बी ए - एम ए >> एम ए सेमेस्टर-1 हिन्दी प्रथम प्रश्नपत्र - हिन्दी काव्य का इतिहास एम ए सेमेस्टर-1 हिन्दी प्रथम प्रश्नपत्र - हिन्दी काव्य का इतिहाससरल प्रश्नोत्तर समूह
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हिन्दी काव्य का इतिहास
प्रश्न- रीति से अभिप्राय स्पष्ट करते हुए रीतिकाल के नामकरण पर विचार कीजिए।
उत्तर -
कृष्ण काव्यधारा का एक नया रूप रीति युग को परिलक्षित होता है। यह काल भक्तिकाल के ह्रास का युग है और कलागत दृष्टि से पर्याप्त उत्कर्ष का भी। भक्ति आन्दोलन का रूप 17वीं शताब्दी के प्रारम्भ में नष्ट हो गया था। इस युग में प्रेम और श्रृंगार भावना को श्रेय मिला। अब राधा कृष्ण सगुण ब्रह्म नहीं रहे वे मध्यकालीन मनोवृत्ति या इच्छा या वासना के प्रतीक बनकर रह गये। यह समय 1700 से 1900 तक का है। इसे रीतिकाल की संज्ञा दी गयी।
रीति से अभिप्राय - रीति शब्द से अभिप्राय है काव्य रीति या काव्य परिपाटी सामान्य अर्थ में रीति शब्द एक प्रणाली शैली अथवा पद्धति का द्योतक है। जैसे एक प्राणी रुचि भिन्नता के आधार पर वेशभूषा एवं व्यवहार आदि की विभिन्न शैलियों और प्रणालियों को ग्रहण कर व्यक्तित्व का निर्माण करता है वैसे ही काव्यकार भी भाषा की विविध प्रणालियों का अनुसरण कर काव्य रचना करता है।
संस्कृत साहित्य 'रीति' शब्द का प्रयोग विशिष्ट पद रचना के लिए किया जाता है। संस्कृत आचार्य वामन ने रीति के तीन उपभेद वैदर्भी, पंचाली और गौड़ी में वैदर्भी को बीस गुणों से सम्मानित किया। लेकिन रीतिकाल की इस रीति का सम्बन्ध इससे नहीं है। इस रीति का सम्बन्ध काव्य रीति से है। भिखारीदास ने अपने ग्रन्थ काव्य निर्णय में रीति की परिभाषा इस प्रकार दी है।
"काव्य की रीति सिखी सुकदानी, सों देखी-सुनी बहुलोक की बातें। भारतीय साहित्य शास्त्र में रीति के लिए प्रवृत्ति, मार्ग, संघटना, वृत्ति आदि शब्दों का प्रयोग भी किया जाता है। लेकिन सामान्य अर्थ में जिस प्रकार जीवन की प्रणाली मनुष्य के सांस्कृतिक अध्यवसाय की प्रतीक है, उसी प्रकार काव्य के क्षेत्र में 'कवि की रीति' उसके कलात्मक अध्यवसाय की द्योतक है।'
रीति शब्द की निष्पत्ति इस प्रकार मानी गयी है गत्यर्थक रीङ् धातु में वितन प्रत्यय से 'रीति' शब्द बना है। इसका अर्थ है मार्ग, पन्था, पद्धति, प्रणाली आदि। वस्तुतः हिन्दी के रीतिकाल का रीति शब्द एक व्यापक अर्थ का परिचय देता है जिसमें रस, अलंकार, शब्द-शक्ति, छन्द आदि आते हैं। इसी रीति शब्द के आधार पर हिन्दी साहित्य के उत्तर मध्यकाल को रीतिकाल कहा जाता है।
रीतिकाल का नामकरण - हिन्दी साहित्य के उत्तर मध्यकाल में साधारणतः शृंगारपरक लक्षण ग्रन्थों की रचना की गयी। इस काल के नामकरण के प्रश्न पर विद्वानों में मतैक्य नहीं है। इसे रीतिकाल, शृंगारकाल, कलाकाल, अलंकृतकाल आदि नाम दिये गये हैं।
रीतिकाल के 'रीतिकाल' नाम पर विचार - रीतिकाल एक ऐसा युग था, जिसमें श्रृंगार की प्रधानता के साथ वीर रस की रचनाएँ भी लिखी गयीं। आचार्य रामचन्द्र शुक्ल ने इस काल का समय संवत् 1700 से 1900 तक माना और इसे उत्तर मयकाल कहकर रीतिकाल संज्ञा दी। यह नाम उस काल की साहित्यिक प्रवृत्ति से स्पष्ट है। उत्तर मध्यकाल का रीतिकाल नामकरण पद्धति विशेष पर लिखने का बोलबाला था। उस समय का वातावरण ही कुछ ऐसा था कि प्रत्येक कवि ने रीति परम्परा के सचि में ढालकर ही लिखा क्योंकि तभी उसे प्रतिष्ठा प्राप्त हो सकती थी। इसी सन्दर्भ में डॉ. भागीरथ मिश्र ने कहा "उसे इस अलंकार भेद-ध्वनि आदि दर्शन के सहारे अपनी काव्य- प्रतिभा दिखाना आवश्यक था। यह युग रीति पद्धति का युग था।"
संस्कृत काव्यशास्त्र में सर्वप्रथम आचार्य वामन ने 'रीति' शब्द का प्रयोग किया था। लेकन आनंदवर्धन के ध्वनि संप्रदाय की स्थापना के बाद इसका महत्व कम हो गया। अब रीति केवल इसकी उपकारक बनकर रह गयी। हिन्दी साहित्य में रीति शब्द का अर्थ विद्यापति के समय ही एक अन्य अर्थ में होने लगा वह था काव्य रचना-पद्धति या उसका निर्देशक शास्त्र। रीतिकालीन आचार्यों ने इसी अर्थ में 'पंथ' शब्द का प्रयोग किया। यानी हिन्दी में रीतिकाव्य का अपना एक विशिष्ट अर्थ है लक्षणों के साथ अथवा अकेले उनके आधारों पर लिखा गया काव्य।
डॉ. हजारी प्रसाद द्विवेदी ने शुक्ल जी के नामकरण पर विचार करते हुए लिखा है "यहाँ आकर कविता को प्रेरणा देने वाली शक्ति अलंकार, रस और नायिका भेद हो जाते हैं। यहाँ साहित्य को गति देने में अलंकारशास्त्र का ही जोर है जिसे उस काल में रीति, कवित्त रीति या सुकवि रीति कहने लगे थे। सम्भवतः इन्हीं शब्दों से प्रेरणा पाकर शुक्ल जी में इस श्रेणी की रचनाओं को रीतिकाव्य कहा '
आचार्य शुक्ल का कथन है कि जिस कालखण्ड के भीतर किसी विशेष प्रकार की रचनाओं की प्रचुरता दिखाई पड़े, वह एक अलग काल माना जाना चाहिए और उस काल का नामकरण उन्हीं रचनाओं के स्वरूप के आधार पर किया जाना चाहिए।
इस प्रकार प्रत्येक काल का एक निर्दिष्ट लक्षण बताया जा सकता है, दूसरी बात है, ग्रन्थों की प्रसिद्धि। जिस काल के भीतर जिस तरह के ग्रन्थ अधिक पाये जायें, उसी प्रकार की रचना पद्धति उस काल की मानी जायेगी। किन्तु यदि कुछ अप्रसिद्ध रचनाएं भी किसी कोने में मिल जायें, तो उन रचनाओं को अधिक महत्व नहीं देना चाहिए। इन्हीं सिद्धान्तों के आधार पर शुक्ल जी ने इस काल को रीतिकाल की संज्ञा दी। आचार्य शुक्ल ने केवल उन्हीं कवियों को रीतिकालीन कवि नहीं माना, जो रीति रचयिता थे, उन्होंने उनको भी रीतिकालीन कवि माना, जो रीति के बन्धन में थे। आचार्य हजारी प्रसाद द्विवेदी, डॉ. नगेन्द्र, डॉ. भागीरथ मिश्र और डॉ. लक्ष्मीसागर वार्ष्णेय आदि विद्वान भी इस युग को रीतिकाल कहना ही उचित समझते हैं।
मिश्र बन्धुओं ने इस काल का नाम अलंकृत काल रखा, जबकि उन्होंने स्वयं रीतिकालीन कवियों के ग्रन्थो, रीतिग्रन्थ और उनके विवेचन को रीति कथन कहा। उनके अनुसार इस काल के कवि कविता को छन्दों और अलंकारों से ढक देना चाहते थे। इसी कारण इस काल की कविता में अलंकारों की प्रधानता आ गयी है। उन्होंने अलंकारों का प्रयोग भावानुभूति को ऊँचा उठाने के लिए नहीं किया, अपितु उन्होंने अलंकारों को साध्य माना है। अलंकारों को प्रकट करना ही उनका मुख्य ध्येय था। भाव - सौन्दर्य की ओर उनका ध्यान नहीं गया। अलंकृतकाल नाम को ध्यानपूर्वक देखने के पश्चात् हम इस निश्चय पर पहुँचते हैं कि यह नामकरण भी ठीक नहीं है। डॉ. रमाशंकर रसाल ने इसे कला काल कहा है। वस्तुतः इन दोनों नामों से इस काल की सामान्य प्रवृत्तियों का बोध नहीं होता। रीतिकाल की सर्वमान्य प्रवृत्ति रीति परम्परा है। इन दोनों नामों से उसकी सर्वथा उपेक्षा हो जाती है। साथ ही अलंकृत या अलंकरण से यह स्पष्ट हो जाता है कि ऐसी कविता जिसमें अलंकारों का प्रधान्य हो या ऐसी कविता जिसमें अलंकरण पर अधिक बल दिया गया हो। ये दोनों प्रकार की कल्पनाएँ सार्थक प्रतीत नहीं होती। यदि यह मान लिया जाये कि प्रस्तुत काल में अलंकारों का लक्षणोदाहरण द्वारा निरूपण हुआ अथवा उसे अलंकृत काल की संज्ञा से अभिहित किया जाये तो भी संगत नहीं। वस्तुतः अलंकारों के साथ-साथ काव्य के अन्य अंगों का भी इस काल में निरूपण हुआ।
आचार्य विश्वनाथ प्रसाद मिश्र ने अनेक तर्कों द्वारा विवेच्य काल का नाम श्रृंगारकाल सिद्ध किया है। शृंगार रस की प्रमुखता को लक्ष्य में रखकर उन्होंने रीतिकाल को शृंगार काल कहा। इस सम्बन्ध में इतना ही कह देना काफी है कि रीतिकालीन कवियों ने समूचे अंगों का सम्यक् विवेचन किया है। सम्पूर्ण रीतिकालीन कविता के विहंगम अवलोकन के बाद कहा जा सकता है कि तत्कालीन कृतियों में ऐसी परिपाटी नहीं है। लेकिन श्रृंगार की प्रधानता इस काल में निश्चित है। लेकिन यह स्वतन्त्र नहीं, सर्वत्र रीति पर आश्रित है।
असल में, आचार्य शुक्ल ने रीतिकाल की शृंगार काल मानने की इस वाक्य में छूट दे दी थी - "वास्तव में शृंगार और वीर इन्हीं दो रसों की कविता इस काल में हुई। प्रधानता श्रृंगार काल कहे तो, कह सकता है।' किन्तु मिश्र जी का श्रृंगार काल नामकरण भी ठीक नहीं जंचता। इस काल के कवियों ने केवल रीति को स्थायी भाव मानकर उसी के संचारी विभाव और अनुभावों का प्रयोग कर श्रृंगार रस की ही रचना नहीं की अपितु उन्होंने काव्य के अन्य अंगों अर्थात् अलंकार इत्यादि पर भी ध्यान दिया है। श्रृंगारिकता की प्रवृत्ति का हिन्दी साहित्य पर प्रभाव पड़ा, किन्तु इसी आधार पर इस काल की श्रृंगारकाल कह दिया जाये, तो ठीक नहीं लगता। आदिकाल और भक्तिकाल में भी शृंगारिकता की रचनाएँ होती रहीं, किन्तु इनमें किसी भी काल को शृंगारकाल नहीं कहा, तो फिर इसे ही क्यों कहें? दूसरी बात एक और विद्वान ने इस काल की रचनाओं को तीन भागों में बाँटा है -
(1) रीतिबद्ध,
(2) रीतिसिद्ध,
(3) रीतिमुक्त।
इस प्रकार हम देखते हैं कि रीति शब्द का प्रभाव प्रत्यक्ष अथवा परोक्ष रूप से सभी कवियों पर है। रीतिबद्ध कवियों ने तो अपनी रचनाओं में लक्षणों का प्रतिपादन किया है और रीतिसिद्ध कवियों की रचनाओं में परोक्ष रूप से यह रीति परिपाटी कम कर रही है। रीतिमुक्त कवियों में भी कोई न कोई विशिष्ट पद रचना शैली कार्य कर रही है। इस कारण इस काल को शृंगारकाल न कहकर रीतिकाल कहना ही अधिक युक्तिसंगत है। डॉ. सुधाकर के शब्दों में "रीत - परम्परा का प्रभाव प्रत्यक्ष या परोक्ष रूप से सर्वोपरि है। रीतिबद्ध कवियों ने अपने लक्षण ग्रन्थों में सक्षात् रूप से रीति परम्परा का निर्वाह किया। रीतिसिद्ध कवियों की रचनाओं में अप्रत्यक्ष रूप से रीति परिपाटी रही। रीतिमुक्त कवियों में भी एक प्रकार की कवितापूर्ण पद रचना का वैशिष्ट्य मिलती है। इस प्रकार सम्पूर्ण रीति साहित्य में भी सीधे या टेढ़े-मेढ़े रीति परम्परा चक्कर लगाती दिखती है।
इस प्रकार रीतिकाल की सभी प्रवृत्तियों तथा परिस्थितियों को ध्यान में रखकर हम आचार्य रामचन्द्र शुक्ल के नामकरण रीतिकाल से सहमत हैं। अलंकृतकाल, कलाकाल, श्रृंगार इस काल की आन्तरिक प्रवृत्ति का द्योतन नहीं कर सकते। शुक्ल जी रीति का अर्थ काव्यांग निरूपण की शास्त्रीय पद्धति और काव्य-रचना शैली इन दोनों अर्थों में ही प्रयोग किया था। रीतिकाल पर एक आक्षेप यह भी लगाया जाता है कि इसमें रीतिमुक्त कवियों की कविता का समावेश नहीं हो सकता, किन्तु रीति शब्द को इसके व्यापक अर्थ में ग्रहण कर लिया जाये, तो ये कवि भी इस परिधि में आ जाते हैं। अंत में हम डॉ. भागीरथ मिश्र के निष्कर्ष को अपना निष्कर्ष मानते हुए, उन्हीं के शब्दों में कह सकते हैं "कलाकाल कहने से कवियों की रसिकता की उपेक्षा होती है। श्रृंगारकाल कहने से वीर रस और राज प्रशंसा की, रीतिकाल कहने में प्रायः कोई भी महत्वपूर्ण वस्तुगत विशेषता उपेक्षित नहीं होती और प्रमुख प्रकृति सामने आ जाती है। यह गुण रीति-पद्धति का युग था। यह धारणा वास्तविक रूप से सही है। अतः रीतिकाल का नाम 'रीतिकाल' उपर्युक्त और समीचीन है।
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- प्रश्न- छायावादी काव्य में अभिव्यक्त नारी सौन्दर्य एवं प्रेम चित्रण पर टिप्पणी कीजिए।
- प्रश्न- छायावाद की काव्यगत विशेषताएँ बताइये।
- प्रश्न- छायावादी काव्यधारा का क्यों पतन हुआ?
- प्रश्न- प्रगतिवाद के अर्थ एवं स्वरूप को स्पष्ट करते हुए प्रगतिवाद के राजनीतिक, सामाजिक, धार्मिक तथा साहित्यिक पृष्ठभूमि पर प्रकाश डालिए।
- प्रश्न- प्रगतिवादी काव्य की प्रमुख प्रवृत्तियों का वर्णन कीजिए।
- प्रश्न- प्रयोगवाद के नामकरण एवं स्वरूप पर प्रकाश डालते हुए इसके उद्भव के कारणों का विश्लेषण कीजिए।
- प्रश्न- प्रयोगवाद की परिभाषा देते हुए उसकी साहित्यिक पृष्ठभूमि पर प्रकाश डालिए।
- प्रश्न- 'नयी कविता' की विशेषताओं का वर्णन कीजिए।
- प्रश्न- समसामयिक कविता की प्रमुख प्रवृत्तियों का समीक्षात्मक परिचय दीजिए।
- प्रश्न- प्रगतिवाद का परिचय दीजिए।
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- प्रश्न- प्रयोगवाद का क्या तात्पर्य है? स्पष्ट कीजिए।
- प्रश्न- प्रयोगवाद और नई कविता क्या है?
- प्रश्न- 'नई कविता' से क्या तात्पर्य है?
- प्रश्न- प्रयोगवाद और नयी कविता के अन्तर को स्पष्ट कीजिए।
- प्रश्न- समकालीन हिन्दी कविता तथा उनके कवियों के नाम लिखिए।
- प्रश्न- समकालीन कविता का संक्षिप्त परिचय दीजिए।