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ईजी नोट्स-2019 बी. ए. प्रथम वर्ष हिन्दी भाषा प्रथम प्रश्नपत्र

ईजी नोट्स

प्रकाशक : एपसाइलन बुक्स प्रकाशित वर्ष : 2018
पृष्ठ :136
मुखपृष्ठ : पेपरबैक
पुस्तक क्रमांक : 2017
आईएसबीएन :0

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बी. ए. प्रथम वर्ष हिन्दी भाषा प्रथम प्रश्नपत्र के नवीनतम पाठ्यक्रमानुसार हिन्दी माध्यम में सहायक-पुस्तक।

प्रश्न १ . अपभ्रंश भाषाओं की प्रमुख विशेषताओं का निरूपण कीजिए।


उत्तर - अपभ्रंश - मध्यकालीन भारतीय आर्य भाषा काल के तृतीय काल में बोलचाल की भाषाओं से विकसित अपभ्रंश भाषाएँ आती है। अपभ्रंश का अर्थ है बिगड़ा हुआ। संस्कृत के वैयाकरणों ने संस्कृत के अतिरिक्त समस्त भाषाओं को अपभ्रष्ट कहा है, किन्तु भारतीय इतिहास में आभीरों की भाषा को अपभ्रंश कहा गया है। कुछ विद्वानों ने प्राकृत के एक उपरूप के अन्तर्गत अपभ्रंश को महत्व दिया है। अधिकांश विद्वानों के मतानुसार अपभ्रंश प्राकृतों और आधुनिक भारतीय आर्य भाषाओं के बीच की संयोजक कडी है। विभिन्न ग्रन्थों में अपभ्रंश के अन्य नाम 'ग्रामीण भाषा, अवहत्थ, अवहट्ट आदि मिलते हैं। डा० हरदेव बाहरी ने इसे आभीरों की भाषा कहा है, जबकि डॉ० भोलानाथ तिवारी इसे प्राकृत का परवर्ती रूप में मानते हैं। डॉ० सुनीति कुमार चटर्जी के अनुसार साहित्यिक प्राकृतों का ही अपभ्रंश रूप जन-भाषाओं के रूप में विद्यमान था जो आगे चलकर साहित्यिक बना। इस प्रकार जितनी प्राकृतें थी उतने ही उनके अपभ्रंश रूप भी विकसित हुए।
 
अपभ्रंश का काल १००० ई० तक माना जाता है। इसके बाद आधुनिक भाषाओं का काल शुरू होता है। लेकिन आरम्भ के लगभग दो तीन सौ वर्षों की भाषा अपभ्रंश और आधुनिक भाषाओं के बीच की है। इस बीच के काल को 'संक्रातिकाल परवर्ती अपभ्रंश या अवहट्ट नामों का प्रयोग किया गया है। 'अवहट्ट' शब्द संस्कृत शब्द अपभ्रंश का विकसित या विकृत रूप है। इस काल की भाषाएँ व्यवस्थित तथा साहित्यिक रूप ग्रहण कर प्राकृत से मुक्त होकर आधुनिक भाषाओं के निकट आती हैं। इस काल की उपलब्ध कृतियों में 'संदेश रासक प्राकृत पैगलम्, वर्ण रत्नाकर, कीर्तिलता, ज्ञानेश्वरी आदि उल्लेखनीय हैं-

विशेषताएँ

१. अपभ्रंश में प्रायः वही ध्वनियाँ थी, जो संस्कृत से चली आ रही थी तथा उनमें प्राकृतों तक के परिवर्तन तेजी से बढ़े हैं। इसलिए अपभ्रंश का झुकाव संस्कृत की अपेक्षा आधुनिक भारतीय आर्य भाषाओं की ओर अधिक है।
२. अपभ्रंश की प्रवृत्ति आयोगात्मक की है। विभक्तियाँ शब्दों से जुड़ने के बदले परसर्गों के समान अलग से प्रयुक्त होने लगती है।
३. अपभ्रंश की प्रवृत्ति की महत्वपूर्ण विशेषता सरलीकरण की प्रवृत्ति है। इसके कारण कारकों के रूप केवल तीन रह गए। वचन एवं लिंग भी दो रह गये। द्विवचन एव नपुंसक लिंग समाप्त हो गया।
४. अपभ्रंश में तद्भव और देशज शब्दों की संख्या बहुत बढ़ गयी।
५. संस्कृत में संयोगात्मक रूप के कारण शब्द को वाक्य में कहीं भी रख देने से अर्थ पर प्रभाव नही पडता था, परन्तु अपभ्रंश में शब्द का स्थान निश्चित हो गया।
६. अपभ्रंश में दीर्घ, मूर्धन्य व्यंजन तथा महाप्राण व्यंजन लाने की प्रवृत्ति विशेष रूप से परिलक्षित होती है।
७. पुरुषवाचक सर्वनामों में भी कमी आयी।
८. क्रिया काल रूपों में जो विविधता थी वह कम हो गयी। ९. तिडत के बदले कृदत रूपों का प्रयोग होने लगा।
१०. ड, द, न, र के स्थान पर ल' हो गया। जैसे - प्रदीत - पालिन्त ।

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