव्यक्ति करता है। परन्तु आजकल आधुनिक चित्रकला में अनुकरण किये बिना भी चित्र रचना होती है। जिसे सूक्ष्म (Abstract) कला कहते है। पर उसमे भी यदि देखा जाये तो आत्मानुभूति की अभिव्यक्ति होती है अनुकरण का दूसरा रूप है जो प्रत्यक्ष है। मूर्तिकला अनुकरण पर आधारित है।
(ii) अनुकरण का आधार न लेने वाली कला - अनुकरण का आधार न लेने वाली कलाओं में वास्तुकला आती हैं गति एवं काव्य कला भी इसी का हिस्सा है।
5. मनोविज्ञान पर आधार पर - इसके निम्न प्रकार है -
(i) अलंकरणात्मक - अलंकरणात्मक कलाओं में श्रृंगार कला है। विभिन्न प्रकार के शृगांर करना जिसमें पत्र रचना आदि इसी के अर्न्तगत है।
(ii) अनुकरणात्मक - अनुकरणात्मक कलाओं में जैसाकि बताया गया हैं कि इसमें चित्रकला तथा मूर्तिकला आती है। मनोवैज्ञानिकों का कहना है कि मनुष्य स्वभाव से ही अनुकरण की प्रवृत्ति रखता है, वह जैसा देखता है उसी प्रकार अपने को ढालने का प्रयत्न करता है। इसी जनमजात स्वभाव के कारण मनुष्य रचना करता है जो देखता है उसी की नकल करता है।...
(iii) आत्माभिव्यजंक - आत्माभिव्यंजन कला विशेष है। इसमें मनुष्य अपने मनोभावों को रखता है। कविता के रूप में, नृत्य में तथा चित्रों के द्वारा भी कलाकार आत्माभिव्यंजन करता है। आधुनिक चित्रकला में आमभिव्यजन यही है।
कान्ट ने कलाकृतियों को ज्ञानेन्द्रियों द्वारा ग्रहण किये जाने वाले पक्ष के आधार की बजाय कर्मेन्द्रियों के आधार पर अर्थात कलाकार द्वारा कल-सृष्टि की दृष्टि से विभाजित किया है -
1. वाणी की कला (Arts of Speech)
2. रूप की कला (Arts of form)
3. सवेदन- क्रीडा प्रधान कला (Arts of Play of Sensation)
वाणी में स्वर और शब्द दोनों का प्रयोग होता है। अतः केवल स्वरों अथवा ध्वनियों पर आधरित होने के कारण संगीत बहुत स्पष्ट नहीं होता है। इसलिए अपने विभाजन में काण्ट ने संगीत को स्थान नहीं दिया है। पर यूनानी विचारको के समय से ही संगीत का महत्व समझा जाता था इसी प्रकार संवेदन क्रीडा में माँसपेशियों के अनुभव भी महत्वपूर्ण माने जाते है।
बोसाकें द्वारा फला का विभाजन -
1. वाणी की कला (Art of Speach) - काव्य कला
2. स्वरों की कला (Art of Tones) - संगीत कला
3. रूप की कला - चित्र मूर्ति वास्तु कला
4. गति की कला - नृत्य कला
कुछ आधुनिक विद्वानों द्वारा कला का वर्गीकरण -
(i) मेजर आर्ट - ललित कलाओं में सौन्दर्य की अभिव्यक्ति से सम्बन्धित है जिससे "सत्यम शिवम सुन्दरम' की अभिव्यक्ति होती है।
(ii) माइनर आर्ट - माइनर आर्ट उपयोगी कला के लिए प्रयुक्त किया जाता है। इसमें कला की उपयोगिता सर्वोपरी है।
हीगल का कला विभाजन
हीगल द्वारा किया गया वर्गीकरण विशेष है उसने कला को विकास के आधार पर रखा है. उसके अनुसार, ललित कला के तीन रूप है
(1) प्रतिकवादी कला - प्रतीकवादी कला से पूर्णता का भाव अभिव्यक्त नहीं हो पाते है। क्योंकि प्रतीकों द्वारा ही कला का निर्माण होता है कलाकार प्रतीकवादी कला में यथार्थ की अभिव्यक्ति न करके कला के प्रतीक अथवा चिन्ह रूप में व्यक्त करते है, चित्र और मूर्ति की रचना प्रतीक के आधार पर होती है कुछ प्रतीक इतने प्रचलित होते है कि उनको लोग यथार्थ स्वीकार करने लगे हैं। प्रतीक रचना में कल्पना का प्रमुख स्थान होता है।
(2) अभिजात्यवादी कला - अभिजात्यवादी कला की रचना करते समय कलाकार आकार और विचार में सामंजस्य बनाता है विचार के अनुरूप ही आकार की रचना होती है। इस प्रकार की कला की अभिव्यक्ति में परम्परा का मुख्य स्थान होता है। देशकाल और कला में सच्ची अभिव्यक्ति शास्त्रीय कला में ही होती है। अभिजात्यवादी कला में मूर्ति और कला का विशेष स्थान होता है।
(3) स्वच्छन्दतावादी कला - स्वच्छन्दतावादी अथवा भावात्मक कला से विचार और भाव अधिक स्पष्ट और व्यक्त होते है। कल्पना की अभिव्यक्ति यद्यपि सभी प्रकार की कलाओं में प्राप्त होती है। तो भी स्वच्छन्दतावादी में कलाकार को स्वतन्त्रभाव के प्रकाशन का सुन्दर अवसर प्राप्त होता है। इसी कारण काव्यकला सर्वोच्च स्वीकार की जाती है इसके बाद संगीत, चित्र, मूर्ति, वास्तु अथवा स्थापत्य कला का स्थान है।
अन्त में यह कहना अनुचित न होगा कि कला वास्तव में अविभाज्य है। जितने भी वर्गीकरण विभिन्न विद्वानों के आधार पर हमने देखे है उनसे बौद्धिक व्यायाम का ही आभास होता है वास्तविक का नहीं। पहले दो प्रकार की कला उपयुक्त लगती की 'चारू' और 'कारू' अर्थात ललित कला और उपयोगी कला। परन्तु जो कला ललित है वह उपयोगी नहीं बन सकती। जैसे - संगीत कला से मनोरंजन होता है परन्तु संगीतज्ञ गाने के लिए रुपये लेता है तो यही उसके लिए उपयोगी कला बन जाती है। इसी प्रकार उपयोगी कला भी ललित कला बन जाती है। इससे यही निष्कर्ष निकलता है कि कला वास्तवअविभाज्य है।
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