बी ए - एम ए >> बीए सेमेस्टर-2 प्राचीन भारतीय इतिहात एवं संस्कृति बीए सेमेस्टर-2 प्राचीन भारतीय इतिहात एवं संस्कृतिसरल प्रश्नोत्तर समूह
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बीए सेमेस्टर-2 प्राचीन भारतीय इतिहात एवं संस्कृति - सरल प्रश्नोत्तर
प्रश्न- गुप्त शासन प्रणाली पर एक विस्तृत लेख लिखिए।
अथवा
गुप्त कालीन शासन व्यवस्था के विषय में आप क्या जानते हैं?
सम्बन्धित लघु उत्तरीय प्रश्न
1. गुप्त काल में अमात्य तथा मन्त्री का कार्य बताइये।
2. गुप्त काल की जिला तथा नगर शासन व्यवस्था पर प्रकाश डालिए।
3. गुप्तयुगीन सैनिक संगठन पर टिप्पणी लिखिए।
4. गुप्तयुगीन भूमि एवं राजस्व व्यवस्था पर एक लेख लिखिए।
5. गुप्त काल की प्रान्तीय शासन व्यवस्था पर प्रकाश डालिए।
6. गुप्त शासन पर संक्षिप्त टिप्पणी लिखिए।
अथवा
गुप्त प्रशासन पर संक्षेप में लिखिए।
उत्तर-
गुप्तकालीन शासन व्यवस्था
गुप्त काल के सम्राटों ने अपनी अनेक विजयों के उपरान्त एक विशाल साम्राज्य की स्थापना की। यह साम्राज्य अपने उत्कर्ष काल में उत्तर में हिमालय से दक्षिण में विन्ध्य पर्वत तक तथा पूर्व में बंगाल की खाड़ी से लेकर पश्चिम में सौराष्ट्र तक फैला था। इस विशाल साम्राज्य की राजधानी पाटलिपुत्र थी।
सम्राट - गुप्त साम्राज्य की शासन व्यवस्था राजतन्त्रात्मक थी। इस वंश के शासक अपनी दैवी उत्पत्ति में विश्वास करते थे तथा 'महाराजाधिराज परमभट्टारक, 'एकराट्', 'परमेश्वर' जैसी उपाधियाँ धारण करते थे। सम्राट प्रशासन का मुख्य स्रोत होता था जिसके अधिकार और शक्तियाँ असीमित थीं। वह कार्यपालिका का सर्वोच्च अधिकारी, न्याय का प्रधान न्यायाधीश एवं सेना का सर्वोच्च सेनापति होता था। युद्ध के समय वह स्वयं सेना का संचालन करता था। गुप्त युग में रानियों का भी अत्यधिक महत्व था, जो अपने पति के साथ मिलकर शासन कार्य देखती थीं। सम्राट के अधीन अनेक छोटे-छोटे सामन्त हुआ करते थे जो अपने-अपने क्षेत्रों में स्वतन्त्र रूप से शासन करते थे। ये सामन्त शासक 'महाराज' की उपाधि धारणं करते थे।
अमात्य तथा मन्त्री - अमात्य तथा मन्त्रियों का कार्य सम्राट को शासन-कार्य में सहायता देना था। अमात्य से तात्पर्य प्रशासनिक अधिकारियों से था तथा उन्हीं में से योग्यता के आधार पर मन्त्री नियुक्त किये जाते थे। सामान्यतः राजा के बड़े पुत्र को उत्तराधिकारी चुना जाता था। परन्तु कभी कभी दूसरे योग्य पुत्रों को प्रान्तीय शासकों के रूप में नियुक्त करने की प्रथा थी। गुप्त प्रशासन का पूरा उत्तरदायित्वं युवराज को संभालना होता था।
केन्द्रीय अधिकारी - गुप्तकाल में जो अभिलेख प्राप्त हुये हैं उनमें निम्नलिखित पदाधिकारियों के नाम मिलते हैं-
1. प्रतिहार एवं महाप्रतिहार - ये राजकीय दरबार के पदाधिकारी होते थे जो प्रशासन में भाग नहीं लेते थे। इनका प्रमुख कार्य सम्राट से मिलने के लिए आये हुए लोगों को अनुमति-पत्र देना होता था।
2. महासेनापति - महासेनापति सेना का सर्वोच्च अधिकारी होता था।
3. महासान्धिविग्रहिक - यह एक महत्वपूर्ण पदाधिकारी होता था। इसका कार्य यथासमय युद्ध एवं शान्ति को बनाये रखना था।
4. दण्डपाशिक - यह पुलिस विभाग का प्रधान अधिकारी होता था जो आजकल के पुलिस अधीक्षक के समान कार्य करता था।
5. विनयस्थितिस्थापक - यह धर्म सम्बन्धी मामलों का प्रधान अधिकारी होता था, जो सार्वजनिक मन्दिरों के प्रबन्ध की देख-रेख करता था एवं लोगों के नैतिक आचरण पर दृष्टि रखता था।
6. कुमारामात्य - कुमारामात्य उच्च पदाधिकारियों का एक विशिष्ट वर्ग था जो आधुनिक आई. ए. एस. वर्ग के पदाधिकारियों की भाँति हेता था।
प्रान्तीय शासन - प्रशासन की सुविधा के लिए विशाल गुप्त साम्राज्य अनेक प्रान्तों में विभाजित किया गया था। प्रान्त को देश, अवनी अथवा भुक्ति कहा जाता था। गुप्त प्रशासन के प्रमुख प्रान्त सुराष्ट्र, पश्चिमी मालवा, पूर्वी मालवा, तीरभुक्ति, पुण्ड्रवर्धन, मगध आदि थे। भुक्ति के शासक को 'उपरिक कहा जाता था। सीमान्त प्रदेशों के शासक 'गोप्ता' कहलाते थे। उपरिक के पद पर प्रायः राजकुमार या राजकुल से सम्बन्धित व्यक्तियों की ही नियुक्ति की जाती थी परन्तु कभी कभी अन्य योग्य व्यक्तियों को भी यह पद दे दिया जाता था। इनकी नियुक्ति प्रायः पाँच वर्षों के लिए की जाती थी।
जिला तथा नगर प्रशासन - 'भुक्ति' का विभाजन अनेक जिलों में किया गया था। जिला को 'विषय' कहा गया है जिसका 'विषयपति' नामक अधिकारी प्रधान अधिकारी होता था। विषयपति की नियुक्ति सम्बन्धित प्रान्त के राज्यपाल द्वारा की जाती थी, परन्तु कभी-कभी सम्राट भी उनकी नियुक्ति करता था। विषयपति एक समिति की सहायता से जिले का शासन चलाता था। इस समिति के निम्नलिखित सदस्य होते थे-
1. नगर श्रेष्ठि- जो नगर के महाजनों का प्रमुख व्यक्ति होता था।
2. सार्थवाह - जो व्यवसायियों का प्रधान हुआ करता था।
3. प्रथम कुलिक जो प्रधान शिल्पी होता था।
4. प्रथम कायस्थ - जिसे मुख्य लेखक कहते थे।
विषय समिति के सदस्य 'विषय महत्तर' कहे जाते थे।
ग्राम शासन - ग्राम शासन की सबसे छोटी इकाई होता था जिसका प्रशासन ग्राम सभा द्वारा चलाया जाता था। इस सभा को मध्य भारत में 'पच्चमण्डली' तथा बिहार में 'ग्राम जनपद' के नाम से जाना जाता था। ग्राम सभा का कार्य गाँवों में सुरक्षा की व्यवस्था करना, निर्माण कार्य करना तथा राजस्व एकत्रित कर इसे राजकोष में जमा करना था।
न्याय प्रशासन - गुप्त युग में न्याय व्यवस्था अत्यधिक विकसित थी। सम्राट देश का सर्वोच्च न्यायाधीश होता था। वह सभी प्रकार के मामलों की सुनवाई करता था। सम्राट के अतिरिक्त एक मुख्य न्यायाधीश तथा अन्य अनेक न्यायाधीश होते थे जो साम्राज्य के विभिन्न भागों में स्थिति अनेक न्यायालयों में न्याय सम्बन्धी कार्यों को देखते थे। ग्रामों में न्याय का कार्य ग्राम पंचायतें किया करती थीं। पेशेवर वकील गुप्त काल में नहीं थे। गुप्तकाल के न्यायाधीशों को महादण्डनायक, दण्डनायक, सर्वदण्डनायक आदि कहा जाता था।
इस युग में दण्ड विधान अत्यन्त कोमल थे। मृत्युदण्ड नहीं दिया जाता था और न ही शारीरिक यातनायें ही मिलती थीं। इसके विपरीत सामान्यतः आर्थिक जुर्माने लिये जाते थे। राजद्रोह जैसा अपराध करने वाले व्यक्ति का दाहिना हाथ काट लिया जाता था।
सैनिक संगठन - गुप्त शासकों की सेना सुसंगठित एवं विशाल होती थी। सेना के सर्वोच्च अधिकारी को 'महाबलाधिकृत' कहते थे। गुप्तवंशी सम्राट स्वयं कुशल योद्धा होते थे तथा व्यक्तिगत रूप से युद्धों में भाग लेते थे व सेना का संचालन करते थे।
भूमि राजस्व - भूमि पर सम्राट का स्वामित्व होता था। राजकीय भूमि के अतिरिक्त ऐसी भी भूमि थी जिन पर किसानों का स्वामित्व होता था। मन्दिरों तथा ब्राह्मणों को जो भूमि दान में दी जाती थी उसे 'अग्रहार' कहा जाता था। इस प्रकार की भूमि करमुक्त होती थी। गुप्त राजाओं ने भूमि के विकास पर विशेष ध्यान दिया था। सिंचाई की उत्तम व्यवस्था थी। इसके लिए गुप्तकाल के शासकों ने कुएँ, तालाब, नहरों आदि का निर्माण करवाया था।
जो लोग राजकीय भूमि पर कृषि करते थे उन्हें अपनी उपज का एक भाग राजा को देना पड़ता था जो सामान्यतः उपज का छठवाँ भाग होता था। भूमिकर नकद अथवा अन्न दान के रूपों में दिया जा सकता था। इसके अतिरिक्त राजस्व की दूसरी प्रमुख स्रोत चुंगी थी जो नगर में आने वाली वस्तुओं के ऊपर लगायी जाती थी।
इस प्रकार गुप्त शासन व्यवस्था के विभिन्न पहलुओं पर विचार करने के बाद यह स्पष्ट हो जाता है कि गुप्तयुगीन शासन व्यवस्था अत्यन्त उदार एवं सुसंगठित थी। राज्य में पूर्ण शान्ति व्यवस्था का वातावरण था। गुप्तचरों एवं पुलिस अधिकारियों के आचरण से प्रजा खुश थी। गुप्त युग की शान्ति एवं समृद्धि ने संस्कृति के सभी क्षेत्रों को समुचित विकास का अवसर प्रदान किया था।
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- प्रश्न- हर्ष का धर्म पर टिप्पणी कीजिये।
- प्रश्न- पुलकेशिन द्वितीय पर टिप्पणी कीजिये।
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- प्रश्न- प्रभाकर वर्धन पर संक्षिप्त टिप्पणी लिखिये।
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- उत्तरमाला
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- उत्तरमाला