बी ए - एम ए >> बीए सेमेस्टर-2 संस्कृत : संस्कृत गद्य साहित्य, अनुवाद एवं संगणक अनुप्रयोग बीए सेमेस्टर-2 संस्कृत : संस्कृत गद्य साहित्य, अनुवाद एवं संगणक अनुप्रयोगसरल प्रश्नोत्तर समूह
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बीए सेमेस्टर-2 संस्कृत - संस्कृत गद्य साहित्य, अनुवाद एवं संगणक अनुप्रयोग - सरल प्रश्नोत्तर
महत्वपूर्ण तथ्य
अम्बिकादत्त व्यास का जन्म चैत्र शुक्ल अष्टमी सं0 1695 को जयपुर में हुआ था।
इनके पिता का नाम दुर्गादत्त था ।
पितामह पं0 राजाराम एवं चाचा / दादा - देवीदत्त थे।
गोत्र - पराशर गोत्रीय यजुर्वेदी / त्रिप्रवर / भीडावंश
जन्म स्थान - राज्य राजस्थान, जिला- जयपुर, ग्राम- रावतजी का धूला', मुहल्ला- -सिलावटी।
मृत्यु - मार्गशीर्ष (अगहन) कृष्णपक्ष त्रयोदशी सोमवार संवत् 1657 (सन् 1600 ई0 )
काशी (वाराणसी) इनकी कर्मस्थली थी ।
इनकी कुल रचनायें लगभग 75 हैं।
शिवराजविजयम् (उपन्यास) सामवतम् (नाटक) एवं रत्नाष्टक तथा कथाकुसुमम् ।
उनकी बिहारी - बिहार (कुण्डलिनी छन्द में) हिन्दी रचना है।
इन्होंने पीयूष प्रवाह नामक पत्रिका का सम्पादन किया।
सुकवि ( भारतेन्दु हरिश्चन्द्र, काशी- कवितावर्धिनी सभा) घटिकाशतक ( ब्रह्मामृतवर्षिणी सभा) शतावधान, भारत रत्न (काशी की महासभा) , अभिनव बाण, आधुनिक बाण, भारत भूषण, महाकवि अम्बिकादत्त व्यास की प्राप्त उपाधियां हैं।
बिहारी बिहार में व्यास जी ने अपना संक्षिप्त जीवन परिचय लिखा है।
मृत्यु के समय व्यास जी गवर्नमेण्ट संस्कृत कॉलेज पटना में प्रोफेसर थे।
लगभग 12 वर्ष की अवस्था में व्यास जी ने धर्म सभा की परीक्षा में पुरस्कार प्राप्त किया।
बिहार में संस्कृत - सञ्जीवनी - समाज की स्थापना की।
पण्डित व्यास जी तीक्ष्ण बुद्धि एवं प्रतिभा के धनी थे, यही कारण था कि वे 10 वर्ष की अवस्था में कविता करने लगे।
व्यास जी ने 'शिवराज विजयम्' 1870 ई0 में लिखा जो काशी से 1609 ई0 में उनकी मृत्यु के बाद प्रकाशित हुआ।
वक्ता और काव्यस्रष्टा के साथ ही चित्रकारिता, अश्वारोहण, संगीत और शतरंज में भी व्यास जी विशेष रुचि रखते थे।
सितार, हारमोनियम, जलतरंग और मृदंग इनके प्रिय वाद्य थे।
व्यास जी संस्कृत भाषा के साथ ही साथ हिन्दी, अंग्रेजी और बंगला भाषा के भी ज्ञाता थे। इन्होंने संस्कृत सीखने में अभिनव प्रणाली का आविष्कार किया।
न्याय, व्याकरण, वेदान्त और दर्शन में इनकी अच्छी गति थी ।
एक घड़ी (24 मिनट) में 100 श्लोकों की रचना करने से व्यास जी को 'घटिकाशतक' की उपाधि दी गयी थी ।
सौ प्रश्नों का एक साथ ही सुनकर उन सभी प्रश्नों का उत्तर उसी क्रम में देने की अद्भुत क्षमता होने से उन्हें 'शतावधान' की उपाधि दी गयी थी।
42 वर्ष की अवस्था में ही व्यास जी संवत् 1657 में अपने पीछे एक नववर्षीय पुत्र, एक कन्या और विधवा पत्नी को असहाय छोड़कर पञ्चतत्व को प्राप्त हो गये।
शिवराज विजय - ऐतिहासिक उपन्यास
शिवराज विजय
1. लेखक-------------अम्बिकादत्त व्यास
2. विधा --------------ऐतिहासिक उपन्यास
3. विभाजन----------तीन विराम, 12 निःश्वास
4. प्रधान रस --------वीर रस
5. उपजीव्य----------इतिहास प्रसिद्ध
6. नायक------------शिवाजी
7. कथानक---------- शिवाजी का जीवन चरित
8. प्रमुख पात्र------------शिवाजी, गौर सिंह, श्याम सिंह, ब्रह्मचारी
गुरू, योगिराज, अफजलखान, शाइस्ताखान, रघुवीर सिंह, यवन युवक, यशवन्त सिंह।
संस्कृत वाङ्मय का प्रथम ऐतिहासिक उपन्यास शिवराज विजयम् है।
व्यासजी ने शिवराज विजय में मुगलकालीन समाज का सुन्दर चित्रण किया है।
प्रमुख सूक्तियाँ-
1. विलक्षणोऽयं भगवान सकलकला कलाप कलनः सकल काननः करालः कालः।
2. कार्यं या साधयेयं देहं वा पातयेयम् ।
3. प्रणम्य एष विश्वेषाम्
4. भवादृशैः न ज्ञायते कालवेगः ।
5. कुलमेवेदृशं राजपुत्रदेशीय क्षत्रियाणाम् ।
6. सत्यं न लक्षितं मया समयवेगः ।
7. विष्णोर्माया भगवती मया संमोहितं जगतु ।
8. सर्वमेतन्माहात्म्यं तस्यैव महाकालस्येति ।
9. विजयतां शिववीरः सिध्यन्तु भवतां मनोरथः ।
10. भगवन् । प्रायो दुर्लभो युष्माष्वदृशाषां साक्षात्कारः ।
शिवराज विजय प्रथमो विरामः
शिवराज विजय का मंगलाचरण “विष्णोर्माया भगवती यया सम्मोहितज्जगत्" से होता है जो 'भागवतपुराण' के दशम स्कन्ध से लिया गया है।
मंगलाचरण में विष्णु की माया को ऐश्वर्यशालिनी बताया गया है, जिसने सम्पूर्ण जगत को मोह में डाल रखा है।
दूसरी पंक्ति में कहा गया है कि दुष्ट हिंसक अपने पाप से मारा गया और सज्जन समत्व भाव के कारण बच गये।
शिवराज विजय का आरम्भ 'अरुण एवं प्रकाशः' अर्थात् प्रातः काल एवं सूर्य भगवान के वर्णन से होता है।
विलम्ब से सोकर उठे गौरसिंह को पुष्प चुनने से 'श्यामबटु' रोकता है और बताता है कि उसने गुरु (ब्रह्मचारी) के सन्ध्योपासना की समस्त सामग्री पहुँचा दी है।
शिवराज विजय का मंगलाचरण 'नमस्कारात्मक' और वस्तु निर्देशात्मक है।
गौर सिंह केले के पत्ते का दोना बनाकर पुष्पों का चुनना प्रारम्भ करता है।
गौर बटु लगभग 16 वर्ष का है। उसका भाई श्यामबटु भी उसी का समवयस्क है ।
गौर बटु शंख के समान कण्ठ वाला, चौड़े ललाट वाला, सुन्दर भुजाओं वाला तथा विशाल नेत्रों वला था ।
उनकी कुटिया केले के पत्तों से घिरे हुए होने के कारण कुञ्ज के सदृश प्रतीत होती थी ?
कुटीर के चारों ओर पुष्प वाटिका थी तथा पूर्व दिशा में एक तालाब था।
कुटिया के दक्षिण में झरनों तथा सुन्दर कन्दराओं से युक्त एक पर्वतखण्ड विद्यमान है। ग
गुरू जी यहाँ सरोवर के तट पर सन्ध्योपासना कर रहे हैं।
सात वर्षीय कन्या को सान्त्वना प्रदान करते हुए गौरवटु ने रात्रि के तीन पहर व्यतीत कर दिये जिसे उसने यवन युवक से बचाया था।
कुटिया के दक्षिण में स्थित एक विशाल कन्दरा थी। उसी में एक महामुनि समाधि में लीन थे।
ग्राम प्रधान तथा ग्रामीणजन बीच-बीच में आकर उनकी आराधना करते थे, प्रणाम करते थे।
उस मुनि को कोई कपिल, कोई लोमश कोई जैगीषव्य तथा दूसरे मार्कण्डेय समझते थे।
उस महामुनि (योगिराज को) को सर्वप्रथम उन दो ब्राह्मण बालकों गौर बटु एवं श्याम बटु के द्वारा शिखर से नीचे उतरते देखा गया।
योगिराज आकर मुनि के द्वारा निर्दिष्ट काठ के आसन (चौकी) पर आरूढ़ हुए और बैठ गये जिस प्रकार सूर्य उदयाचल पर स्थित होकर विराजमान होता है।
ब्रह्मचारी गुरु ने जैसे ही कुछ बोलना चाहा तभी उस बालिका का करुण क्रन्दन सुनायी पड़ा।
योगिराज द्वारा उस कन्या के सम्बन्ध में पूछने पर श्यामबटु को उसे शान्त करने का आदेश देकर ब्रह्मचारी गुरु ने बोलना आरम्भ किया।
सर्वप्रथम उस कन्या का करुण क्रन्दन सुनकर 'ब्रह्मचारी' ने पता लगाने हेतु अपने शिष्यों को भेजा था ।
यवन युवक उस कन्या को उसकी माता के हाथ से छीनकर भागा था, वह उस बालिका को छूरा दिखाकर शान्त करना चाहा ।
अचानक भालू के आ जाने से यवन युवक शाल्मली वृक्ष पर चढ़ गया और कन्या घुणाक्षर न्याय से पलाश वृक्षों के झुरमुट में प्रवेश कर आश्रम की तरफ आयी।
योगिराज के 'विक्रमराज्य' में ऐसा उपद्रव कहने पर ब्रह्मचारी गुरु ने बताया कि विक्रमादित्य के राज्य को बीते तो 'सत्रह सौ वर्ष' हो गये।
ब्रह्मचारी ने बताया कि आज वेद फाड़कर मार्गों में बिखेरे जाते हैं, धर्मशास्त्रों को उछालकर आग में झोंका जाता है।
पुराणों को पीसकर पानी में फेंका जाता है, भाष्य नष्ट करके भाड़ में झोंके जाते हैं।
योगिराज विक्रमादित्य द्वारा शकों को जीते जाने को कल की बात बताई है।
ब्रह्मचारी गुरु योगिराज से बताते हैं कि आपने जिन पुरुषों को देखा था अब उनकी पचासवीं पीढ़ी के पुरुष भी दिखाई नहीं पड़ते।
योगिराज बताते हैं कि वे युधिष्ठिर के समय में समाधि लगाकर विक्रमादित्य के समय उठे तथा विक्रमादित्य के समय समाधि लगाकर इस दुराचारमय समय में उठे।
ब्रह्मचारी गुरु ने बताया कि महमूद गजनवी ने भारत को 12 बार लूटा और सैकड़ों ऊँटों पर रत्नों को लादकर अपने देश ले गया।
उसने गुजरात देश में स्थित 'सोमनाथ मन्दिर' को भी धूल में मिला दिया।
महादेव की मूर्ति पर गदा उठाने पर पुजारियों ने उसे दो करोड़ स्वर्ण मुद्राएं, देकर छुड़ाना चाहा परन्तु उसने यह कहकर कि 'वह मूर्ति बेचता नहीं किन्तु तोड़ता है।' उसने मूर्ति को तोड़ दिया।
गदा के प्रहार से अनेक 'अरब पद्म मुद्रा' के मूल्य के रत्न बटोर उनको लेकर ऊंटों की पीठ पर लादकर 'सिन्धु' नदी उतर कर महमूद गजनवी 'गजिनी' वापस चला गया।
सम्वत् 1807 में 'गोर देश' निवासी शहाबुद्दीन नामक यवन पहले गजनी देश फिर भारत पर आक्रमण किया और 1250 में दिल्ली को अश्वारोहियों से घेर लिया।
उसने वाराणसी में भी हड्डियों के अनेक पहाड़ बना दिये वाराणसी तक उसने अकण्टक राज्य किया।
औरगंजेब ने शाइस्ता खाँ को दक्षिण के शासक के रूप में भेजा ।
शिवाजी पूनानगर के निकट 'सिंह दुर्ग' में रह रहे थे ।
'या कार्य सिद्ध होगा या शरीर नष्ट होगा 'यह शिवाजी की प्रतिज्ञा थी ?
योगिराज ने 'वीर शिवाजी' विजयी हो और आप के मनोरथ सिद्ध हो' आशीर्वाद दिया ।
गौर सिंह अफजल के तीन घोड़ों और घुड़सवारों को मारकर पाँच ब्राह्मणों को छुड़ाकर लाया।
गौर सिंह ने देखा कि गृहवाटिका के केलों के झुरमुट में दो या तीन पेड़ अधिक काँप रहे हैं। गौर सिंह ने कुटीर की बल्ली में तलवार छिपा रखी थी।
छिपे हुए यवन युवक की उम्र लगभग 20 वर्ष थी।
गौर सिंह ने यवन युवक को मारकर उसके कपड़ों में से एक पत्र निकालकर गणों सहित कुटिया में प्रवेश किया।
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