बी ए - एम ए >> एम ए सेमेस्टर-1 - गृह विज्ञान - द्वितीय प्रश्नपत्र - फैशन डिजाइन एवं परम्परागत वस्त्र एम ए सेमेस्टर-1 - गृह विज्ञान - द्वितीय प्रश्नपत्र - फैशन डिजाइन एवं परम्परागत वस्त्रसरल प्रश्नोत्तर समूह
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एम ए सेमेस्टर-1 - गृह विज्ञान - द्वितीय प्रश्नपत्र - फैशन डिजाइन एवं परम्परागत वस्त्र
प्रश्न- मलमल किस प्रकार का वस्त्र है? इसके इतिहास तथा बुनाई प्रक्रिया को समझाइए।
उत्तर -
भारत के अनेक प्रदेशों में श्रेष्ठ प्रकार की कपास का पर्याप्त मात्रा में उत्पादन होता है, जो यहाँ के सूती वस्त्र उद्योग के विकास का महत्वपूर्ण कारण है। भारत के अधिकतर भागों की जलवायु गर्म व आर्द्र होने के कारण महीन व हल्के वस्त्र लोकप्रिय रहे हैं। कला कौशल की दृष्टि से पारदर्शी और हल्का होना वस्त्रों का महत्वपूर्ण गुण माना गया है।
ढाका में बनने वाले कीमती सूत्री वस्त्रों में मलमल अपना अलग ही स्थान रखती है। प्राचीन काल से ही इसकी कोमलता, महीनता और चमक संसार को आश्चर्यचकित कर रही है। मलमल के इन्हीं गुणों के कारण इसे अनेक उपनामों से जाना जाता है जैसे वायु, आकाश, ओस, धुआँ, चाँदनी, सर्प की केंचुली और बहता हुआ पानी आदि।
वंशानुगत कला कौशल और कारीगरों के अटूट धैर्य साधना तथा अनुकूलन जलवायु सम्बन्धी परिस्थितियों के परिणामस्वरूप बनने वाली मलमल प्रारम्भ में विश्व को आश्चर्यचकित कर, ईसा की प्रारम्भिक शताब्दियों में ही सम्पूर्ण संसार की लोकप्रियता प्राप्त कर चुकी थी।
इतिहास - मलमल शब्द की व्युत्पत्ति कैसे हुई तथा महीन सूती वस्त्रों के लिए यह नाम कब से प्रयुक्त हुआ यह कहना कठिन है। सुल्तानकाल के अनेक ग्रन्थों में महीन वस्त्रों के अर्थ में 'मलमल' तथा उसके विभिन्न प्रकारों के लिए अनेक नाम मिलते हैं। मलमल के लिए अंग्रेजी में मस्लिन शब्द प्रयुक्त होता है। वर्डवुड के अनुसार यह नाम मोसुल नामक शहर (मेसोपोटामियाँ) के नाम पर पड़ा। अरबी भाषा में मोसिल्ली शब्द महीन कपड़े मलमल के अर्थ में प्रयुक्त होता है।
प्राचीन बौद्ध साहित्य में 'विरली' शब्द मलमल जैसे महीन वस्त्र के अर्थ में मिलता है। संस्कृत साहित्य में 'विरलिका' भी इसी अर्थ में प्रयुक्त हुआ प्रतीत होता है।
वर्ष ( 606-647 ई०) के समय अति उत्तम वस्त्र तैयार हो रहे थे। हर्ष की बहिन राज्यश्री के विवाहोपलक्ष्य में भेंट किये गये वस्त्रों के गुणों का वर्णन करते हुए बाण कहते हैं कि वे वस्त्र साँप की केंचुली के समान महीन, केले के मध्य भाग की तरह कोमल, फूँक से उड़ जाये इतने हल्के तथा स्पर्श से ही जाने जा सकें इतने पारदर्शी थे। सामेश्वर ने भी मानसोल्लास में कपड़ों का एक गुण महीन 'विरलानि' होना बताया है।
प्राचीन तमिल साहित्य में भी सर्प की केंचुली तथा दूध की भाप के समान महीन पारदर्शी वस्त्रों का काव्यात्मक वर्णन है। गुप्त युग की मूर्तियों और अजंता की भित्तिचित्रों में भी शरीर से चिपके हुए पारदर्शी वस्त्र मलमल की लोकप्रियता प्रमाणित करते है।
जैन लेखक हेमचन्द्र ने महीन वस्त्रों की प्रशंसा करते हुए उन्हें चन्द्रमा की किरणों से बुना हुआ बतलाया है। प्राचीन रोम में भारतीय मलमल विलास की वस्तु समझी जाती थी, जिसके लिए प्रतिवर्ष बहुत बड़ी मात्रा में रोमन सिक्के भारत आते थे। भारत की महीनतम मलमल के प्रशंसक रोमवासियों ने इसे विंड्स टैक्सटाइल्स, हवा की तरह तथा 'नैबुला' जैसे अनेक काव्यात्मक नाम दे रखे थे। पैत्रोनि नामक लेखक ने रोमन स्त्रियों में अत्यन्त पारदर्शी भारतीय मलमल की लोकप्रियता की आलोचना करते हुए लिखा कि रोम की वनिताएँ बुनी हुई हवा के जाले (विंड्स टैक्सटाइल) अर्थात् मलमल पहनकर अपना सौन्दर्य झलकाती थी।
पेरिप्लस के अनुसार, गुजरात से निर्यात किये जाने वाले सूती वस्त्रों में सर्वश्रेष्ठ मलमल 'मोनाचे' कहलाती थी। परन्तु विदेशों में सर्वाधिक लोकप्रिय मलमल 'गंजेटिक' थी। विद्वान उसकी पहचान बंगाल में ढाका के आस-पास बुनी जाने वाली महीन मलमल से करते हैं। कुछ प्रसिद्ध विद्वानों का यह भी मत है कि मिस्र की मम्मियों पर लपेटा गया महीन वस्त्र बंगाल की सुप्रसिद्ध मलमल ही थी।
भारत में ईस्ट इण्डिया कम्पनी के काल के विवरणों से भी यही प्रमाणित होता है कि भारत से निर्यात किये जाने वाले वस्त्रों में महीन सूती वस्त्रों की माँग सबसे अधिक रहती थी।
मलमल के विभिन्न उपनाम
मुगलकाल के साहित्य में मलमल को अनेक लोकप्रिय नामों से जाना जाता रहा, जो बाद में लम्बे समय तक प्रचलित रहें। जेम्स टेलर (1840) के अनुसार 36 प्रकार की मलमल बुनी जाती थी। ये नाम प्रायः उसकी बारीकी तथा कोमलता - नाजुकता जैसी विशेषताओं के आधार पर रखे गये थे जैसे आबेरवां या आबां, बहता हुआ पानी, शबनम, बाफ्ता - बुनी हुई हवा, शरबती, तंजेब, जामदानी, डोरिया, गंगाजली, झिलमिल, झोना, तनसुख, दरंदाम, दुंदामी, देवगिरि, नयनसुख, पंचतोलिया बदनखास, बहादुरसाही, बैरम, मलमल - शाही इत्यादि।
कुछ नाम उस काल के मुगल बादशाहों के तथा नवाबों की पसन्द तथा उनके द्वारा संरक्षण पाने के कारण मलमल ने अपना लिये प्रतीत होते हैं; जैसे—महमूदी, अकबरी, जहाँगीरी, औरंगजेबी इत्यादि। इसी प्रकार कुछ नाम मलमल ने निर्माण स्थल के आधार पर अंगीकार कर लिये जैसे—देवगिरि, बिहारी, झबर्तली, भडूची इत्यादि।
बुनाई प्रक्रिया
19वी सदी के ईस्ट इण्डिया कम्पनी के विवरणों से ज्ञात होता है कि ढाका के आस-पास उत्तम प्रकार की कपास पैदा होती थी। कपास को चुनकर सफाई, धुनाई और कताई इत्यादि का कार्य प्रायः युवा स्त्रियाँ करती थीं। महीनतम सूत की कताई के लिए अत्यन्त धैर्य, कुशलता और सावधानी की आवश्यकता होती थी। महीन सूत की कताई के लिए वातावरण में लगभग 82% नमी होना आवश्यक माना जाता था। अतः यह काम प्रातः काल 10 बजे तक तथा सायं 4 बजे के बाद सूर्यास्त तक ही किया जाता था। धूप तेज होने के बाद आवश्यक नमी बनाये रखने हेतु तकली के नीचे पानी भरा एक पात्र रख लिया जाता था।
ढाका के बुनकर महीनतम सूत की परख अपनी नजरों से करते थे। ढाका से दिल्ली दरबार को भेजी जाने वाली महीनतम मलमल के 150 या 160 हाथ लम्बे सूत का वजन मात्र एक रत्ती होता था। एक कतिन (सूत कातने वाली स्त्री) प्रतिदिन प्रातः व संध्या कातने के बाद भी एक माह में आधा तोले (लगभग 6 ग्राम) ही सूत कात संकती थी। महीनतम सूत 8 रुपया प्रति तोला के हिसाब से बिकता था।
ढाका के ये सभी बुनकर हिन्दु थे। बुनकरों को सूत लच्छियों के रूप में या तिल्लियों पर लपेटा हुआ मिलता था जिसे वे दो भागों में बाँटकर महीनतम सूत बाने के लिए और शेष ताने के लिए रख लेते थे। ताने के सूत को तैयार करने के लिए तीन दिन तक पानी में डुबोकर धूप में सुखा दिया जाता था। तख्ते पर फैलाकर चूने का चूरण मिला चावल का मांड हाथ से चढ़ा दिया जाता था। मांड चढ़ी लच्छियों को चर्खे पर लपेट कर सुखा लिया जाता था।
बाने के सूत को तैयार करने की क्रिया बुनाई के दो दिन पूर्व ही प्रारम्भ की जाती थी। सूत को 24 घण्टे पानी में भिगोकर अगले दिन चर्खे पर चढ़ाकर तथा मांड लगाकर छाया में सुखा दिया जाता था। यह क्रिया तब तक जारी रहती जब तक कि पूरा थान नहीं बन जाता था।
महीनतम मलमल बुनने के लिए काम में लायी जाने वाली 40 इंच चौड़ी कंघी में 2800 तक दाँते रहते थे (रीड काउन्ड 70 No.)।
सूत कंघी में फँसाने के बाद नीचे 5-6 सूत की गाँठें बाँध कर फन्देनुमा बना लिये जाते. थे और उन फन्दों में एक बाँस फँसा दिया जाता था।
करघा पुराने ढंग का और सादा होता था। इसके लिए जमीन में निश्चित दूरी पर चार बाँस गाड़ दिये जाते थे जो ऊपर दो आड़े बाँसों द्वारा जुड़े रहते थे। इन्हीं आड़े बाँसों पर बीचों-बीच एक अन्य बाँस रहता था जिसके सहारे कंघी और फन्दों आदि को डोरियों की सहायता से लटका दिया जाता था।
महीनतम मलमल की बुनाई मुख्य रूप से आषाढ़, सावन, भादों के महीनों में की जाती थी क्योंकि इस ऋतु में वातावरण में अधिक नमी होने के कारण महीन सूत कम टूटता था।
एक थान (20 गज x 1 गज) को बुनने के लिए प्रायः दो कारीगर एक साथ काम किया करते थे। साधारण मलमल के लिए एक थान के 10-15 दिन एवं बारीक के लिए 40-60 दिन तक का समय लग जाता था। इसकी कीमत 70 रुपये से 80 रुपये तक होती थी। मलमल खास को बनाने में एक वर्ष तक का समय लग जाता था। तैयार मलमल थानों की धुलाई दूर गाँव में होती थी। इसे पानी में धोने पर एक खास प्रकार की सफेदी आ जाती थी। धुलाई का काम वर्षा ऋतु में किया जाता था, फिर इसे कुछ घण्टे सज्जी माँटी लगाकर रखने के बाद घास में फैलाकर कभी-कभी पानी छिड़क दिया जाता था। आधा सूखने के बाद उस को खोलते पानी की भाप दी जाती थी। यही क्रिया 10-12 दिन तक दोहराई जाती और अन्त में स्वच्छ जल में धो लिया जाता था।
धुलाई के समय टूटे हुए धागों को और गाँठों इत्यादि को हटाने का काम 'रफूगर' करता था। धोबी तैयार मलमल थान के दाग एवं जंग आदि के दागों को साफ करता था। इसके लिए अमरौला वृक्ष के रस, घी, चूना और सज्जी के घोल का प्रयोग किया जाता था। कुंदीगर का काम कपड़ों पर कलफ करना होता था। वह कपड़े को पीटकर और घोटकर चिकना करता था इसके बाद उन पर इस्त्री करता था।
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