बी ए - एम ए >> बीए सेमेस्टर-1 गृह विज्ञान बीए सेमेस्टर-1 गृह विज्ञानसरल प्रश्नोत्तर समूह
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बीए सेमेस्टर-1 गृहविज्ञान
प्रश्न- विटामिन से क्या अभिप्राय है? विटामिन का सामान्य वर्गीकरण देते हुए प्रत्येक का विस्तारपूर्वक वर्णन कीजिए।
अथवा
जल में घुलनशील विटामिनों के प्रकारों व प्राप्ति के साधनों की व्याख्या कीजिए।
अथवा
विस्तारपूर्वक 'विटामिन्स' का वर्गीकरण बताइये।
अथवा
जल में घुलनशील विटामिन्स क्या होते हैं? विटामिन 'सी' के कार्य, स्रोत तथा कमी से होने वाले रोग के बारे में विस्तारपूर्वक बताइये।
सम्बन्धित लघु प्रश्न
1. शरीर में विटामिन ए की कमी से होने वाले रोग बताइये।
2. निम्नलिखित पर टिप्पणी लिखिए- (i) क्वाशियोरकोर, (ii) स्कर्वी।
3. विटामिन के स्रोत कार्य तथा उसकी कमी से होने वाले शारीरिक प्रभाव का वर्णन कीजिए।
4. विटामिन 'ए' का प्रभाव बताइये।
5. विटामिन 'सी' की कमी पर संक्षिप्त टिप्पणी लिखिए।
6. विटामिन 'सी' का हमारे शरीर में क्या कार्य है?
7. वसा में घुलनशील और जल में घुलनशील विटामिनों में अन्तर स्पष्ट कीजिए।
8. वसा में घुलनशील विटामिन के प्रकार व स्रोत संक्षेप में लिखिए।
9. विटामिन 'डी' के स्रोत व कार्य बताइए।
10. विटामिन 'ए' की प्राप्ति के स्रोत क्या हैं?
11. वसा में घुलनशील विटामिन।
उत्तर -
विटामिन ( जीवन सत्त्व) की खोज 20वीं शताब्दी की खोज है। इससे पूर्व भोजन में उपस्थित कार्बोहाइड्रेट, वसा, प्रोटीन व लवण आदि तत्वों की ही जानकारी थी।
'विटामिन ' शब्द कैशीमियर फंक (Casimir Funk) द्वारा 1912 में दिया गया था। चावल के ऊपरी खोल से प्राप्त तत्व से 'बेरी-बेरी' की स्थिति ठीक हो जाती है। यह खोजते हुए उसने आइजेक मैन की कल्पना की पुष्टि की यह बीमारी किसी खाद्य तत्व की कमी से होती है। यह तत्व जीवन के लिए आवश्यक समझा गया तथा बेरी-बेरी विरोधी तत्व में नाइट्रोजन पाया गया इस प्रकार विटामिन नाम दिया गया।
इन विटामिनों को निम्नलिखित दो भागों में वर्गीकृत किया जा सकता है-
1. जल में घुलनशील विटामिन्स,
2. वसा में घुलनशील विटामिन्स।
विटामिन | |||||
जल में घुलनशील विटामिन | वसा में घुलनशील विटामिन | ||||
विटामिन 'बी' कॉम्पलेक्स | विटामिन 'सी' | विटामिन ए | विटामिन 'डी' | विटामिन 'ई' | विटामिन 'के' |
1. जल में घुलनशील विटामिन (Water Soluble Vitamins) - जल में घुलनशील विटामिन शरीर में स्वनिर्मित नहीं हो पाते हैं अतः इन्हें भोजन द्वारा प्राप्त करना आवश्यक हो जाता है। यह जल में घुलनशील होते हैं अतः इनकी आवश्यकता से अधिक मात्रा शरीर के जल के साथ बाहर निकाल दी जाती है।
1. विटामिन 'बी' कॉम्पलेक्स - (i) विटामिन बी1 या थायमिन (Thiamin), (ii) विटामिन बी2 या राइबोफ्लेविन (Riboflavin), (iii) निकोटिनिक एसिड या नायसिन (Naicin), (iv) विटामिन 'बी' 6 या पायरीडॉक्सिन (Pyridoxin) | (v) विटामिन 'सी'
2. वसा में घुलनशील विटामिन (Fat Soluble Vitamins) -
(i) विटामिन 'ए' (Retinol),
(ii) विटामिन 'डी' (Cholecaciferol),
(iii) विटामिन 'ई' (Tocopherol),
(iv) विटामिन 'के'।
वसा में घुलित व जल में घुलित विटामिनों में भिन्नता
क्र.सं. | वसा में घुलनशील | जल में घुलनशील |
1. | वसा तथा वसीय घोलकों में घुलनशील | पानी में घुलनशील |
2. | आवश्यक से अधिक मात्रा में लेने से शरीर में जमा हो जाते हैं। | इसकी अधिक मात्रा बहुत कम जमा होती है। |
3. | उत्सर्जित नहीं किए जाते हैं। | उत्सर्जित कर दिये जाते हैं। |
4. | कमी के प्रभाव धीरे-धीरे प्रतिलक्षित होते हैं। | कमी के प्रभाव तेजी से प्रतिलक्षित होते हैं। |
5. | आहार में इनका होना बहुत आवश्यक नहीं होता है। | प्रतिदिन आहार में होना आवश्यक है। |
6. | इनमें केवल कार्बन, ऑक्सीजन तथा हाइड्रोजन अणु उपस्थित होते हैं। | इसमें कार्बन, हाइड्रोजन ऑक्सीजन के अतिरिक्त नाइट्रोजन होती है तथा कभी-कभी सल्फर, कोबॉल्ट भी पाया जाता है। |
कार्य (Functions)
यद्यपि विटामिन की रासायनिक रचना तथा उनकी अनुपस्थिति के शरीर पर प्रभाव ज्ञात हो चुके हैं तब भी जैव रसायन वैज्ञानिक अभी भी खोज में लगे हुए
विटामिन सह एन्जाइम की तरह कार्य करते हैं जोकि एन्जाइम्स के कार्य को सरल करते हैं। प्रत्येक कोशिका में लगभग 500 एन्जाइम्स होते हैं। जो इन परिवर्तनों में उत्प्रेक्षण का कार्य करते हैं।
जल में घुलनशील विटामिन 'बी' कॉम्पलेक्स
यह एक विटामिन न होकर कई विटामिनों का एक समूह है। इन सब विटामिन को सम्मिलित रूप से विटामिन 'बी' कॉम्पलेक्स कहते हैं।
1. थायमिन (B1) (Thiamine) - थायमिन विटामिन की खोज बेरी-बेरी रोग का उपचार करके हुई। टकाकी नामक डॉक्टर (1885) ने जापानी नेवी में बेरी-बेरी का उपचार आहार में परिवर्तन करके किया।
कार्य थायमिन, थायमिन पाइरोफास्फरेज के रूप में कार्बोहाइड्रेट चयापचय में सहायता करता है। कार्बोहाइड्रेट के ऊर्जा परिवर्तन में मध्यवर्ती पदार्थ विरुबिक एसिड को एसीटेट में परिवर्तित करता है तथा आगे और क्रिया करके कार्बन डाईऑक्साइड व पानी का निर्माण करता है।
प्राप्ति के साधन -विभिन्न साबुत अनाज थायमिन के प्रमुख साधन हैं। अन्य साधन मटर, सेम, दालें व खमीर है। सभी हरी सब्जियाँ, फल, माँस, मछली, यकृत, अण्डे का पीला भाग आदि में भी थायमिन की अच्छी मात्रा उपस्थित रहती है। दूध तथा दूध से बने भोज्य पदार्थों से भी अच्छी मात्रा में थायमिन लिया जाता है।
विटामिन B1 की कमी से उत्पन्न बीमारियाँ
बेरी-बेरी यह मनुष्य में विटामिन बी2 थायमिन की कमी से उत्पन्न बीमारी है। यद्यपि बेरी-बेरी पश्चिमी देशों में कम पाया जाता है। यह संसार के उन देशों में पाया जाता है जहाँ पॉलिश किया चावल भोजन का मुख्य आहार है। जब थायमिन की कमी लम्बे समय तक बनी रहती है तो इन सामान्य लक्षणों से व्यक्ति असमर्थ हो जाता है व कभी-कभी मृत्यु भी हो जाती है। बेरी-बेरी के तीन प्रमुख लक्षण नाड़ी संस्थान सम्बन्धी विकार (Palyne writis), शरीर में पानी भर जाना (Oedema) तथा सूख जाना एवं हृदय सम्बन्धी रोग हैं।
थायमिन की साधारण कमी- 1. वह व्यक्ति जिसमें थायमिन की साधारण कमी पाई जाती है, रोज धीरे-धीरे बढ़ती जाती है। इसके प्रमुख लक्षण - थकान, काम में अरुचि, भावुक, अस्थिर, चिड़चिड़ाहट तथा निराशा, गुस्सा, डर तथा भूख न लगना, वजन व शक्ति में कमी है।
2. जैसे-जैसे यह रोग बढ़ता जाता है, अपच, कब्ज, सिरदर्द, नींद आना तथा साँस फूलना, जल्दी थकान होना आदि लक्षण पाये जाते हैं।
3. टाँगों में भारीपन, कमजोरी लगने लगती है तथा बाद में माँसपेशियों में फड़कन, दर्द रहने लगता है तथा तलवों में जलन तथा सुन्न रहते हैं जो कि तंत्रिका संस्थान सम्बन्धी विकार के प्रतीक हैं।
तंत्रिका तंत्र सम्बन्धी विकार प्रमुख रूप से निम्न होते हैं -
(i) पाचन तंत्र सम्बन्धी विकार आँत नली में गति सम्बन्धी प्रक्रिया के दोष उत्पन्न होने लगते
(ii) माँसपेशियों की कमजोरी तथा लकवा पैरों की पेशियाँ कमजोर हो जाती हैं तथा लकवे की स्थिति उत्पन्न हो जाती है जिसका मुख्य कारण नाड़ी संस्थान में विकार उत्पन्न होना है।
2. राइबोफ्लेविन (Riboflavin) विटामिन की खोज के प्रारम्भिक दिनों में विश्वास था कि बेरी-बेरी को दूर करने वाला एक ही विटामिन है। जब थायमिन को भोजन से अलग कर दिया गया तो ज्ञात हुआ कि कम से कम दो प्रकार के विटामिन होते हैं, एक ताप के प्रति अस्थिर जो वास्तव में बेरी- बेरी रोग को दूर करता है तथा दूसरा ताप के प्रति स्थिर जो चूहों की वृद्धि में सहायक होता है।
कार्य - राइबोफ्लेविन कार्बोहाइड्रेट चयापचय में सहायक कुछ हारमोन्स के लिए नियामक कार्य करता है। आँख की रैटिना पर्त में स्वतंत्र रूप से राइबोफ्लेविन की उपस्थिति रहती है जो प्रकाश से क्रिया करके आँख की नाडी को उत्तेजित करने में सहायक होती है।
प्राप्ति के साधन - राइबोफ्लेविन की मात्रा भोजन में बहुत कम होती है। इसके प्रमुख साधन यकृत, सूखा खमीर, दूध, अण्डा, माँस, मछली, साबुत अनाज, दालें तथा हरी पत्ती वाली सब्जियाँ हैं।
अभाव से होने वाले रोग- शरीर में राइबोफ्लेविन की कमी होना अराइबोफ्लेविनोसिस (Ariboflavinosis) कहलाता है।
1. प्रयोगों के आधार पर देखा गया है कि अधिक समय तक राइबोफ्लेविन की कमी होने पर होठों के किनारे की त्वचा फटने लगती है। मुँह के अन्दर दाने व घाव हो जाते हैं, जीभ व होंठ बैंगनी लाल हो जाते हैं।
2. राइबोफ्लेविन की कमी से आँख प्रकाश के प्रति अधिक संवेदनशील हो जाती है तथा जल्दी थक जाती है। आँखों में जलन, खुजली, पानी निकलना तथा कड़कड़ाहट भी अधिक महसूस होती है।
प्रस्तावित दैनिक आवश्यकता- राइबोफ्लेविन, कार्बोहाइड्रेट, वसा व प्रोटीन के चयापचय में सहायक होता है अतः राइबोफ्लेविन की आवश्यकता भी ऊर्जा की मात्रा से होती है। FAO/WHO के विशेषज्ञों के अनुसार 0.55mg/1000 कैलोरी राइबोफ्लेविन सामान्य रूप से आवश्यक होता है।
3. नायसिन (Naicin or Nicotinic Acid) नायसिन तत्व की खोज भी पैलाग्रा रोग से हुई। पैलाग्रा जिसका अर्थ भद्दी त्वचा होती है। इस रोग को झलीमे 1771 में नाम दिया गया। इस रोग के कारण अधिकतर व्यक्ति मस्तिष्क के रोगी होकर मृत्यु का शिकार हो जाते हैं।
कार्य नायसिन त्वचा, पाचन संस्थान तथा नाड़ी संस्थान की सामान्य क्रियाशीलता के लिए अत्यन्त आवश्यक तत्व है। नायसिनामाइड के रूप में यह दो को एन्जाइम ( NDA, NADP) का निर्माण करता है। यह को एन्जाइम शरीर में कई एन्जाइम की क्रियाओं में भाग लेते हैं। यह ग्लूकोज के ऊर्जा परिवर्तन तथा वसा निर्माण में सहायक होता है।
प्राप्ति के साधन नायसिन का प्रमुख प्राप्ति का साधन सुखा खमीर है। इसके अतिरिक्त यह मूँगफली, साबुत अनाज, दालें, माँस, मछली, दूध, अण्डा तथा अन्य सब्जियों में भी पाया जाता है।
कमी से होने वाले रोग भोजन में नायसिन की कमी कई महीनों तक रहने के पश्चात् पैलाग्रा के लक्षण प्रकट होना प्रारम्भ होते हैं। इस रोग में प्रमुख रूप से पाचन संस्थान, त्वचा व नाड़ी संस्थान प्रभावित होते हैं। पैलाग्रा के लक्षण निम्न क्रम में प्रकट होते हैं
1. थकावट, परेशानी, सिर दर्द, पीठ दर्द, भार में कमी, भूख कम लगना तथा शारीरिक स्वास्थ्य का गिरना प्रारम्भिक लक्षण है।
2. फिर जीभ, गला व मुँह प्रभावित होते हैं। जीभ व होंठ गहरे लाल रंग के हो जाते हैं। किसी भी भोजन को खाने व निगलने में बहुत परेशानी होती है।
3. शरीर में रक्त हीनता (Anemia) हो जाता है।
4. जी मिचलाने लगता है तथा वमन व अतिसार होने लगता है।
दैनिक आवश्यकता FAO/WHO पोषण विशेषज्ञों के अनुसार एक सामान्य प्रौढ़ पुरुष की नायसिन की आवश्यकता 6.6mg/1000 कैलोरी होती है।
4. बी6 या पायरीडॉक्सिन ( B6 or Pyridoxin)- यह सफेद, गन्ध रहित, स्वाद में कसैला, रवे युक्त विटामिन है। पानी में घुलनशील हैं तथा ताप व सूर्य की अल्ट्रावायलेट किरणों से नष्ट हो जाता है।
कार्य अल्प विटामिन की तरह यह भी शरीर में को एन्जाइम की तरह कार्य करता है। यह तत्व बच्चों में वृद्धि के लिए आवश्यक होता है तथा नाड़ी संस्थान व लाल रक्त कोशिकाओं को स्वस्थ रखने के लिए आवश्यक होता है।
प्राप्ति के साधन- सूखी खमीर, गेहूँ के जर्म, माँस, यकृत, गुर्दे, साबुत अनाज, दालें, सोयाबीन, मूँगफली, नट्स, अण्डा, दूध आदि इसके प्रमुख साधन हैं।
कमी से होने वाले रोग पायरीडॉक्सिन की कमी से अनिद्रा, भूख में कमी, जी मिचलाना, उल्टियाँ होना, डरमेटाइटिस होना, होंठ व जीभ का प्रभावित होना आदि लक्षण प्रकट होते हैं।
दैनिक आवश्यकता विभिन्न अध्ययनों से ज्ञात हुआ कि 1.25 से 2mg पायरीडॉक्सिन की मात्रा- प्रतिदिन भोजन द्वारा पहुँचने से हीनता नहीं होती है।
5. पेण्टोथेनिक एसिड (Pentothenic Acid) यह पानी में घुलनशील अम्ल, क्षार व ताप से शीघ्र नष्ट होने वाला, सफेद, गन्ध रहित, हल्का कसैला विटामिन है।
कार्य यह शिशु व बालकों की वृद्धि में सहायक है। यह विटामिन भी एक को एन्जाइम का निर्माण करता है, जो शरीर में कई नियामक कार्यों में सहायक होता है।
हीनतां से रोग भूख कम हो जाती है, जी मिचलाना, अपाचन, पेट में दर्द, मानसिक तनाव तथा बांह व टाँगों में दर्द आदि लक्षण प्रकट होते हैं।
दैनिक आवश्यकता इसकी प्रतिदिन की आवश्यकता लगभग 10mg होती है।
6. बायोटिन (Biotin) -
कार्य बायोटिन मुख्य रूप से त्वचा को स्वस्थ रखने में सहायक होता है। यह शरीर में विभिन्न चयापचय क्रियाओं में सहायक होता है।
कमी से होने वाले रोग- बायोटिन की कमी से बाँहों व टाँगों में डर्मेटाइटिस हो जाती है।
दैनिक आवश्यकता इसकी सामान्य रूप से दैनिक आवश्यकता 150-300 माइक्रोग्राम होती है।
7. फोलिक एसिड (Folic Acid) -
कार्य फोलिक एसिड की आवश्यकता शरीर में कुछ प्रोटीन के निर्माण के लिए होती है। यह लाल रक्त कणिकाओं के लिए भी आवश्यक होता है।
कमी से होने वाले रोग इसकी कमी से बाल्यावस्था तथा गर्भावस्था में विशेष रूप से एनीमिया हो जाता है। यह एनीमिया लोहे की कमी से होने वाले एनीमिया से भिन्न होता है। इसे मिगैलोब्लास्टिक एनीमिया कहते हैं।
दैनिक आवश्यकता इसकी दैनिक आवश्यकता लगभग 0.1mg से 0.2mg होती है।
8. कोलीन (Choline) -
कार्य कोलीन शरीर में विभिन्न नियामक कार्य करता है। प्रमुख रूप से यह यकृत में अधिक वसा को एकत्रित होने से रोकता है। यह नाड़ी ऊतकों की संवेदना शक्ति को बनाए रखने में भी सहायक होता है।
कमी से होने वाले रोग मनुष्य में कोलीन की हीनता के लक्षण अभी तक नहीं पहचाने गए हैं। विभिन्न प्रायोगिक जानवरों में रक्त स्राव, गुर्दों में टूट-फूट, हृदय, फेफड़ों तथा आंखों का प्रभावित होना आदि लक्षण देखे गए हैं।
9. इनासीटॉल (Inasitol) - इनासीटॉल जन्तु तथा वनस्पति ऊतकों में उपस्थित रहता है। मनुष्य में इनासीटॉल विटामिन के कोई निश्चित कार्य नहीं हैं, पर अन्य जन्तुओं के लिए यह विटामिन महत्वपूर्ण होता है। मनुष्य शरीर में इसकी कमी होने से कोई रोग अभी तक नहीं देखा गया है। प्रयोगों द्वारा देखा गया है कि इसकी पर्याप्त मात्रा लेने से यकृत में वसा की अतिरिक्त मात्रा कम हो जाती है।
10. पैरा- अमीनो बैंजोइक एसिड (Para amino Benzoic Acid) - इस विटामिन का महत्व भी जानवरों में ही देखा गया। यह चूहे के बालों को स्लेटी होने से रोकता है। परन्तु मनुष्य में इसका कार्य तथा कमी से होने वाला कोई रोग ज्ञात नहीं हुआ है। यह विटामिन खमीर, यकृत, चावल व गेहूँ जर्म में उपस्थित रहता है।
11. विटामिन बी2 (Vitamin B12 or Cyano Cobalamino) विटामिन बी12 की खोज परनीशियस एनीमिया रोग का निदान करते हुए हुई। प्रयोगों द्वारा देखा गया कि एनीमिया रोगी को यकृत खिलाने से उसकी स्थिति में सुधार होता है। बाद में अध्ययनों से ज्ञात हुआ उपस्थित विटामिन बी12 इस रोग के उपचार में सहायक है।
कार्य- विटामिन बी12 विभिन्न प्रोटीन के चयापचय में सहायक होता है। अस्थि मज्जा में लाल रक्त कणिकाओं के परिपक्व होने में भी सहायक होता है तथा नाडी ऊतकों की चयापचय क्रियाओं में भी सहायक होता है।
कमी से होने वाले रोग विटामिन बी12 की कमी से विशेष प्रकार का एनीमिया रोग हो जाता है। नाड़ी ऊतकों में टूट-फूट की क्रिया अधिक होती है। बच्चों में इस विटामिन की कमी से वृद्धि रुक जाती है।
दैनिक आवश्यकता - इसकी दैनिक आवश्यकता 3 - 5 mg होती है।
विटामिन 'सी' या एस्कार्बिक एसिड
(Vitamin 'C' or Ascorbic Acids)
विटामिन 'सी' की खोज स्कर्वी रोग का उपचार का कारण ढूँढते हुए हुई। स्कर्वी रोग जहाज के यात्रियों को, जो बहुत समय के लिए समुद्री यात्रा पर निकलते थे, विशेष रूप से होता था तथा उनमें से अधिकतम व्यक्तियों की मृत्यु इसी रोग के कारण होती थी। 18वीं शताब्दी के अध्ययनों से ज्ञात हुआ कि रसीले व ताजे खट्टे फल इस रोग के उपचार में सहायक होते हैं। 1928 में जैट ज्योर्जी ने सन्तरा व दूसरे फलों में एक एसिड को अलग किया।
कार्य - एस्कार्बिक एसिड शरीर में मुख्य रूप से निम्नलिखित कार्य करता है
1. एस्कार्बिक अम्ल अन्तः कोशिका पदार्थ का निर्माण करता है जो विभिन्न कोशिकाओं को ऊतकों जैसे- केशिकांग, अस्थि, दाँत तथा बन्धक ऊतकों में जोड़ने के काम आता है।
2. फिनाइल एलेनीन तथा पाइरोसिन का ऑक्सीकरण होता है।
3. फेरिक लवण को फैरस लवण में परिवर्तित करना जिससे वह पाचन नली द्वारा अवशोषित होता है।
प्राप्ति के साधन एस्कार्बिक एसिड का प्रमुख प्राप्ति के साधन आँवला व अमरूद हैं। सभी खट्टे रसीले फल, ताजी सब्जियाँ अन्य साधन हैं। अंकुरित अनाजों व दालों में इसकी मात्रा बढ़ जाती है। विटामिन 'सी' युक्त भोज्य पदार्थ खट्टे होते हैं।
विटामिन 'सी' की कमी से होने वाला रोग विटामिन 'सी' की शरीर में अधिक समय तक कमी रहने से स्कर्वी रोग हो जाता है।
प्रौढ़ावस्था में स्कर्वी (Adult Scurvy)- वयस्कों में स्कर्वी लम्बे समय तक विटामिन 'सी' रहित आहार लेने से होती है। इसके प्रमुख लक्षण कमजोरी, वजन में कमी, बार-बार जल्दी-जल्दी उठने वाला हाथ-पैरों में दर्द है जो बाद में रोग के लक्षणों में बदल जाता है।
1. मुख्यतः सर्वप्रथम इस रोग का दिखने वाला लक्षण बालों के फालिकिल ( Follicle) का कड़ा होना है जिसे फालिकुलर किरेटोसिस (Follicular Keratasis) कहते हैं जोकि पैर, हाथ, पीठ तथा नितम्ब पर पाए जा सकते हैं।
2. इसके बाद रोग बढ़ने पर त्वचा लाल होने लगती है शीघ्र ही वाहिकाओं के नष्ट होने से रक्त स्राव होने लगता है। यह सर्पप्रथम पैर व टखने पर दिखाई देता है। इसके पश्चात् यह शरीर पर कहीं भी हो सकता है।
बच्चों में स्कर्वी (In Fartile Scurvy) - बच्चों में स्कर्वी के लक्षण प्रौढ़ों में स्कर्वी के लक्षण से भिन्न होते हैं। बच्चों की टाँगों व जाँघों में भी सूजन रहती है तथा इतना दर्द रहता है कि बच्चा जरा-सा भी टाँग को हिलाने पर रोने लगता है। बच्चा पीला पड़ जाता है, चिड़चिड़ा हो जाता है, भार में कमी आ जाती है, ज्वर रहता है, अतिसार व वमन की शिकायत होने लगती है। यदि दाँत आ गए हैं तो मसूढ़े कोमल, सूजे हुए रहते हैं तथा रक्त स्राव होने लगता है।
उपचार स्कर्वी की प्रारम्भिक अवस्था में कुछ ही दिनों में 100 से 200 mg विटामिन 'सी' सन्तरे के रूप में देने पर उपचार हो जाता है, पर यदि दीर्घकालिक स्कर्वी होने के कारण अस्थि विकृत आ गई है तथा एनीमिया हो गया है तो उपचार होने में समय लग जाता है।
प्रस्तावित दैनिक आवश्यकता एक प्रौढ़ पुरुष की कम से कम दैनिक आवश्यकता ( स्कर्वी दूर करने के लिए) 10mg है। ICMR तथा FAO के पोषण विशेषज्ञों ने विभिन्न अवस्था में विभिन्न मात्राएँ प्रस्तावित की हैं।
वसा में घुलनशील विटामिन
1. विटामिन 'ए' (Vitamin 'A') विटामिन 'ए' मुख्यतः प्राणिज भोज्य पदार्थों से प्राप्त होता है। पेड़-पौधों में कैरोटिनोड्स, वर्णक पाया जाता है जो प्रोविटामिन 'ए' कहलाता है। विटामिन 'ए' वसा में घुलनशील होता है। साधारण तापक्रम का प्रभाव नहीं पड़ता, परन्तु विटामिल 'ए' युक्त भोज्य पदार्थों क्को ऑक्सीजन की उपस्थिति में साधारण तापक्रम पर गर्म करने से यह नष्ट हो जाता है। विटामिन 'ए' को रेटिनॉल भी कहते हैं।
विटामिन 'ए' की प्राप्ति के स्रोत- प्राणिज भोज्य पदार्थों में विटामिन 'ए' मछलियों के यकृत, अण्डे, मक्खन तथा दूध में उपस्थित रहते हैं। पौधों में विटामिन 'ए' कैरोटिनॉइड के रूप में पाया जाता है। वनस्पति भोज्य पदार्थों में पीले तथा नांरगी रंग फलों एवं सब्जियों में कैरोटिन की अधिकता होती है। आँत में पहुँचने पर कैरोटिन विटामिन 'ए' में परिवर्तित हो जाता है। हरी पत्ती वाली सब्जियाँ पालक, चौलाई, पत्ता गोभी, हरा धनिया आदि में कैरोटिन की अधिकता होती है। गाजर, आम, पपीता में भी इसकी मात्रा अधिक होती है।
विटामिन 'ए' के कार्य- विटामिन 'ए' शरीर में निम्नलिखित कार्य सम्पादित करता है
1. सामान्य दृष्टि में सहायक- विटामिन 'ए' कम प्रकाश में सामान्य दृष्टि बनाये रखता है। आँखों के रेटिना में दो प्रकार के कोष होते हैं-
(i) छड़, (ii) शंकु
छड़ कोष मन्द रोशनी में देखने में सहायता करते हैं तथा शंकु रंग पहचानने में सहायक होते हैं। छड़ में रोडॉप्सिन तथा शंकु में आइडॉप्सिन नामक वर्णक पाये जाते हैं।
2. विटामिन 'ए' त्वचा की श्लेष्मा कोशिकाओं को स्वस्थ रखने में सहायक होता है।
3. यह त्वचा को चमकदार बनाये रखता है व इसकी कमी से त्वचा की चमक व सुन्दरता नष्ट हो जाती है।
4. यह उचित वृद्धि के लिए अत्यन्त आवश्यक है।
5. यह दाँतों व अस्थियों के विकास के लिए भी आवश्यक होता है।
6. विटामिन 'ए' पुरुष एवं स्त्रियों के प्रजनन अंगों व प्रजनन क्रिया को स्वस्थ बनाने में सहायक होता है।
7. विटामिन 'ए' शरीर में संक्रमण का प्रतिरोध करने व शरीर को बल, शक्ति व स्फूर्ति देने का महत्वपूर्ण कार्य करता है।
8. यह कुछ प्रोटीन के निर्माण में भी सहायता करता है।
9. विटामिन 'ए' माइलिन शीथ की क्रियाशीलता को भी बनाये रखता है।
कमी के प्रभाव
विटामिन 'ए' की कमी से शरीर में निम्न रोग हो जाते हैं
1. रतौंधी यह विटामिन 'ए' की कमी का सबसे पहला लक्षण होता है। इस रोग में रात्रि या कम प्रकाश में ठीक तरह से देखने की क्षमता नही रहती है, विशेष रूप से जब उजाले से अंधेरे में जाया जाता है।
2. कंजक्टाइविटिस इस रोग से आँख में तेज प्रकाश के प्रति संवेदनशील हो जाती हैं। आँखों में खुजली व जलन होती है व पलक में सूजन आ जाती है। आँखों में घाव बन जाते हैं।
3. जीरोपथैलमिया जब विटामिन 'ए' की कमी बहुत अधिक समय तक या अधिक तीव्रता से होती है तो यह रोग हो जाता है।
4. बिटॉट स्पॉट इसमें आँखों के सफेद भाग के किनारे पर स्लेटी रंग के धब्बे हो जाते हैं, जोकि त्रिकोण आकार का होता है।
5. किरेटोमलेशिया बिटॉट स्पाट दशा तक यदि उपचार कर लिया जाये तो अन्धेपन से बचा जा सकता है। लेकिन यदि उपचार में लापरवाही की जाये तो कॉर्निया पूर्ण रूप से गलकर नष्ट हो जाता है तथा व्यक्ति पूर्ण अंधा हो जाता है।
6. विटामिन 'ए' की कमी से शारीरिक वृद्धि मन्द हो जाती है।
7. इसकी कमी से प्रजनन क्रिया में अवरोध उत्पन्न हो जाता है।
8. विटामिन 'ए' की कमी से त्वचा के उपकला ऊतकों का क्षय होने के कारण त्वचा सूखी व खुरदरी हो जाती है व शरीर पर छोटे-छोटे दाने निकल आते हैं। इस प्रकार की त्वचा को टोड त्वचा कहते हैं तथा इस रोग को फॉलिक्यूलर हाइपरकैरिटोसिस कहते हैं।
विटामिन 'ए' की अधिकता (Hypervitaminasis 'A') - विटामिन 'ए' की अधिकता लेने से प्रौढ़ व्यक्तियों तथा बच्चों के स्वास्थ्य पर बुरा प्रभाव पड़ता है। बच्चों को साँस लेने में परेशानी होती है, सिर दर्द होता है, त्वचा शुष्क व उसमें खिंचाव होने लगता है।
विटामिन 'ए' की हीनता का उपचार यदि विटामिन 'ए' की हीनता कम स्थिति में है तो दस दिन में ही 10,000 माइकोग्राम विटामिन 'ए' प्रतिदिन देने से रोग में सुधार हो सकता है।
2. विटामिन 'डी' (Vitamin 'D') रिकेट रोग को दूर करने वाले पदार्थ को विटामिन 'डी का नाम दिया गया है। सूर्य की पराबैंगनी किरणों के प्रभाव से शरीर में संश्लेषित हो सकने की क्षमता के कारण इसे धूप का विटामिन भी कहा जाता है। यह सफेद रवैदार गन्ध रहित पदार्थ है तथा वसा में घुलनशील है, यह अम्ल क्षार, ताप आदि से अप्रभावित रहता है। भोजन में विटामिन 'डी' प्रोविटामिन के रूप में मिलता है। विटामिन 'डी' कई प्रकार के होते है, जैसे डी, डी डी डी डी तथा डी, परन्तु इनमें डी, तथा डी, मुख्य हैं। डी, को वनस्पति में उपस्थित प्रोविटामिन अर्गोस्टीरॉल से प्राप्त किया जाता है तथा डी, को प्रोविटामिन 7 - डीहाइड्रोकोलेस्ट्रॉल से प्राप्त किया जाता है।
विटामिन 'डी' के स्रोत - भोज्य पदार्थों में विटामिन 'डी' केवल प्राणिज स्रोतों से प्राप्त होता है। वनस्पतिक भोज्य पदार्थों में विटामिन 'डी' की न्यूनता रहती है। विटामिन डी के मुख्य स्रोत- मछलियों के यकृत का तेल, वसायुक्त मछलियों, अण्डे, मक्खन, पनीर तथा दूध आदि।
विटामिन 'डी' के कार्य
1. कैल्शियम चयापचय यह लम्बे समय से हड्डियों के निर्माण में सहायक तत्व माना जाता है। (a) विटामिन 'डी' आँत नली से कैल्शियम अवशोषण में सहायक है। इसलिए यह कैल्शियम की उपलब्धता को निश्चित करता है जो हड्डी मज्जा (Bone Matrix) में जमा होता है।
(b) यह रक्त कैल्शियम स्तर को बढ़ाता है जो कि हड्डियों में घुलने से लाता है।
2. फास्फोरक चयापचय हड्डियों का कैल्सीफिकेशन अधिकांशतः फास्फोरस की कमी के कारण रुक जाता है।
(a) फास्फोरस अवशोषण की दर को बढ़ाता है।
(b) वृक्क नलिकाओं द्वारा फास्फेट अवशोषण दर बढ़ाता है। विटामिन डी की अनुपस्थिति में बहुत- सा फास्फेट मूत्र के साथ निकल जाता है जिससे रक्त में इसका स्तर कम हो जाता है।
प्राप्ति के साधन विटामिन 'डी' की उपस्थिति कुछ जन्तु भोज्य पदार्थों में ही होती है। वनस्पति भोज्य पदार्थों में इनकी उपस्थिति नहीं होती है। विटामिन 'डी' के प्रमुख साधन मछलियों के यकृत का तेल, मोटी वसायुक्त मछलियाँ, अण्डा, मक्खन, पनीर, वसायुक्त दूध आदि है।
विटामिन 'डी' का शरीर में निर्माण विटामिन 'डी' की कुछ मात्रा सूर्य के प्रकाश से हमारे शरीर में भी निर्मित होती रहती है, इसलिए धूप प्रधान देशों में रिकेट्स का रोग कम होता है। हमारी त्वचा के नीचे उपस्थित कोलेस्ट्रॉल पर जब सूर्य का प्रकाश या अल्ट्रावायलेट प्रकाश पड़ता है तो शरीर में विटामिन 'डी' का निर्माण होता है। इसलिए विटामिन 'डी' के लिए हमें सिर्फ भोजन पर ही निर्भर रहना नहीं पड़ता।
विटामिन 'डी' की कमी से होने वाला रोग विटामिन 'डी' की कमी से आँतों के द्वारा कैल्शियम व फास्फोरस का ठीक तरह अवशोषण नहीं हो पाता है। इस तरह भोजन के द्वारा ली गई कैल्शियम व फास्फोरस शरीर द्वारा प्रयोग न होकर शरीर से वर्ज्य पदार्थ के रूप में बाहर निकल जाती है।
रिकेट्स (Rickets)- रिकेट्स अधिकतर बच्चों को प्रभावित करता है। इसके लक्षण बहुत धीरे-धीरे ठीक होते पाए गए हैं जिससे बचपन में हुए रिकेट्स द्वारा उत्पन्न लक्षण युवावस्था तक पाए जा सकते हैं।
1. टाँगों का झुकना व मुड़ना यह लक्षण तब दिखाई देता है जब बच्चा चलना शुरू करता है क्योंकि इन बच्चों की हड्डियाँ कोमल होने के कारण शरीर का बोझ सहन नहीं कर पातीं तथा धनुषाकार रूप में मुड़ जाती हैं।
2. लम्बी हड्डियों के सिरे बढ़ जाते हैं जिससे चलने में असुविधा होती है।
3. नॉक नीस (Knock knees) बच्चों के बड़े होने पर टाँगों की हड्डियाँ कमजोर होने के कारण दबाव सहन नहीं कर पातीं तथा घुटने अन्दर की तरफ मुड़ जाती हैं तथा चलते वक्त आपस में टकराने के कारण कठिनाई का अनुभव होता है।
विटामिन 'डी' की अधिकता से हानि विटामिन 'डी' की अधिकता से भूख कम हो जाती है जी मिचलाने लगता है। उल्टियाँ होने लगती हैं। प्यास बढ़ जाती है तथा बहुमूत्र हो जाता है।
3. विटामिन 'ई' (Vitamin E) 1922 में ईवान्स व बिशप ने वसा में घुलनशील एक और विटामिन का पता लगाया जो कि प्रजनन में सहायक है। इस तत्व को विटामिन 'ई' का नाम दिया गया।
कार्य विटामिन 'ई' के प्रमुख कार्य उसके ऑक्सीकरण प्रतिरोधी विशेषता के कारण हैं। विटामिन 'ई' ऑक्सीजन को ग्रहण कर आँतों में विटामिन 'ए' व कैरोटीन का ऑक्सीकरण कम करती है। इस तरह कहा जा सकता है कि यह तत्व विटामिन 'ए' की बचत करता है।
प्राप्ति के साधन विभिन्न अनाजों के भ्रूण के तेल विटामिन 'ई' के प्रमुख साधन हैं। अन्य वनस्पति तेल तथा वसाओं में भी इसकी अच्छी मात्रा उपस्थिति रहती है।
विटामिन 'ई' की कमी से रोग विटामिन 'ई' की हीनता से विभिन्न लक्षण प्रकट होते हैं। प्रमुख रूप से प्रजनन अंग ठीक तरह कार्य नहीं करते हैं।
प्रस्तावित दैनिक आवश्यकता : एक प्रौढ़ व्यक्ति की विटामिन 'ई' की आवश्यकता लगभग 10- 30mg होती है। जब असंतृप्त वसीय अम्ल अधिक लिए जाते हैं, उस समय विटामिन 'ई' की आवश्यकता भी बढ जाती है।
4. विटामिन 'के' (Vitamin 'K') - विटामिन 'के' की उपस्थिति की खोज सबसे पहले डॉ. जैम ने की। उन्होंने 1934 में मुर्गी के बच्चों पर किए गए प्रयोगों से ज्ञात किया कि विटामिन 'के' उनमें रक्त के बहने को रोककर रक्त का थक्का जमाने में सहायक होता है।
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- प्रश्न- भाषा पूर्व अभिव्यक्ति के प्रकार बताइये।
- प्रश्न- बाल्यावस्था क्या है?
- प्रश्न- बाल्यावस्था की विशेषताएं बताइयें।
- प्रश्न- पूर्व बाल्यावस्था में खेलों के प्रकार बताइए।
- प्रश्न- पूर्व बाल्यावस्था में बच्चे अपने क्रोध का प्रदर्शन किस प्रकार करते हैं?