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ईजी नोट्स-2019 बी. ए. प्रथम वर्ष हिन्दी भाषा प्रथम प्रश्नपत्र

ईजी नोट्स

प्रकाशक : एपसाइलन बुक्स प्रकाशित वर्ष : 2018
पृष्ठ :136
मुखपृष्ठ : पेपरबैक
पुस्तक क्रमांक : 2017
आईएसबीएन :0

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बी. ए. प्रथम वर्ष हिन्दी भाषा प्रथम प्रश्नपत्र के नवीनतम पाठ्यक्रमानुसार हिन्दी माध्यम में सहायक-पुस्तक।

प्रश्न ८. हिन्दी के प्रारम्भिक स्वरूप का वर्णन कीजिए।


उत्तर - हिन्दी का प्रारम्भिक स्वरूप साहित्य राष्ट्र की सामाजिक, सास्कृतिक, राजनीतिक एवं वैचारिक ऊर्जा का सोत होता है। लोक चेतना की अभिव्यक्ति के अन्य माध्यमो की अपेक्षा लोक के अधिक निकट रहने के कारण साहित्य युगीन चेतना को प्रतिबिम्बित करते हुये भावी चिन्तन का प्रेरक तत्व भी बन जाता है। राष्ट्रवाणी में जन-जन की अनुभूतियाँ समाविष्ट रहती है। भाषा ही समाज की ऐसी पूँजी है, जिसका उपयोग हर नागरिक समान रूप से करता है और इसके संशोधन एवं परिवर्धन में प्रत्यक्षतः और परोक्षतः अपना योगदान देता है। वस्तुतः भाषा ऐसा प्रवाह है जिसे जन-जन भागीरथ की भाँति प्रवाहित करते हैं। वैयाकरण उस प्रवाह को केवल परिष्कृत एवं प्राञ्जल बनाने का प्रयास करते हैं। यह प्राञ्जलता भाषा प्रवाह को रोक नहीं पाती। केवल ऐसी झीनी विभाजक रेखा बना देती है जिससे पूर्वापर सम्बन्ध बना रहने पर भी एक अलगाव की प्रतीति होने लगती है। वस्तुतः वैयाकरण भाषा संस्कार के समय पृष्ट प्रमाणों को ग्रहण करता है। लोक प्रवाह इतना प्रखर होता है कि उस पर पैर टिकाना वैयाकरण के वश में नहीं होता अतः वह मंथर गति वाली साहित्यिक चेतना को व्याकरण का आधार बनाता है और लोक चेतना को उसी क्रम में संकेतित करता है। वैदिक साहित्य के प्रणयन के पश्चात् संस्कारित होकर जनभाषा संस्कृत बनी थी। पाणिनी द्वारा संस्कृत भाषा के विकास के पूर्व वैदिक एवं लौकिक साहित्य की परम्परा विकसित हो गई थी। उसके साथ ही जनभाषा भी वैदिक युग से आगे निकल गयी थी। यही नियम भाषा विकास की दृष्टि से हर युग पर लागू होता है।

भाषा विकास के इस क्रम के अन्तर्गत भाषा की तीन कोटियाँ एक ही युग में विद्यमान रहती हैं साहित्यिक भाषा, बोलचाल की भाषा एवं ग्रामीण भाषा अथवा अशिक्षित समूहों की भाषा। प्राचीनकाल में संस्कृत मानक भाषा थी, प्राकृत आम बोलचाल या जनसाधारण की भाषा थी और अपभ्रंश ग्राम्य समूहों की भाषा । ये तीनों भाषा के रूप थे अतः संस्कृत वैयाकरणों ने तीनो रूपों का संकेत किया है। समय पाकर भाषाओं का यह स्वरूप बदलता रहा। संस्कृत परम्परागत भाषा बन गयी, जबकि प्राकृत साहित्य की, और अपभ्रंश बोलचाल की। निश्चित रूप से उस समय अपभ्रंश का भी एक रूप ग्राम्य समूह में बनने लगा होगा। पतंजलि ने अपभ्रंश का उल्लेख किया है। पतंजलि का समय वि० संवत् १२०० वर्ष पूर्व माना जाता है। पतंजलि ने निश्चित रूप से इसे ग्राम्यभाषा के रूप में व्यवहृत किया है। कालान्तर मे दण्डी और भानह के युग तक अपभ्रंश की स्वतन्त्र सत्ता विकसित होने लगी। रुद्रट के समय प्राकृत मानक भाषा बन चुकी थी और अपभ्रंश उसका स्थान ले चुकी थी। अपभ्रंश के लोक भाषा बनने तक ग्राम्य भाषा के रूप में अपभ्रंश के देशी रूप व्यहृत होने लगे थे। अपभ्रंश भाषा के शिष्ट भाषा की कुछ स्थितियाँ विचारणीय हैं।

१. संवत् ११४५ में हेमचन्द्र का जन्म हुआ। उन्होने सिद्ध हेम शब्दानुशासन नामक व्याकरण ग्रन्थ लिखा। जिसमें अपभ्रंश का व्याकरण भी विवेचित हुआ है। इस प्रकार ११५० ई० तक अपभ्रंश शिष्ट भाषा ही नहीं, बल्कि साहित्यिक भाषा के रूप में प्रतिष्ठित हो गयी थी।
२. अपभ्रंश के साहित्यिक स्वरूप के निर्धारण का काल यदि हेमचन्द्र से दो सौ वर्ष पूर्व भी माना जाय तो उस युग में अपभ्रंश का बोलचाल और ग्राम्य समूह भी रहा होगा, जिसका पता नहीं चल सका।
३. आचार्य हेमचन्द्र के समय तक अपभ्रंश चरम उत्कर्ष पर पहुंच चुकी थी। अतः साहित्यिक भाषा के रूप में दूसरी भाषा का विकास अवश्य होने लगा होगा।
 
भाषा वैज्ञानिकों ने ही नहीं हिन्दी साहित्य के इतिहासकारों ने इन मान्यताओं के आधार पर अनुसंधान कार्य प्रारम्भ रखा और उस युग के उन ग्रन्थों का अनुशीलन किया जो मूलत संग्रह निबन्ध थे। ऐसे ग्रन्थों में प्राकृत पैगलम् और पुरातन प्रबन्ध संग्रह प्रमुख हैं। प्राकृत पैंगलम् का संग्रह १४वीं शताब्दी तक हो चुका था। ऐसा प्रतीत होता है कि संकलन का प्रयास किया गया। इस क्रम में प्राकृत और अपभ्रंश से जुड़ा होने पर भी जो साहित्य मिला वह पुरानी हिन्दी का था क्योकि ये छंद मौखिक परम्परा में चले आते रहे होंगे। चूँकि अपभ्रंश जब साहित्यिक भाषा के रूप में उत्कर्ष पर थी तभी द्वितीय स्तर की भाषा के रूप में देशी भाषा का साहित्य भी लिखा जाने लगा होगा और उसका प्रचार लोक परम्परा में ही रहा होगा, जिसका संकलन सर्वप्रथम प्राकृत पैगलम के संग्रहकर्ता ने किया होगा। साहित्यिक भाषा के रूप में द्वितीय स्तर की भाषा में अपभ्रंश ही अपने विकृत रूप में अवहट्ट नाम से व्यवहृत होती थी क्योंकि द्वितीय स्तर की भाषा प्रथम स्तर की भाषा का जन प्रचलित रूप होती है। इस द्वितीय स्तर की भाषा के नीचे तृतीय स्तर की ग्राम्य भाषा भी देशी नाम से विकसित हो रही थी। इस प्रकार भाषा का यह स्तर अधोलिखित रूप में परिकल्पित किया जा सकता है।

प्राचीनकाल
मध्यकाल प्राकृत
अपभ्रंश
आधुनिक काल अपभ्रंश
प्रथम स्तर - संस्कृत द्वितीय स्तर - प्राकृत तृतीय स्तर - विभष्ट
अवहट्ट
अवहट्ट
पुरानी हिन्दी तथा अन्य क्षेत्रीय भाषाएँ।

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