1. जैविक रूप से स्त्रियों का लैंगिक विकास - शारीरिक रूप से स्त्रियों पुरुषों की अपेक्षा कम सक्षम तथा कमजोर होती हैं। साथ ही उनकी शारीरिक लचीलापन तथा बजन भी पुरुषों की अपेक्षा कम होता है। इन सबके अतिरिक्त उन्हें मातृत्व सम्बन्धी विशेषताएँ भी प्राप्त होती हैं। अतः जैविक रूप से स्त्रियों पुरुषों की अपेक्षा कम सक्षम किन्तु अधिक दायित्व निर्वाह करने वाली होती हैं। यदि इस रूप में देखा जाए तो स्त्रियों का लैंगिक विकास अधिक कठिन, किन्तु पिछली कुछ दशकों में भारतीय परिवेश में देखा जाए तो इस विषय में कुछ सुधार हुआ है तथा उन्हें पढ़ाई में स्थान दिया जा रहा है, साथ ही अनेक पदों पर जो पहले पुरुषों का ही अधिकार हुआ करता था, अब स्त्रियों के लिए भी खोल दिया गया है।
2. सामाजिक रूप से स्त्रियों का लैंगिक विकास - सामाजिक रूप से स्त्रियाँ पुरुषों की अपेक्षा अधिक सामाजिक सरोकार रखने वाली होती हैं। अपने मातृत्व काल से ही स्त्री का बालक के साथ घनिष्ठ सम्बन्ध स्थापित हो जाता है जो जीवनपर्यंत गतिशील रहता है। एक स्त्री जन्म से मृत्यु तक विभिन्न सामाजिक तात्विक सम्बन्धों को निभाने में सहज रूप से पुरुषों की अपेक्षा अधिक आगे हैं। आधुनिक समय में स्त्रियों का स्थान स्त्रियों में कुछ जटिलता भी आयी है। विशिष्ट रूप से देखा जाए, तो स्त्री अपने सामाजिक कार्यों को अपनी इस स्थिति के निवारण के लिए अधिक परिवर्तित करना होता है, अथवा इससे निरंतर स्थिति अत्यन्त जटिल हो जाती है।
3. जैविक रूप से पुरुषों का लैंगिक विकास - पुरुष शारीरिक रूप से महिलाओं से अधिक समर्थ होते हैं, जिससे परिपूर्णात्मक उनकी प्रवृत्ति स्त्रियों की अपेक्षा उच्च रही। आरम्भ से ही पुरुषों में घर से बाहर तात्विक विधियाँ संचालित होती हैं तथा साथ ही इन्हें सैन्य अभियानों में भी भाग लेना होता था। भारतीय परिवेश में कुछ दशकों पूर्व तक स्त्री मुख्यतः घर में अपने कार्य करती थी, जबकि पुरुष ऊपर बताए कार्य करते थे। किंतु वर्तमान में स्थितियाँ बदल रही हैं तथा अब लैंगिक रूप से कोई ऐसा कार्य नहीं है जो केवल पुरुषों के लिए आरक्षित हो।
4. सामाजिक रूप से पुरुषों का लैंगिक विकास - जहाँ एक ओर जैविक रूप से महिलाएँ अधिक समर्थ होती हैं, तो वहीं सामाजिक तथा सांस्कृतिक रूप से महिलाओं से न्यून स्थिति में होते हैं। भावनात्मक रूप से महिलाएँ पुरुषों की अपेक्षा अपने परिवार तथा समाज के प्रति अधिक संवेदनशील तथा कर्तव्यबद्ध होती हैं, यह व्यवस्था आज भी गतिशील है। किंतु ऐसा भी नहीं है कि एक सामाजिक परिस्थिति है। वर्तमान समय में स्पष्ट देखने में आया है कि शहरों में संयुक्त परिवार बिखरते हो रहे हैं तथा एकल परिवार अस्तित्व में आ गए हैं। ऐसी स्थितियाँ सामाजिक रूप से पुरुषों के लिए अधिक प्रतिष्ठा हैं, जो कि महिलाओं के क्योंकि पति-पत्नी दोनों आजीविका के लिए घर से बाहर जाते हैं तो दोनों के सामाजिक दायित्व समान हो जाते हैं। इस प्रकार लैंगिक विकास का सर्वमान्य अथवा सार्वभौमिक सिद्धांत की स्थिति में बनना अत्यंत कठिन है।
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