बी एड - एम एड >> बी.एड. सेमेस्टर-1 प्रश्नपत्र- IV-B - मूल्य एवं शान्ति शिक्षा बी.एड. सेमेस्टर-1 प्रश्नपत्र- IV-B - मूल्य एवं शान्ति शिक्षासरल प्रश्नोत्तर समूह
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बी.एड. सेमेस्टर-1 प्रश्नपत्र- IV-B - मूल्य एवं शान्ति शिक्षा
प्रश्न- बालक के विकास में परिवार के योगदान एवं उत्तरदायित्व पर टिप्पणी लिखिए।
उत्तर-
परिवार का योगदान एवं उत्तरदायित्व - बालक को परिवार के सदस्यों से जो प्रत्यक्ष व्यवहार मिलता है, वह उसके मानसिक जीवन के कुछ स्थायी-अस्थायी, आराग्य-निराग्य एवं कुछ भावनाओं का निर्माण करता है। यदि बालक को माता-पिता से उपेक्षा या तिरस्कार प्राप्त होता है तो वह समाज विरोधी मूल्यों का विकास कर लेता है। इसी प्रकार अधिक प्रेम भी बालक को परतंत्र तथा सुगम जीवन जीने के उद्देश्य से अवांछनीय इच्छाओं एवं महत्वाकांक्षी मूल्यों के विकास को देता है। ये मूल्य अहंकार, आत्मविस्मृति, अहमन्यता एवं असंवेदनशीलता को उत्पन्न करते हैं। इसी प्रकार यदि अपने माता-पिता अपने बच्चों के साथ उपयुक्त प्रेम व्यवहार करते हैं तो प्रेम किए जाने वाले बालक में महानताशीलता, अहंकार, अहमन्यता जैसे गुणों का संचार हो जाता है और इसके परिणाम से माता-पिता से मिले गुणों, व्यवहारों एवं आचरणों का प्रभाव बालक के जीवन पर पड़ता है। अतः बालक के विचार, निर्णयशक्ति एवं व्यक्तित्व का निर्माण इस प्रकार किया जाना चाहिए कि वह सत्य का निरंतर अनुसरण करे, अनीति एवं बुराई का तिरस्कार करे। यदि माता-पिता एवं परिवार के अन्य सदस्य उसे मूल्यशून्य आचरणों का प्रदर्शन करते हैं, तो बालक भी उसी का अनुकरण करने लगता है। इसके प्रभाव से विभिन्न प्रकार के मूल्यों का विकास होता है, जैसे - बड़प्पन, आत्मसम्मान, त्याग, सहिष्णुता आदि।
परिवार और भौतिक अनुशासन - प्रत्येक समाज में बालक के जन्मजात एवं मूल प्रवृत्तियों को रोकने के लिए कुछ नियमों एवं प्रवृत्तियों का विकास हो जाता है। इन मूल प्रवृत्तियों के नियंत्रण करने की विधि को भौतिक अनुशासन कहा जाता है। इस प्रकार परिवार द्वारा किए गए भौतिक अनुशासनों के अनुशासन में ही विकास की दिशा में बालक में आवश्यक मूल्यों का विकास करते हैं।
(1) मानसिक अनुशासन - मानसिक अनुशासन का मतलब, मूल द्वारा आवश्यकताओं की पूर्ति एवं अनुकरण की नियंत्रण अवस्था से है। घरों में छोटे बच्चों का पालन करने के दौरान परिवार माता के संपर्क में होता है। बोल व दूध पिलाने वाली माता बच्चों को इस प्रकार के अनुशासन एवं माधुर्य से जीवन को देती है।
तत्पश्चात, बालक बड़ा होने पर भाषा का संयम प्रयोग सीखता है तथा शिक्षण भाषा प्रयोग के गुणों को विकसित कर लेता है।
(2) त्यागपरक सम्बंधी अनुशासन - प्रत्येक समाज में मल-मूत्र विसर्जन संबंधी निश्चित नियम होते हैं जिनका पालन व्यक्ति करता है। शौचालय का समय, स्नान प्रक्रिया आदि का प्रशिक्षण बालक परिवार से ही प्राप्त करता है। शौच नियंत्रण के साथ-साथ मूल्या एवं सामाजिक गुण भी परिवार में ही विकसित होते हैं।
अतः इन सबका विकास बच्चों में आवश्यक है, जिससे बालक में लज्जा, शर्म, संकोच, घृणा आदि की भावनाएँ उत्पन्न रहें।
(3) यौन अनुशासन - यौन कर्म के प्रति जीवन दृष्टिकोण भी परिवार में आवश्यक रूप से प्रदान करता है। बालक के शरीर में हुए उत्तेजक भाव से उसका मात्र से उत्थान हो उठे, यह सुनिश्चित करने हेतु परिवार को छोटे बालकों को नीति-शांति सिखानी है। छोटे बालकों को नैतिक शिक्षा, सत्यनिष्ठा, ब्रह्मचर्य के गुणों का ज्ञान प्रदान किया जाता है जिससे उसके ह्रदय पर गहरी क्रिया हो और संकोच गुणक गुणों व भावनाओं को विकसित न कर सके।
(4) सांस्कृतिक अनुशासन - संस्कृति सीखा हुआ व्यवहार है। शिक्षण प्रक्रिया में व्यक्ति की क्रियाओं व्यवहारों एवं आदतों मानसिकता में ही सांस्कृतिक आदतों एवं प्रवृत्तियों को अपने व्यवहारिक जीवन में ग्रहण करता है। संस्कृति के प्रमुख तत्वों में जनजीवन, आचार-विचार, संस्कार, सामाजिक मर्यादाएँ, प्रतिष्ठान आदि विशेष महत्व रखते हैं। शिक्षा इन सभी हमारी संवादहीन प्रक्रिया को मजबूत प्रदान करती है। बातचीत करने, उठने-बैठने, मिलने-जुलने, शिष्टाचार, अभिवादन के तरीके, जनरीतियाँ हैं। नैतिकता, सदाचार की शिक्षा परिवार से मिलती है। आचार-नियम रूढ़ियों का पालन भी परिवार से किया जाता है। इस प्रकार बालक की संस्कारिता विकसित संज्ञा दी जाती है।
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