बी एड - एम एड >> बी.एड. सेमेस्टर-1 प्रश्नपत्र- IV-C - लिंग, विद्यालय एवं समाज बी.एड. सेमेस्टर-1 प्रश्नपत्र- IV-C - लिंग, विद्यालय एवं समाजसरल प्रश्नोत्तर समूह
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बी.एड. सेमेस्टर-1 प्रश्नपत्र- IV-C - लिंग, विद्यालय एवं समाज
अध्याय 2 - लिंग एवं लैंगिकता
[Sex and Sexuality]
प्रश्न- लिंग की सामाजिक व्याख्या कीजिए।
लघु उत्तरीय प्रश्न
- वे कौन-से तरीके हैं जिनमें समाजीकरण की प्रक्रियाएँ बच्चों में लैंगिक विशिष्टता के विकास में योगदान देती हैं?
- लिंगीकरण क्या है?
उत्तर-
वास्तव में यह कहना कठिन है कि लिंग किस हद तक स्वाभाविक या प्राकृतिक है और किस हद तक यह सामाजिक रूप से निर्मित है। क्योंकि जैसे ही एक बच्चा जन्म लेता है, परिवार और समाज बच्चे को एक लड़के या लड़की के रूप में समाजीकरण करना प्रारम्भ कर देते हैं। भारत के अधिकांश क्षेत्रों में पुत्र के जन्म को उत्सव के रूप में मनाया जाता है, जबकि पुत्री के जन्म पर अपेक्षाकृत समाज में असमानता देखी जाती है।
यह समझना बहुत आवश्यक है कि पुरुष और महिला में समाज में जो अलग-अलग पद/प्रतिष्ठा है, वास्तव में वह सामाजिक तथा सांस्कृतिक रूप से निर्धारित होती है, यह मानव निर्मित है, प्राकृतिक नहीं। समाज कुछ रूढ़ी-वादी मान्यताओं द्वारा संचालित है, जिनमें स्त्रियों की भूमिका परिवार तक सीमित रखी जाती है और महिलाओं को पुरुषों से तुलनात्मक रूप से छोटा समझा जाता रहा है। लड़कियों के पास कम अधिकार होते हैं, कम संसाधन होते हैं, पुरुषों की अपेक्षा अधिक समय तक कार्य करती हैं परंतु उनके कार्य का कम मूल्य आँका जाता है और उन्हें मजदूरी/दैनिक वेतन भी कम मिलता है। वे पुरुष और समाज की हिंसा का शिकार होती हैं और सामाजिक, आर्थिक तथा राजनीतिक संस्थाओं में उनकी निर्णय शक्ति बहुत कम होती है।
वेशभूषा - अधिकांश समाजों में लड़कियों और लड़के, महिलाएँ तथा पुरुष अलग-अलग प्रकार की वेशभूषा पहनते हैं। कुछ स्थानों पर यह अन्तर बहुत मामूली हो सकता है, परंतु स्त्रियों पर बहुत बड़ा प्रभाव पड़ सकता है। कुछ समाजों में महिलाओं से सिर से पैर तक अपने समस्त शरीर को ढकने का प्रचलन है जिसमें उनका चेहरा भी सम्मिलित होता है। पहनने के तरीके से उनकी गतिशीलता, स्वतंत्रता का भाव तथा सम्मान प्रभावित हो सकता है। कुल मिलाकर, यह परम्परा या सारे शरीर को ढकने की प्रवृत्ति से लड़कियों और महिलाओं की स्वतंत्रता सीमित हो सकती है।
गुण - महिलाओं से यह अपेक्षा है कि उनमें भक्ति, शालीनता, पोषण करना, आज्ञाकारिता आदि गुण हों तथा पुरुषों में मजबूती, आत्मविश्वास, स्पर्धात्मकता तथा तर्कसंगतता जैसे गुण हों।
भूमिकाएँ तथा उत्तरदायित्व - पुरुषों को परिवार का मुखिया, रोज़ी-रोटी कमाने वाला, सम्पत्ति का स्वामी तथा प्रबंधक तथा राजनीति, धर्म, व्यापार तथा व्यवसायों में सक्रिय समझा जाता है। दूसरी ओर, महिलाओं से अपेक्षा है कि वे बच्चे उत्पन्न करेंगी, उनकी देखभाल करेगी, बीमारों और वृद्ध-जनों की सेवा करेगी, घर का काम करेगी। इसलिए इन कार्यों को करने के लिए उन्हें प्रशिक्षित भी किया जाता है।
समाजीकरण वह पोषण सम्बन्धी क्रिया होती है जिससे कि वे अपने समाज के योग्य सदस्य के रूप में विकसित हो सकें। समाजीकरण किसी भी परिवार या समाज में सदैव रूप से चलने वाली प्रक्रिया है। जैसे- ही कोई बच्चा जन्म लेता है, उसका लिंग निर्धारित हो जाता है।
समाजीकरण वह विविध प्रक्रिया है, जिससे उनकी लैंगिक भूमिकाएँ सिखाई जाती हैं। इसे लिंगीकरण (Gendering) भी कहा जाता है। विभिन्न सामाजिक विधियों के द्वारा बच्चों को सिखाया जाता है और उनके व्यवहार का, अभिवृत्तियों का, तथा भूमिकाओं को पुरूषोचित तथा स्त्रीचित रूप में आंतरिकरण कराया जाता है।
रूठहार्टली के अनुसार समाजीकरण चार प्रक्रियाओं के द्वारा घटित होता है, जो इस प्रकार हैं— परिचालन/व्यवहार कौशल, सारणीबद्ध करना (canalization), भाषा का प्रयोग और सक्रियता प्रभाव (activity exposure)। परिचालन वह तरीका है जिससे आप बच्चे के साथ व्यवहार करते हैं। यह देखा गया है कि लड़कों के मनोबल (शक्तिशाली), स्वायत्त और आरम्भ से ही जोखिम लेने वाला समझते हुए उससे व्यवहार किया जाता है। कुछ संस्कृतियों में माँ बच्चे के बालों को, उसकी वेशभूषा को एक विशिष्ट स्त्रैणात्मक रूप देती हैं और वह बताती हैं कि लड़के सुंदर लगते हैं। लड़कियों तथा लड़कों के आत्मबोध के रूप में ये वर्ष बाल्यकाल के सार्थक अनुभव बहुत महत्वपूर्ण होते हैं।
दूसरी प्रक्रिया सारणीबद्ध करना में लड़कों और लड़कियों के ध्यान को वस्तुओं और चीज़ों के पक्षों की ओर निर्देशित करना सम्मिलित होता है। जैसे लड़कियों को खेलने के लिए गुड़िया देना, उन्हें बर्तन देना, तथा लड़कों को खेलने के लिए बंदूक देना, कार देना तथा हवाई जहाज़ देना, इत्यादि। दूसरी ओर लड़कों को विद्यालय में भेज दिया जाता है, घर से बाहर काम करने के लिए कहा जाता है। इस प्रकार के पक्षपाती व्यवहार के माध्यम से लड़के और लड़कियों की रूचियाँ अलग-अलग रूप में सारणीबद्ध (canalized) हो जाती हैं और वे अलग-अलग योग्यताएँ, अभिवृत्तियाँ, आकांक्षाएँ तथा स्वप्न विकसित करते हैं।
लड़के और लड़कियों के साथ प्रयोग की जाने वाली भाषा भी भिन्न होती है। लड़कियों को कहेंगे, "अरे वाह, तुम कितनी सुंदर लगती हो", और यदि लड़कों से तो कहेंगे, "तुम कितने प्रभावशाली हो।" आज़ाद स्त्रैणता की शारीरिक अभिव्यक्ति यह दिखाती है कि टिप्पणियाँ लड़के और लड़कियों की पुरूषत्व और स्त्रीत्व की आत्मधारणा का निर्माण होती है। बच्चे अपने आप को नर या नारी के रूप में सोचने लगते हैं, और अन्य नरों या नारियों के साथ अपना-अपना तालमेल स्थापित करते हैं।अंतिम प्रक्रिया सक्रियता प्रभाव (activity exposure) है। लड़के और लड़कियाँ दोनों बचपन से ही परंपरागत पुरुषोचित तथा स्त्रीचित क्रियाकलाप से प्रभावित होते हैं। लड़कियों को कहा जाता है कि उन्हें अपनी माँ के घरेलू कामकाज में सहायता करनी चाहिए, और लड़के अपने पिता के साथ बाहर जाते हैं। ऐसे समुदाय जहाँ दोनों लिंगों को पृथक्करण किया जाता है, लड़के और लड़कियाँ अलग-अलग स्थान पर रहते हैं और उन्हें बिल्कुल विभिन्न प्रकार के क्रियाकलाप करने पड़ते हैं। इन प्रक्रियाओं के माध्यम से जेंडर पुरुषोचित्ता तथा स्त्रीत्विता के अर्थ को ग्रहण कर पाते हैं और इन अर्थों का अवचेतनरूप में लगभग स्वतः रूप से हो जाता है।