बी ए - एम ए >> एम ए सेमेस्टर-1 - गृह विज्ञान - द्वितीय प्रश्नपत्र - फैशन डिजाइन एवं परम्परागत वस्त्र एम ए सेमेस्टर-1 - गृह विज्ञान - द्वितीय प्रश्नपत्र - फैशन डिजाइन एवं परम्परागत वस्त्रसरल प्रश्नोत्तर समूह
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एम ए सेमेस्टर-1 - गृह विज्ञान - द्वितीय प्रश्नपत्र - फैशन डिजाइन एवं परम्परागत वस्त्र
प्रश्न- भारत के परम्परागत वस्त्रों का उनकी कला तथा स्थानों के संदर्भ में वर्णन कीजिए।
अथवा
भारत में परम्परागत वस्त्र कौन से हैं? किन्हीं पाँच परम्परागत वस्त्रों पर प्रकाश डालिए।
अथवा
ढाका के पारम्परिक वस्त्रों के विषय में लिखिए।
अथवा
भारत के किन्हीं तीन परम्परागत वस्त्रों की विस्तृत जानकारी दीजिए।
बालूचर साड़ियाँ, कमख्याब, पीताम्बर, कलमदार
उत्तर -
(Traditional Garments of India and their Art and Place)
भारत के परम्परागत परिधान तथा उनसे सम्बद्ध निर्माण स्थान निम्नलिखित हैं-
1. ढाका का मलमल - ढाका, जो अब बंगला देश की राजधानी है, विश्व की सर्वाधिक सूक्ष्म एवं बारीक मलमल का समानार्थक नाम था। वास्तव में, ढाका के बुनकरों के हाथों में जादू था, जिनसे वे इतने सुदंर वस्त्र बना लेते थे। वाटसन के अनुसार, "हम अपनी समस्त मशीनों एवं आश्चर्यजनक उपकरणों से इतने सूक्ष्म एवं बारीक वस्त्र नहीं बना पाए हैं, जैसी कि ढाका की यह 'बुनी हुई हवा' है।"
ढाका की मलमल के थानों के बारे में प्रसिद्ध है कि वे अंगूठी में से निकाले जा सकते थे। कहा जाता है कि एक थान एक दियासलाई की डिब्बी में समा सकता था। दस गज का थान लगभग पांच महीने में बनकर तैयार होता था। आब-ए-रवाँ (Flowing water), वफ्त हवा (Wovan-air), शबनम (Evening dew) आदि वस्त्र ढाका की मलमल के ही विभिन्न प्रकार होते थे। इन्हें अनुकूल तापमान में बनाया जाता था, क्योंकि धागे इतने बारीक होते थे कि वातावरणीय ऊष्मा से वे चटक जाया करते थे, अतः केवल वर्षाकाल में ही इन्हें बुना जाता था, जब कि वातावरणीय वायु नमी (Humid) से परिपूर्ण रहती थी।
2. ढाका की साड़ियाँ - ढाका की साड़ियाँ भी कला के सुन्दर नमूने होती थीं। आज भी ढाका की साड़ियाँ सुन्दर नमूनों में बनती हैं, फिर भी वह सुन्दरता, हल्कापन आदि अब देखने को नहीं मिलता है। ढाका की साड़ियों में नमूने चाँदी तथा सोने के तारों में काढ़े जाते थे। इन्हें 'जामदानी' कहा जाता था।
इनमें चम्पा चमेली के फूल काढ़े जाते थे। बूटेदार साड़ी में बूटे समस्त भाग पर रहते थे। तिरछी लाइनों की कढ़ाई वाली साड़ी 'तेरछा' तथा फूलों के गुच्छों वाले नमूनों की साड़ियाँ 'पन्ना हजारें" (Thousand emerald) नाम से प्रसिद्ध थीं। छोटे-छोटे फूलवाली 'फुलवार' और बड़े-बड़े फूलों वाली 'तोरदार' कहलाती थीं। इन साड़ियों के बार्डर तथा आंचल सुन्दर पशु-पक्षी तथा मानव आकृतियों से सजे रहते थे। मोर और हंस, इन बुनकरों के प्रिय नमूने थे। साथ ही कई नमूने पौराणिक कथाओं पर आधृत तथा स्थानीय परम्पराओं के अनुरूप बनाए जाते थे। स्पष्ट बाह्यरूपों वाले ये नमूने बीच-बीच में रेखाओं तथा फूलों और बूटों से संतुलित किए जाते थे। गति को चित्रित करने में ये बुनकर बड़े कुशल थे। उड़ती चिड़िया, नृत्य करती आकृतियाँ बनाने में उनका उच्चतम नैपुण्य, अपूर्ण शिल्पकौशल और असीम धैर्य अद्वितीय था।
3. बालूचर साड़ियाँ —- मुर्शिदाबाद के समीप बालूचर में निर्मित ये साड़ियाँ हाथ करघे के सुन्दर नमूने मानी जाती थीं। इनमें आंचल को बहुत ही सुंदर तरीके से सजाया जाता था। आकृतियों तथा बूटों से सजी ये साड़ियाँ 'बालूचर बूटेदार' कहलाती थीं। बालूचर के बुनकरों को भी मुगल-कला के रूपचित्रों (Portraits) के समान मानव आकृतियों तथा गुलदस्तों के चित्र प्रिय थे। मुगल-कला के प्रसिद्ध रूपचित्र, जैसे- फूल सूंघती बेगम या फारसी - ईरानी परिधानों में घोड़े पर चढ़े अथवा हुक्का पीते सामन्त आदि इन नमूनों में होते थे।
अंग्रेजी राज्य में बालूचर के बुनकरों ने अंग्रेजी नमूनों को भी अपनाया। बालूचर की साड़ी बनाने की उत्कृष्ट कला अब केवल संग्रहालयों में ही देखने को मिलती है। बालूचर आज भी सुन्दर साड़ियों के निर्माण के लिए प्रसिद्ध है।
4. चंदेरी साड़ियाँ — ग्वालियर के पास चंदेर में निर्मित ये साड़ियाँ अपनी सूक्ष्मता एवं सुन्दर नमूनों के लिए प्रसिद्ध थीं। ये प्रायः सूती होती थीं तथा इनके नमूने रेशम और जरी से बनाए जाते थे। सूती एवं रेशमी धागों से मिश्रितरूप से तैयार साड़ियाँ भी अत्यंत लोकप्रिय थीं। साड़ी के मध्य भाग में प्रायः बूटे रहते थे। कभी-कभी इनमें ऐसे नमूने बनाए जाते थे, जो दो तरफ दो रंगों के होते थे। आजकल भी चंदेरी में सुंदर साड़ियाँ बनती हैं, जो सूक्ष्म धागों, सूक्ष्म रचना तथा बुनाई से बने लालित्यपूर्ण नमूनों के लिए सुप्रसिद्ध हैं।
5. ब्रोकेड - ब्रोकेड अंग्रेजों द्वारा उन वस्त्रों को सामूहिक रूप से दिया गया नाम था, जिनकी सतह पर सोने-चाँदी के तारों से निर्मित नमूने ही प्रमुख रूप से दिखाई देते थे। इनमें भीतरी धागा लगभग छिप जाता था और ऊपर की ओर केवल सुनहला अथवा रूपहला रूप ही दिखाई देता था। सिल्क धागों से शेष जमीन बनाई जाती थी। ब्रोकेड भी विभिन्न प्रकार की होती थी-
(i) कमख्वाब – कमख्वाब का अर्थ है 'स्वप्न- सदृश सौंदर्य' (Dream like beauty) इस नाम से ही इनके सौंदर्य का अनुमान लगाया जा सकता है।'कमख्वाब' या 'कीमख्वाब' वस्त्रों में सोने और चांदी के तारों से वस्त्र की सतह पर उभरे - उभरे से नमूने बनाए जाते थे। नमूने सतह के अधिकतर भाग पर रहते थे और ऐसा लगता था कि समस्त वस्त्र ही सोने-चाँदी के तारों से बना हुआ है। ऐसे वस्त्रों से पुरुषों के वस्त्र जैसे-टोपी, अँगरखा, चोगे, अचकन, बंडी आदि बनते थे। महिलाओं के लहँगे और ब्लाउज में भी ये वस्त्र प्रयुक्त होते थे। ये वस्त्र राजदरबारों में पर्दे, गद्दी आदि के प्रयोग में आते थे। कमख्वाब वस्त्र बहुमूल्य होते थे, अतः धनी लोग ही इन्हें प्रयोग कर सकते थे। भारी वस्त्र होने के कारण इनका प्रयोग भी सीमित ही था। कमख्वाब जिसका सौन्दर्य स्वप्न से भी किसी दृष्टि में कम न था, विलास और वैभव का प्रतीक माना जाता था।
(ii) वक्त अथवा पाटथान — वक्त भी एक प्रकार का ब्रोकेड वस्त्र ही होता था, जिसमें वस्त्र प्रमुख रूप से रंगीन सिल्क के धागों से बनाया जाता था और बीच-बीच में सुनहले अथवा रूपहले नमूने होते थे। इस वस्त्र को भी अचकन, अँगरखे, लहँगे आदि बनाने के लिये प्रयोग किया जाता था।
(iii) आब-ए-रबाँ — कुछ ब्रोकेड वस्त्रों को 'बहता पानी' नाम दिया गया। ये सिल्क के वस्त्र होते थे जिन पर सोने-चाँदी के तारों का काम होता था। ब्रोकेड के वस्त्र के निर्माण के लिए बनारस सदैव से प्रसिद्ध था।
(iv) हिमरस तथा आमरस — हिमरस तथा आमरस औरंगाबाद (हैदराबाद) में निर्मित ब्रोकेड वस्त्र थे। हिम का अर्थ होता है बर्फ, अर्थात् ठंडी ऋतु में पहने जाने वाले ये वस्त्र प्रायः सूती जमीन पर सिल्क द्वारा बनी ब्रोकेड से तैयार किए जाते थे। सामने की ओर नमूनों के रूप में, उभरने वाले सिल्क धागे पीछे की तरफ लम्बी-लम्बी फ्लोट (Floats ) बनाते थे, जिससे वस्त्र मुलायम, मोटा और रोएँदार हो जाता था। आमरस वस्त्रों में भी सिल्क के धागों का विशेष रूप से प्रयोग किया जाता था। ऐसे ब्रोकेड वस्त्र सूरत और बनारस में भी बनते थे। ये अचकन, अँगरखे, लहँगे आदि के अतिरिक्त दरबार हॉल के कुशन, पर्दे, गद्दियाँ, राजसिहांसन आदि सजाने के काम आते थे। नवाबों एवं राजाओं के लिए इन्हें विशेष रूप से सुन्दर नमूनों में बनाया जाता था। ये अब भी हैदराबाद के समीप औरंगाबाद में बनाए जाते हैं, परन्तु अब इनमें उस सौंदर्य की झलक नहीं मिलती है जो पहले होती थी।
6. पटोला - पटोला वस्त्र प्रायः विवाह के अवसर की साड़ी के रूप में तैयार किया जाता था। काठियावाड़ और गुजरात में बनाए जाने वाले ये वस्त्र वहाँ के महिला वर्ग में बहुत लोकप्रिय थे। वे इन्हें बड़े गर्व से सहेजकर रखती थीं। आज भी ये वस्त्र शुभ और मंगलमय माने जाते हैं। इन्हें सौभाग्यवती महिलाएँ पहनती हैं। पटोला वस्त्र आजकल भी लोकप्रिय हैं।
पटोला वस्त्र साधारण बुनाई से बुने जाते थे, परन्तु इन्हें जिन धागों से बनाया जाता था उन्हें पहले ही बाँधकर रंग लिया जाता था। सिल्क के धागे सर्वप्रथम हल्के रंग में रंगे जाते थे। इनसे बने वस्त्रों को फैलाकर इन पर नमूनों के अनुसार चिन्ह लगाए जाते थे। चिन्हों पर बाँधकर इन्हें पहले वाले से अधिक गहरे रंग में डाल दिया जाता था, इस प्रकार से बँधे स्थान बिना रंग के रह जाते थे। पुनः नमूने के अनुसार इन्हें अन्य स्थानों पर बाँधा जाता था। इस बार पहले वाले दोनों रंगों से भी गहरे रंग में रंगा जाता था। इसी तरह से कई बार बाँध बाँधकर इन्हें अधिकाधिक गाढ़े रंगों में रंगा जाता था। सबसे गहरे रंग में सबसे अंत में रंगा जाता था। इन रंगे हुए धागों को वस्त्र निर्माण में पूर्व योजना के अनुसार लगाया जाता था। इस प्रकार से रंगे हुए धागों से वस्त्र बनाने में बहुत सावधानी और श्रम की आवश्यकता होती थी क्योंकि तनिक-सा भी इधर-उधर हो जाने पर बुने वस्त्र के नमूने में हेर-फेर हो जाने का भय रहता था। अत्यधिक सर्जनात्मकता, कल्पना और विलक्षण स्मृति का होना इसमें अनिवार्य था अन्यथा नमूनों और धागों का क्रम याद रखना कठिन हो सकता था। इनमें जो नमूने बनाए जाते थे, वे परम्परागत होते थे। नर्तकी, हाथी, फूल, टोकरी, डायमंड आदि के नमूनों का प्रयोग प्रायः होता था। पटोला वस्त्र बम्बई, सूरत और अहमदाबाद में भी बनते थे। उड़ीसा के बुनकरों को भी पटोला की निर्माण विधि से प्रेरणा मिली और आजकल की प्रसिद्ध संबलपुरी साड़ियाँ आदि इन्हीं नमूनों के आधार पर निर्मित की जाती हैं।
7. पीताम्बर-पीताम्बर या पैठणी वस्त्र, हैदराबाद (दक्षिण) के पैठण स्थान पर निर्मित सुन्दर साड़ी और धोती को कहते है। यह सिल्क से निर्मित जालीदार वस्त्र होता था, जिस पर सोने के तारों से नमूने बने होते थे। आँचल और बार्डर अलग से बनाए जाते थे और साड़ी में सिलकर जोड़ दिए जाते थे। साड़ियों को प्रायः गहरे नारंगी और लाल रंगों से रंगा जाता था। इनमें बीच-बीच में विभिन्न आकृतियों के नमूने रहते थे। गमले, विभिन्न रंगों के फुल, फूलदान, लताएँ, हंस आदि इन्हें बनाने वालों के प्रिय नमूने थे। इनके नमूने भी चटक रंगों में रहते थे। मोर के शीश पर मेहराब का नमूना प्रायः साड़ियों के आँचल पर प्रदर्शित किया जाता था।
चमकदार सुनहली पृष्ठभूमि पर लाल-नीले तथा सफेद सिल्क से बने नमूने खूब खिलते थे और वस्त्र श्रेष्ठ अनुरूपता तथा विशिष्ट कलात्मकता से परिपूर्ण, खूब भड़कीले और वैभवपूर्ण लगते थे। प्रायः राज-परिवार में इन्हें विशेष अवसरों पर पहना जाता था। पीताम्बर का प्रयोग पुरुषों के द्वारा धार्मिक कार्यों तथा पूजा के अवसरों पर किया जाता था। ये वस्त्र कई महीनों के परिश्रम से बनते थे, साथ ही बहुमूल्य भी होते थे।
8. कलमंदार - कलमदार वस्त्रों पर रंगाई का काम हाथ से कलम या ब्रश की सहायता से पेंट करके किया जाता था। कलम से रंग को वस्त्र पर नहीं लगाया जाता था, बल्कि पिघले मोम को ही कलम से केवल उन स्थानों पर लगाया जाता था। जिन्हें रंग से बचाना था। इस तरह से यह विधि आधुनिक युग के 'बाटिक' से मिलती-जुलती थी इन्हें 'पालमपुरी' भी कहा जाता था। इन पर हिन्दू-धर्म और इस्लाम धर्म दोनों से संबद्ध पौराणिक कथाओं का चित्रण किया जाता था और दोनों धर्मों के लोग इन्हें अपने-अपने धार्मिक कार्यों के लिए प्रयोग में लाते थे। इनमें सूक्ष्म से सूक्ष्म विवरण को आश्चर्यजनक यथार्थकता से चित्रित किया जाता था। समस्त चित्रण के साथ-साथ इनमें इसी तरह के रंग-बिरंगे फूल एवं पत्ते बनाए जाते थे कि वस्त्र एक पुष्पवाटिका जैसा लगता था।
9. बाँधनी - गुजरात, काठियावाड़, राजस्थान तथा सिंध बाँधनी रंगी जाने वाली चुनरी, ओढ़नी, साड़ी आदि वस्त्रों के लिए प्रसिद्ध थे। बाँधनी वस्त्रों को विवाहिता के लिए मंगलमय एवं सौभाग्यसूचक शुभ वस्त्र माना जाता था। ये रंग-बिरंगे रंगों से सजे वस्त्र उल्लास और तरुणाई के प्रतीक माने जाते थे। बाँधनी और पटोला में मूलभूत विभिन्नता यही है कि पटोला में वस्त्र बनाने के धागों को वस्त्र बनाने के पहले ही रंग लिया जाता था और बाँधनी वस्त्र बना लेने के बाद रंगे जाते थे। पटोला के समान ही बाँधनी में रंगने की क्रिया का आरम्भ सबसे पहले हल्के रंग से किया जाता था। अंत में सबसे गाढ़ा रंग प्रयोग किया जाता था। प्रत्येक नए रंग के लगाने के पहले, नमूने के अनुसार बाँधने की क्रिया फिर से की जाती थी। बाँधने का काम धागों से किया जाता था। अच्छा रंग चढ़ाने के लिए इन पर पिघला मोम भी कभी-कभी लगा दिया जाता था। गुजरात की बाँधनहारियाँ बाँधने की क्रिया में बड़ी प्रवीण होती थीं और अभ्यास से वे उसे बिना चिन्ह लगाए भी बाँध सकती थीं। इसमें परम्परागत नमूने जैसे- नर्तकी, पशु-पक्षी, फूल आदि के अतिरिक्त एक-बूटे, चार बूटे या सात बूटे वाले नमूने बनाए जाते थे। अलवर में तो कुछ रंगरेज ऐसे थे जो रंगने के काम में इतने कुशल थे कि एक ही वस्त्र के दोनों ओर, दो प्रकार के नमूनों को रंग कर तैयार करते थे। वस्त्र दोनों ओर नमूनेदार बन जाता था।
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