बी एड - एम एड >> बी.एड. सेमेस्टर-1 प्रश्नपत्र- IV-B - मूल्य एवं शान्ति शिक्षा बी.एड. सेमेस्टर-1 प्रश्नपत्र- IV-B - मूल्य एवं शान्ति शिक्षासरल प्रश्नोत्तर समूह
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बी.एड. सेमेस्टर-1 प्रश्नपत्र- IV-B - मूल्य एवं शान्ति शिक्षा
प्रश्न- अंतर्राष्ट्रीय संगठन की प्रासंगिकता की विवेचना कीजिए।
उत्तर-
अंतर्राष्ट्रीय संगठन बदलते आधुनिक विश्व की एक सोच है। संगठन से एक नए विश्व का प्रारम्भ हुआ है। अंतर्राष्ट्रीय संगठन के द्वारा विश्व के राष्ट्र या संगठन की प्रतिपत्तियों से संबंध जोड़ने में मदद मिलती है। संगठन के चार्टर पर हस्ताक्षर कर देने के बाद वह अंतर्राष्ट्रीय मानकों का पालन करता है। चूँकि अंतर्राष्ट्रीय सहयोग व्यक्ति मानव जीवन का मूल मानदंड है। चूँकि अंतर्राष्ट्रीय सहयोग एवं शांति मानव के जीवन का एक मूलभूत मानदंड है। अतः शांति मनुष्य के सकारात्मक पहलू प्रेम, सहानुभूति, सहयोग आदि का प्रतिनिधित्व करती है। इसी दोनों के बीच मनुष्य अपने जीवन को जीने की कल्पना करता है। विश्वाशारीय विस्तार ह्यूगो के अनुसार - “एक दिन ऐसा आएगा जब युद्ध-भूमि सिर्फ थिएटर के लिए खुले बाजार एवं नए विचारों के प्रति खुले दिमाग में ही रह जाएगा। एक दिन ऐसा आएगा जब गोली एवं बम का स्थान मतदान एवं राष्ट्रों के व्यापक अधिकारों को मिलेंगे।” उनकी संगठनात्मक नोटिस एवं पंचायती फैसलों द्वारा निर्णय लिए जाएँगे। उसका कड़ा महत्व होगा, जो संघर्ष का इंजनियस हो, हाइड एन्ड जमीनें हो और विश्वास-घात के प्रारंभ में हो। एक दिन आएगा जब लोगों को सार्वजानिक अनुशासन में यंत्रणा के रूप में लोगों को दिखाया जाएगा एवं लोग आचरण करेंगे कि आखिर यह सभ्य जाति क्या है?
अंतर्राष्ट्रीय संगठन एवं संप्रभुता - समाजशास्त्र में जितना अंतर्राष्ट्रीय राजनीति में उतना ही विवादास्पद ‘मुद्दा’ रहा है। वर्तमान समय में यह अंतर्राष्ट्रीय राजनीति में यह राज्य का आवश्यक तत्वों में से एक माना जाता है। संप्रभुता के बिना राज्य के अस्तित्व में कोई स्थान नहीं है। संप्रभुता के आधुनिक सिद्धांत के जन्मदाता 16वीं शताब्दी के फ्रांसीसी विचारक बोदिन थे। जिन्होंने अपनी पुस्तक “सिक्स लिवर्स दे ला रिपब्लिक” में संप्रभुता की परिभाषा देते हुए कहा था - “संप्रभुता नागरिकों एवं प्रजा पर राज्य का सर्वोच्च अधिकार है, जो कानून से बंधा नहीं होता।” इस मतानुसार संप्रभुता का मुख्य कार्य विधि-निर्माण है, संप्रभु विधि का निर्माता है, किंतु वह कानून नहीं है और न ही कानून से बंधा है। संप्रभु प्राकृतिक एवं नैतिक विधि से ऊपर नहीं है, किंतु उसने इन परिस्थितियों के व्यावहारिक प्रयोग के विषय में कोई संकल्प नहीं किया। सामान्यतः इसी अर्थ में ह्यूगो ग्रोटियस (Hugo Grotius) ने संप्रभु शब्द का प्रयोग किया, किंतु उस समय यह राज्य बादशाह नियंत्रण से स्वतंत्रता के साथ-साथ राज्यों में संधिवादिता के तत्व को भी सम्मिलित करता था। ह्यूगो ग्रोटियस ने ही संप्रभु समानता के सिद्धांत पर बल दिया जिसके अनुसार प्रत्येक संप्रभु स्वतंत्र रहता है और अपनी इच्छानुसार दूसरे देशों के साथ संबंध स्थापित कर सकता है। वह अन्य बाह्य हस्तक्षेप से बिल्कुल स्वतंत्र होता है। इतना ही नहीं ह्यूगो ग्रोटियस ने संप्रभुता में कुछ बाधा लगाई जो सामान्य अंतर्राष्ट्रीय विधि पर आधारित है। ह्यूगो ग्रोटियस की संप्रभुता एवं संधिवादिता की संकल्पना ने सर्वप्रथम अपनी श्रेष्ठता अभिव्यक्ति, वेस्टफालिया की संधि (1648 ई.) में प्राप्त की।
संप्रभुता के विभिन्न रूप - प्रारंभ में अंतर्राष्ट्रीय राजनीति में संप्रभु राज्य का पर्याय थी लेकिन बाद में यह जनता में विलीन हुई तथा आगे चलकर यह राज्य तथा सरकारों में मिलती रही। इन सब परिवर्तनों बावजूद संप्रभुता की आवश्यकता विश्वास आज भी कायम है। आज भी हम राज्य के अनुरूप जब संप्रभु राज्य कहते हैं तो हमारे कहने का आशय यह होता है कि कानूनीः उस राज्य के कार्यों पर बाह्य सत्ता का नियंत्रण नहीं है। संप्रभुता के दो पक्ष हैं - आंतरिक एवं बाह्य। पहले पक्ष के आधार पर यह राज्य को पूर्ण शक्ति प्रदान करता है तथा बाह्य पक्ष इसे स्वतंत्र बनाती है। पहले यह माना जाता था कि संप्रभु राज्य इच्छानुसार अधिकार कर सकते हैं, किंतु बाद में यह भावना पूर्णतः अस्वीकार हो गई।
राज्य-राज्यों की समानता के सिद्धांत को अमेरिकी सर्वोच्च न्यायालय के भूतपूर्व मुख्य न्यायाधीश मार्शल ने अपने संक्षिप्त शब्दों में इस तरह व्यक्त किया था - “राष्ट्रों की पूर्ण समानता से अधिक कानूनीतः का कोई नियम हेमायम नहीं है। ऋण एवं वित्त का अधिकतम समान है। इस समानता से ही यह तय है कि किन्तु वे भी कभी भी राज्य के असीमित अधिकारों में हस्तक्षेप नहीं कर सकते।” अन्य कई मुकदमों, जैसे फ्रांसीसी जहाज ‘दि तुस्सर’ ‘कोसियास’ आदि के मामले, में संप्रभु समानता के सिद्धांत का समर्थन किया गया। इस सिद्धांत को संयुक्त राष्ट्र में भी सदस्य राज्यों की संप्रभु समानता की उद्घोषणा द्वारा स्वीकृत किया गया।
राष्ट्रिय एवं अंतर्राष्ट्रीय संगठन - 18वीं शताब्दी के प्रारंभ में ही राष्ट्रीय राज्यों का उदय हुआ। संयुक्त राष्ट्रों की व्यवस्था में मौलिक एवं क्रांतिकारी परिवर्तन था। अब संप्रभु राज्यों के स्थान पर संयुक्त राष्ट्रीय राज्यों का उदय हुआ। इस परिवर्तन के परिणामस्वरूप एक राष्ट्र से अपने को विश्व समझने लगा। परंतु वर्तमान समय में राष्ट्रीय राज्य अपने राष्ट्रीय हित को विस्तारित समझने के लिए अंतर्राष्ट्रीय संगठनों का भविष्य उज्जवल मानते पड़े लगते हैं।
एक राज्य का दूसरे राज्य पर निर्भरता - वर्तमान समय में एक राज्य की दूसरे राज्य पर निर्भरता अंतर्राष्ट्रीय स्तर पर अत्यंत ही महत्वपूर्ण है। नवीन में मान्यता यही बन चुकी है कि राष्ट्र-राज्यों को अंतर्राष्ट्रीय संगठन बनाने के लिए प्रेरित होते हैं। इन्टरन्याशनल का अभाव राज्यों को मजबूर करता है कि वे अपने राष्ट्रहित के लिए ही नहीं अपितु अन्य राष्ट्रों के सहयोग में रहें। किसी भी राष्ट्र की उन्नति किसी अन्य राष्ट्र से संबंधित हो सकती है। इस निर्भरता के पीछे सबसे प्रमुख पहलू आर्थिक निर्भरता का ही रहा है। आज के युग में कोई राष्ट्र आर्थिक दृष्टिकोण से स्वालंबी नहीं है। उसे अपने संतान जीवन निर्वाह की वस्तुओं एवं अन्य आवश्यक आवश्यकताओं हेतु दूसरे राष्ट्रों से कुछ उत्पादन के लिए आवश्यक उत्पादनों की आपूर्ति प्राप्त करनी पड़ती है।
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