शिक्षाशास्त्र >> ईजी नोट्स-2019 बी.एड. - I प्रश्नपत्र-4 वैकल्पिक पदार्थ विज्ञान शिक्षण ईजी नोट्स-2019 बी.एड. - I प्रश्नपत्र-4 वैकल्पिक पदार्थ विज्ञान शिक्षणईजी नोट्स
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बी.एड.-I प्रश्नपत्र-4 (वैकल्पिक) पदार्थ विज्ञान शिक्षण के नवीनतम पाठ्यक्रमानुसार हिन्दी माध्यम में सहायक-पुस्तक।
प्रश्न 2. 'मूल्यांकन' का शिक्षण-अधिगम प्रक्रिया में क्या महत्व है?
भौतिक विज्ञान शिक्षण में वस्तुनिष्ठ मूल्यांकन का विस्तृत विवरण दीजिए।
उत्तर-मूल्यांकन का शिक्षण-अधिगम प्रक्रिया में महत्व
शिक्षा के क्षेत्र में मूल्यांकन की प्रक्रिया का महत्वपूर्ण स्थान है। इसके
द्वारा शिक्षा की प्रक्रिया से छात्रों की उपलब्धियों में होने वाली प्रगति को
ज्ञात किया जा सकता है तथा उनके व्यवहार में होने वाले परिवर्तन को ज्ञात किया
जा सकता है। शिक्षा में मूल्यांकन की आवश्यकता अथवा उपयोगिता शिक्षक, छात्र एवं
विद्यालय सभी दृष्टि से अपनी-अपनी अलग परिभाषा रखती हैं। इसके द्वारा विद्यालय
संगठन अपने विद्यालय की उपलब्धियों को छात्र की उपलब्धियों के आधार पर अन्य
विद्यालयों की तुलना में आंका जा सकता है। विद्यालय के स्तर, शिक्षकों की
शिक्षण-विधियों का मूल्यांकन भी किया जा सकता है। इसके द्वारा छात्रों को अपनी
प्रगति और योग्यता का पता लगता रहता है, जिससे उनमें आत्मबोध एवं आत्मविश्वास
का विकास होता है। उससे ही छात्रों को परिश्रम एवं अध्ययन करने की प्रेरणा
प्राप्त होती है। शिक्षकों को अपनी शिक्षणपद्धति और शैक्षिक योग्यता में सुधार
करने का अवसर और महत्व से सम्बन्धित बातों का ज्ञान होता है। अभिभावकों को अपने
बच्चों की उपलब्धियों, ज्ञान, व्यवहार, रुचि और विषय-क्षेत्र का ज्ञान होता है
ताकि वे अपने बच्चों की भविष्य की शिक्षा व्यवस्था उनकी रुचियों के अनुरूप करवा
सकें। यदि वे पिछड़े हुये ज्ञात हो रहे हैं तो उनका विशेष ध्यान देकर शिक्षण
व्यवस्था में परिवर्तन भी करवा सकते हैं। मूल्यांकन की उपयोगिता को निम्नलिखित
दृष्टि से देखा जा सकता है -
1. आत्म-निरीक्षण - मूल्यांकन द्वारा छात्रों एवं शिक्षकों के द्वारा स्वयं
आत्म-निरीक्षण किया जा सकता है। वे अपनी कमियों तथा अच्छाइयों को स्वयं ही
ज्ञात कर सकते हैं। अपनी त्रुटियों को समझकर उन्हें दूर करने का प्रयास कर सकते
हैं। छात्रों को स्वयं अपने कार्यों का मूल्यांकन करके उचित दिशा में जाने का
प्रयास करना चाहिए।
शिक्षक भी अपना आत्म-निरीक्षण करके अपनी शिक्षण-पद्धतियों को दूसरों के साथ
'तुलनात्मक अध्ययन करके निरीक्षण कर सकते हैं और वे अपनी प्रविधियों में सुधार
करके छात्रों को अधिक से अधिक लाभान्वित करने का प्रयास कर सकते हैं।
2- शिक्षा के उद्देश्यों की प्राप्ति - मूल्यांकन के द्वारा ही शिक्षा अपने
उद्देश्यों की प्रगति में 'कितना सफल रही है इस बात को ज्ञात किया जा सकता है।
इस संदर्भ में शिक्षकों का यह परम कर्तव्य है कि वे किस स्तर तक जाने का प्रयास
कर रही है और कहाँ तक पहुँच रही है इसकी जानकारी रखें | उद्देश्यों की प्राप्ति
में मूल्यांकन की अपनी उपयोगिता है।
3- शिक्षकों एवं अभिभावकों की दृष्टि में - शिक्षा में मूल्यांकन प्रक्रिया से
शिक्षकों को कक्षा के सभी छात्रों की प्रगति की सम्पूर्ण जानकारी प्राप्त होती
है और इसके द्वारा वे अभिभावकों को इनके बच्चों की प्रगति एवं कमियों के विषय
में अवगत करा सकते हैं कि किस दृष्टि से उन्हें अतिरिक्त शिक्षण की आवश्यकता
महसूस होती है। यह सब मूल्यांकन के द्वारा ही ज्ञात होता है।
4- शैक्षिक एवं व्यावसायिक निर्देशन में सहायक - शिक्षा में मूल्यांकन
प्रक्रिया द्वारा छात्रों को नवीन दिशा में जाने के लिए व्यक्तिगत, शैक्षिक एवं
व्यावसायिक निर्देशन प्रदान किया जा सकता है। जिससे छात्र का सम्पूर्ण
मूल्यांकन उसकी रुचियों को उजागर करता है और व्यावसायिक निर्देशक के द्वारा
उन्हें सही क्षेत्र के चुनाव का अवसर प्राप्त होता है।
5. पाठ्य-पुस्तकों एवं पाठ्यक्रम की व्याख्या - शिक्षा में मूल्यांकन के द्वारा
ही पाठ्यक्रम की उपयोगिता की जाँच की जाती है और उसके बाद ही उसमें परिवर्तन
एवं परिवर्द्धन किया जाता है। पाठ्यक्रम का कौन सा भाग समय के साथ उपयोगी नहीं
रह गया है या कालातीत हो चुका है। उसको परिवर्तित करने का निर्णय लेने में
मूल्यांकन की बेहद उपयोगिता सिद्ध होती है।
6- शिक्षण-विधियों में सुधार व उन्नति - शिक्षा के लिए प्रयुक्त की जा रही
शिक्षण विधियों की उपयोगिता निश्चित करने के लिए मूल्यांकन ही एकमात्र मार्ग
है। मूल्यांकन के द्वारा ही शिक्षक एवं प्रशासक इस बात का निर्णय कर पाते हैं
कि प्रयोग की जा रही शिक्षण-विधियां छात्रों को कितना ज्ञान प्रदान करने में
सफल हो रही हैं। इस प्रकार शिक्षण विधियों में सुधार किया जा सकता है और
मूल्यांकन से ज्ञात निर्णयों के अनुसार उनमें परिवर्तन भी किया जा सकता है।
भौतिक विज्ञान शिक्षण में वस्तुनिष्ठ मूल्यांकन
(Meaning of Objective Type Examination)
वस्तुनिष्ठ परीक्षायें उन परीक्षाओं को कहते हैं जिनका निर्माण निबन्धात्मक
परीक्षाओं के दोषों को दूर करने के लिए किया जाता है। वस्तुनिष्ठ प्रणाली के
अन्तर्गत बालकों के विषय ज्ञान की उपलब्धि, अभियोग्यता, अभिवशत्ति, अभिरुचि तथा
बुद्धि) आदि की जाँच अभीष्ठ स्थान पर ही प्रश्नपत्र पर लिखे हुये समस्त
पाठ्यक्रम पर आधारित लगभग 100 से लेकर 100 अथवा 200 तक छोटे-छोटे तथा नुकीले
प्रश्नों के लिखित उत्तरों द्वारा थोड़े ही समय में कर ली जाती है। इन
परीक्षाओं के उत्तर निश्चित तथा स्पष्ट होते हैं। अतः इनमें वस्तुनिष्ठता होती
है। इनके मूल्यांकन में किसी प्रकार कोई पक्षपात नहीं दिखाया जाता और न ही इनके
उत्तरों के सम्बन्ध में परीक्षकों में मतभेद हो सकता है। कोई भी परीक्षक उन्हें
जब चाहे जाँचे परन्तु बालकों द्वारा प्राप्त किये हुये अंक न घटेंगे और न
बढ़ेंगे अर्थात् उतने ही रहेंगे। सबसे पहले वस्तुनिष्ठ परीक्षा का लिखित रूप
में निर्माण 'होरास मैन' (Horace Mann) ने सन् 1845 ई. में किया था इसके
पश्चात् जॉर्ज फिशर (Jeorge Fisher), जे.एम. राइस (J.M. Rice) तथा स्टार्च
(Starch) एवं थार्नडाइक (Thorndike) आदि विद्वानों ने शैक्षणिक निष्पत्ति
(Educational Achievement) के मूल्यांकन हेतु सैकड़ों वस्तुनिष्ठ परीक्षायें
बनाई और अब भी बालकों के व्यवहार के प्रत्येक क्षेत्र के विकास को मापने के लिए
विभिन्न प्रकार की वस्तुनिष्ठ परीक्षाओं का प्रयोग किया जा रहा है।
वस्तुनिष्ठ परीक्षा के गुण
(Merits of Objective Type Examination)
वस्तुनिष्ठ परीक्षा के निम्नलिखित गुण होते हैं -
(1) वस्तुनिष्ठता (Objectivity) - ये परीक्षायें निरपेक्ष (Objective) होती
हैं। इन पर परीक्षक की आत्मनिष्ठता (Subjectivity) का कोई प्रभाव नहीं पड़ता
है।
(2) विश्वसनीयता (Reliability) - ये परीक्षायें विश्वसनीय होती हैं। इन
परीक्षाओं को किसी बालक अथवा बालकों के समूह को जितनी बार दिया जाता है उतने ही
बार इनके परीक्षाफलों में सम्बन्ध पाया जाता है।
(3) सरल अंकन (Easy Scoring) - निबन्धात्मक परीक्षाओं में उत्तर-पुस्तकों के
जाँचने में काफी समय लगता है। इसके विपरीत वस्तुनिष्ठ परीक्षा में अंकन कार्य
कुछ ही घण्टों में समाप्त हो जाता है।
(4) वैधता (Validity) - वस्तुनिष्ठ परीक्षायें उसी वस्तु का मापन करती हैं
जिसके मापन के लिए इनका निर्माण किया जाता है। दूसरे शब्दों में ये परीक्षायें
वैध होती हैं।
(5) भविष्यवाणी निश्चित करना (Definite Predicatability) - वस्तुनिष्ठ
परीक्षाओं के परिणामों को देखकर निश्चित रूप से भविष्यवाणी की जा सकती है।
दूसरे शब्दों में, इन परीक्षाओं के परिणामों को आधार मानकर बालकों को उचित दिशा
में पथ-प्रदर्शन किया जा सकता है।
(6) व्यवहारगम्यता (Practicability) - इन परीक्षाओं को लेने में कम समय लगता
है। इन्हें बालक तथा शिक्षक दोनों ही पसन्द करते हैं। अत: ये परीक्षाएँ
व्यावहारिक भी हैं।
(7) व्यापकता (Comprehensiveness) - वस्तुनिष्ठ परीक्षायें सम्पूर्ण
विषय-क्षेत्र का मापन करती हैं। अत: ये परीक्षाएँ निबन्धात्मक परीक्षाओं की
अपेक्षा अधिक व्यापक होती हैं।
(8) लेख तथा शैली का प्रभाव नहीं (No Effect of Writting and Style) -
निबन्धात्मक परीक्षाओं में बालकों के परीक्षाफल पर लेख तथा शैली का बहुत अधिक
प्रभाव पड़ता है। इसके विपरीत वस्तुनिष्ठ परीक्षाओं में बालकों के लेख,शैली
विवेचन, व्याख्या तथा तर्क आदि शक्तियों का कोई प्रभाव नहीं पड़ता है।
वस्तुनिष्ठ परीक्षा के दोष
(Demerits of Objective Type Examination)
वस्तुनिष्ठ परीक्षाओं के दोष प्रमुखत: निम्न प्रकार से हैं-
(1) कठिन निर्माण (Difficult Construction) - वस्तुनिष्ठ परीक्षाओं में प्रश्न
की संख्या सौ से लेकर दो सौ तक होती है। इन प्रश्नों का निर्माण केवल योग्य,
अनुभवी तथा कुशल व्यक्ति ही कर सकते हैं। दूसरे शब्दों में वस्तुनिष्ठ
परीक्षाओं के प्रश्नपत्रों का निर्माण बहुत कठिन होता है।
(2) मानसिक योग्यताओं के मूल्यांकन की कठिनाई (Difficulty of Measuring Mental
Abilities) - निबन्धात्मक परीक्षाओं में बालकों के तर्क, अभिव्यंजन, विचार तथा
आलोचना आदि मानसिक योग्यताओं की जाँच आसानी से की जा सकती है परन्तु वस्तुनिष्ठ
परीक्षाओं में उक्त मानसिक योग्यताओं का मूल्यांकन नहीं किया जा सकता है।
(3) अधूरी सूचना (Partial Information) - इन परीक्षाओं में प्रश्न बहुत छोटे
होते हैं। इनके उत्तरों को या तो चिन्हों में दिया जाता है अथवा एक दो शब्दों
में। इससे परीक्षक को बालकों के विषय में पूरी जानकारी नहीं हो पाती।
(4) अनुमान तथा धोखा (Guessing and Cheating) - इन परीक्षाओं के प्रश्नों के
उत्तर देते समय बालक अधिकतर अनुमान से कार्य करते हैं। कभी-कभी ऐसा भी होता है
कि वे शिक्षक को धोखा देकर दूसरे बालकों की उत्तर-पुस्तकों से नकल भी कर लेते
हैं।
(5) आवश्यकता से अधिक सरल (Over Simplification) - कभी-कभी वस्तुनिष्ठ
परीक्षायें इतनी सरल होती हैं कि कमजोर-से-कमजोर बालक भी इनके प्रश्नों का
बिल्कुल सही उत्तर लिख देते हैं। इससे बालकों के भविष्य का उचित पथ-प्रदर्शन
नहीं हो पाता है।
(6) विचार संगठन का अभाव (Lack of Organization of Thought) - इन परीक्षाओं में
बालक प्रश्नों के छोटे-छोटे उत्तर देते हैं। इससे उनमें न तो कल्पना तथा
मौलिकता चिन्तन का विकास होता है और न ही वे अपने विचार को क्रमिक रूप से
संगठित कर पातेह्रहैं।
वस्तुनिष्ठ परीक्षाओं की विशेषतायें
(Characteristics of Objective Type Examination)
अच्छी वस्तुनिष्ठ परीक्षाओं की विशेषतायें निम्न प्रकार से हैं-
(1) विश्वसनीयता (Reliability) - वस्तुनिष्ठ परीक्षाओं की प्रथम विशेषता उनकी
विश्वसनीयता है। विश्वसनीयता का तात्पर्य यह है कि किसी अमुक परीक्षा का बालकों
पर तथा बालकों का परीक्षा पर सदैव एक-सा प्रभाव रहे। दूसरे शब्दों में, जब कोई
परीक्षा किसी बालक अथवा बालकों के समूह को बार-बार दिये जाने पर भी एक से ही
अंक दे तो ऐसी परीक्षा को विश्वसनीय परीक्षा कहा जाता है।
(2) वैधता (Validity) - वस्तुनिष्ठ परीक्षाओं की दूसरी विशेषता उनकी वैधता है।
यदि कोई परीक्षा अपनी निर्धारित उद्देश्य को प्राप्त नहीं करती तो उसे वैध
परीक्षा नहीं कहा जा सकता। इसके विपरीत यदि कोई परीक्षा केवल उसी गुण का मापन
करती है जिसके मापनार्थ उसका निर्माण किया गया है तो निश्चय ही वह परीक्षा वैध
मानी जायेगी।
(3) वस्तुनिष्ठता (Objectivity) - वस्तुनिष्ठह्नपरीक्षाओं की तीसरी विशेषता यह
है कि इनके फलांकों पर न तो परीक्षक की आत्मनिष्ठता का कोई प्रभाव पड़ता है और
न ही बालकों की मानसिक स्थिति का। अत: यदि कोई परीक्षा बालकों की निष्पत्ति का
निष्पक्ष भाव से मूल्यांकन करने में सफल हो जाती है तो वह वस्तुनिष्ठ है। यदि
किसी परीक्षा में वस्तुनिष्ठता का अभाव है तो वह विश्वसनीय तथा वैध भी नहीं हो
सकती।
(4) व्यापकता (Comprehensiveness) - वस्तुनिष्ठ परीक्षाओं की चौथी विशेषता उनकी
व्यापकता है। दूसरे शब्दों में, इनके अन्तर्गत पाठ्यक्रम का पूर्ण प्रतिनिधित्व
होता है। जिन परीक्षाओं में पाठ्यक्रम के प्रत्येक भाग से प्रश्न न पूछकर केवल
सीमित क्षेत्र से ही प्रश्न पूछे जाते हैं ऐसी परीक्षाओं को व्यापक परीक्षायें
नहीं कहा जा सकता है। इनमें बालकों का सफल अथवा असफल होना बालक के भाग्य पर
निर्भर करता है।
(5) विभेदीकरण (Discrimination) - वस्तुनिष्ठ परीक्षाओं की पाँचवीं विशेषता
विभेद करना है। इसके अन्तर्गत ऐसे प्रश्नों को चुना जाता है जो मन्द, औसत तथा
प्रखर बुद्धि) वाले बालकों में आसानी से विभेद कर सकते हैं। दूसरे शब्दों में,
वस्तुनिष्ठ परीक्षा के प्रश्नपत्र में ऐसे प्रश्न होते हैं जिनमें से कुछ को
मन्द तथा औसत बुद्धि) वाला बालक भी कर सकता है परन्तु कुछ थोड़े से ऐसे प्रश्न
भी होते हैं जिनका सही उत्तर केवल प्रखर बुद्धि) वाले बालक ही दे सकते हैं। इस
प्रकार ये परीक्षायें विभेदकारी होती हैं।
(6) व्यावहारिकता (Practicability) - वस्तुनिष्ठ परीक्षाओं की छठी विशेषता उनका
व्यावहारिक होना है। इन परीक्षाओं में समय की बचत होती है और निबन्धात्मक
परीक्षाओं की अपेक्षा धन भी कम खर्च होता है। बालक भी इन्हें पसन्द करते हैं
तथा शिक्षकों को भी अंक प्रदान करने में कोई कठिनाई नहीं होती। इस दृष्टि से ये
परीक्षायें व्यावहारिक होती हैं।
(7) उपयोगिता (Utility) - वस्तुनिष्ठ परीक्षाओं की सातवीं विशेषता उनकी
उपयोगिता है। चूँकि इन परीक्षाओं का निर्माण किसी उद्देश्य को प्राप्त करने के
लिए किया जाता है इसीलिए उद्देश्य प्राप्त हो जाने पर इनके परिणामों को आधार
मानते हुये बालकों को भविष्य के लिए पथ-प्रदर्शन किया जा सकता है। अत:
वस्तुनिष्ठ परीक्षायें निबन्धात्मक परीक्षाओं की तुलना में अधिक उपयोगी होती
हैं।
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