बी एड - एम एड >> बी.एड. सेमेस्टर-1 प्रश्नपत्र- IV-B - मूल्य एवं शान्ति शिक्षा बी.एड. सेमेस्टर-1 प्रश्नपत्र- IV-B - मूल्य एवं शान्ति शिक्षासरल प्रश्नोत्तर समूह
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बी.एड. सेमेस्टर-1 प्रश्नपत्र- IV-B - मूल्य एवं शान्ति शिक्षा
प्रश्न- अंतर्राष्ट्रीय संगठन की संकल्पना एवं प्रकृति का विवेचन कीजिए।
उत्तर-
अंतर्राष्ट्रीय संगठन की संकल्पना (Concept of International Organization) - अंतर्राष्ट्रीय संगठन वैश्विक स्तर पर एक संकल्पना है जो परस्पर विरोधी तत्वों जैसे राष्ट्रीय संप्रभुता एवं अंतर्राष्ट्रीय स्तर पर एक राष्ट्र एवं दूसरे राष्ट्र को नियंत्रित के बीच आपसी समझौते का एक महत्वपूर्ण प्रयास है।
संप्रभुता का एक प्रमुख अर्थ यह है कि राष्ट्रीय हित को सर्वोपरि रखते हुए अंतर्राष्ट्रीय स्तर पर समझौते किए जाएँ, एवं अपनी इच्छाओं को दूसरे राष्ट्र पर थोपा न जाए। इसके विपरीत एक राष्ट्र की दूसरे राष्ट्र की निर्भरता की अवस्था है कि राष्ट्र अपनी अस्तित्व तथा विकास के लिए अन्य राष्ट्र का सहयोग एवं उनकी सहायता लें तथा करें। वर्तमान समय में तीव्र गति से औद्योगिक एवं आर्थिक युग का विकास हुआ है तथा समय व परिस्थितियों को जलदता से उसमें राष्ट्रों की बीच अपनी निर्भरता से इन परिस्थितियों को आवश्यक बना दिया है।
उदार लोकतांत्रिक प्रक्रिया पर निर्मित राष्ट्रीय सरकारों की भांति ही अंतर्राष्ट्रीय संगठनों के लिए भी सबसे बड़ा उत्तरदायी निर्णय लेना नहीं है बल्कि निर्णय लेने में सक्षम रखना है। विशिष्टता इस समय पर यह अविलंब निर्णय लेना है। अंतर्राष्ट्रीय क्षेत्र में इतिहास का जो प्रभाव अब तक रहा है उसे समझ कर इन संगठनों की प्रक्रिया के महत्व भविष्य के बारे में समझना नियमित आवश्यक हो जाता है।
अंतर्राष्ट्रीय संगठन एक प्रक्रिया है जबकि विभिन्न अंतर्राष्ट्रीय संस्थाएँ उस प्रक्रिया की गति का प्रतिनिधित्व करती हैं - कूटनीति, संधि, समझौते, सम्मेलन, अंतर्राष्ट्रीय कानून आदि साधनों के माध्यम से अंतर्राष्ट्रीय संगठनों की प्रक्रिया निरंतर प्रवाहमान है जो मूर्तरूप में अंतर्राष्ट्रीय संगठनों की उपयोगिता सिद्ध कर चुकी है। दलीयता अटलता अंतर्राष्ट्रीय संगठनों के अस्तित्व के लिए उत्तरदायी है जो विश्व संगठन की प्रक्रिया में निहित है।
यह विचारणीय कहा जा सकता है कि यदि मनुष्य का कोई भविष्य है तो ठीक उसी प्रकार अंतर्राष्ट्रीय संगठन की भी संभावना का भविष्य है। यह निकट भविष्य में ही उपजे हैं स्थिति एक प्रभावशाली प्रवृत्ति बन चुकी है। अंतर्राष्ट्रीय संगठन के अंतर्गत राष्ट्र संघ, संयुक्त राष्ट्र संघ आदि आ सकते हैं पर अंतर्राष्ट्रीय संगठन का कार्य बना रहेगा।
इस प्रकार यह स्पष्ट है कि अंतर्राष्ट्रीय संगठनों का विकास विश्व-समाज की जरूरत का परिणाम है। आधुनिक विश्व में एक राष्ट्र दूसरे राष्ट्र से अलग रह सकते हैं और न एक राष्ट्र यह कह सकते हैं कि वे अपनी सुरक्षा एवं आर्थिक प्रगति के लिए दूसरों पर निर्भर नहीं रहेंगे या अपनी संप्रभुता को सर्वदा सुरक्षित रखना चाहेंगे। अंतर्राष्ट्रीय संगठन परस्पर विरोधी शक्तियों, राष्ट्रीय संप्रभुता एवं अंतर्राष्ट्रीय अन्योन्याश्रय के मध्य समझौते का एक प्रयास है। अंतर्राष्ट्रीयवाद, लोक कल्याण की भावना, विश्व समाज की सुरक्षा एवं व्यवस्था, राष्ट्रीय महत्त्वाकांक्षाओं एवं परस्पर विरोधी प्रवृत्तियों पर नियंत्रण की जरूरत से अंतर्राष्ट्रीय संगठनों की संकल्पना आई है। अंतर्राष्ट्रीय संगठनों की उपयोगिता निर्विवाद रूप में सिद्ध हो चुकी है। अंतर्राष्ट्रीय संगठन का भविष्य भी कोई प्रश्न होगा जो इन संगठनों के प्रभाव से अछूता हो। राष्ट्रों को मुक्ति दिलाना, युद्धों को, संकटकाल हेतु को रोकने तथा लोगों के जीवन स्तर उठाने की दिशा से इन संगठनों ने उल्लिखित कार्य किया है। अंतर्राष्ट्रीय संगठन अप्रत्यक्ष अवसरों में ही सही आज के अंतर्राष्ट्रीय जगत की अनिवार्यता वास्तविकता है। मन बुद्धि एवं विवेक ने इससे आगे कोई ऐसा विचार ही नहीं दिया है जो व्यवहार में उतारा जा सके। विश्व सरकार, विश्व राज्य या विश्व समाज जैसे विचार अभी भी कल्पना एवं आदर्श की ही वस्तु हैं।
इस दृष्टि से यह निष्कर्ष किया जा सकता है कि अंतर्राष्ट्रीय संगठन निष्क्रियता एवं पूर्णतया स्वतंत्र की बीच की स्थिति में होते हैं। ऐसे संगठन न तो निष्क्रिय हैं और न ही पूर्णत: स्वतंत्र।
अंतर्राष्ट्रीय संगठन की प्रकृति (Nature of International Organization) - अंतर्राष्ट्रीय संगठन अंतर्राष्ट्रीय संबंध एवं अंतर्राष्ट्रीय राजनीति से मिश्र हैं। अंतर्राष्ट्रीय संबंध से अंतर्राष्ट्रीय संगठन से जुड़ा हुआ सम्बन्ध है। यह संबंध अंतर्गत राज्यों के बीच सरकारी, गैर सरकारी, सामाजिक, गैर-राजनीतिक सभी संबंधों को सम्मिलित करता है। इसका मुख्य विषय राज्यों के भौगोलिक, तकनीकी, सामाजिक, राजनीतिक, एवं आर्थिक संबंधों से सम्बद्ध है।
अंतर्राष्ट्रीय संगठन विविध प्रकार के होते हैं जिनमें से निजी अंतर्राष्ट्रीय संगठनों के भिन्न हैं। व्यापार, वाणिज्य, यातायात, संचार, यात्री सुविधा आदि हेतु सरकारें अंतर्राष्ट्रीय संगठनों को संगठित करती हैं। उनमें से बहुतों के संगठन स्थायी हैं एवं इनके सदस्य-राष्ट्र नियमित रूप से मिलते रहते हैं। इनके अपने-अपने कार्यालय एवं कार्यक्रम हैं। इनका उद्देश्य परस्पर सहयोग बढ़ाना होता है। उनकी प्रेरणा से नए संगठन भी उत्पन्न होते हैं। अंतर्राष्ट्रीय संगठनों की स्थापना भी होती है किंतु भी, “कुछ” अंतर्राष्ट्रीय संगठनों की संज्ञा नहीं दी जा सकती।
पॉटर के अनुसार - “वास्तव में ये तो अंतर्राष्ट्रीय संगठन हैं और न इनका रूप अंतर्राष्ट्रीय हैं।”
अंतर्राष्ट्रीय संगठन की प्रकृति के संबंध में ब्लॉक्स ने दो विचारधाराओं की चर्चा की है। पहली विचारधारा - यथार्थवादी विचारधारा की एवं दूसरी कल्पनावादी आदर्शवादी विचारधारा की है। पहली विचारधारा के अनुसार अंतर्राष्ट्रीय संगठन वर्तमान राज्य-व्यवस्था के संतुलक कार्य-संगठन के साधन हैं। इसकी स्थापना बहुसंख्यक व्यवस्था के संदर्भ में होती है। संप्रभु-समूह राज्य अंतर्राष्ट्रीय आवश्यकता नहीं है। कारण यह है कि अंतर्राष्ट्रीय संगठन के द्वारा किसी ऐसी सार्वभौम सरकार की स्थापना नहीं की जा सकती है। किंतु समाज को समाज का अंग बनाया जाता है जो कोई अन्य नियंत्रण में ले लें। अंतर्राष्ट्रीय संगठन अंतर्राष्ट्रीय संबंधों के पुराने तरीकों को छोड़ नवीन एवं सरल तरीके की स्थापना करता है, राज्यों के ऐतिहासिक संघर्षों से सुधार तथा उसे प्रोत्साहित करने के लिए नए अधिनियमों की स्थापना करता है, उनकी नीतियों को एक समझदार ढंग रखने के प्रयत्न करता है तथा उनके कूटनीतिक व्यवहार को सुव्यवस्थित रूप से अधिक संगठित ढांचा प्रस्तुत करता है।
इसके विपरीत एक दूसरी विचारधारा है जो यह मानती है कि अंतर्राष्ट्रीय संगठन के द्वारा ऐसी प्रक्रिया का संचालन होता है जिससे द्वारा विश्व-सरकार की स्थापना की जा सकती है। यह एक ऐसी प्रक्रिया का प्रतिनिधित्व करता है जो वर्तमान राष्ट्रीय राज्य व्यवस्था का अतिक्रमण करती है। यह कोई आधारभूत रूप में नई व्यवस्था स्थापित करने हेतु विश्व-बंधुत्व एवं मानवता के पुराने स्वप्न को साकार करना चाहती है। इस विचार के प्रतिनिधियों का कहना है कि जब विश्व एक सरकार के अधीन होगा तो भविष्य में युद्ध को समाप्त किया जा सकेगा एवं यह शांति एवं उन्नति को बढ़ावा देगा। 20 दिसंबर 1956 को संयुक्त राष्ट्र संघ की महासभा में भाषण देते हुए पीटर्स ने कहा था कि वर्तमान युग में "संयुक्त दृष्टिकोण नहीं रख सकते। हमें अनाज की ओर देखना चाहिए इसके लिए निश्चित रूप से केवल एक ही मार्ग है - विश्व सरकार को एक विश्व का उद्देश्य।" इसीलिए यह प्रतिपादित किया है कि भविष्य में सरकार की स्थापना हेतु संयुक्त राष्ट्र के उद्देश्यों को पूर्ण करना आवश्यक है। इसके द्वारा परस्पर राष्ट्र संघों को काफी नियंत्रित किया गया है एवं इस प्रकार इसमें विश्व-सरकार की स्थापना के लिए आवश्यक दशा तैयार करने में महत्वपूर्ण योगदान दिया है।
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