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ईजी नोट्स-2019 बी. ए. प्रथम वर्ष हिन्दी भाषा प्रथम प्रश्नपत्र

ईजी नोट्स

प्रकाशक : एपसाइलन बुक्स प्रकाशित वर्ष : 2018
पृष्ठ :136
मुखपृष्ठ : पेपरबैक
पुस्तक क्रमांक : 2017
आईएसबीएन :0

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बी. ए. प्रथम वर्ष हिन्दी भाषा प्रथम प्रश्नपत्र के नवीनतम पाठ्यक्रमानुसार हिन्दी माध्यम में सहायक-पुस्तक।

प्रश्न ४. भारतीय आर्यभाषाओं का परिचय देते हुए प्राचीन भारतीय आर्यभाषा वैदिक एवं लौकिक संस्कृत का विश्लेषण कीजिए।


उत्तर - हिन्दी की ऐतिहासिक पृष्ठभूमि- विश्व में लगभग तीन हजार भाषाएँ प्रचलित हैं, जिनमें से कई भाषाओं का मूल स्रोत एक ही है। ध्वनि, शब्द, समूह और व्याकरणगत तुलनात्मक अध्ययन विश्लेषण के आधार पर परस्पर संबद्ध भाषाओं की खोज करके विद्वानों ने संसार की भाषाओं को सात परिवारों में विभाजित किया है। इनमें क्षेत्र विस्तार तथा बोलने वालों की संख्या की दृष्टि से 'भारोपीय परिवार' सबसे बड़ा है। भारत से लेकर यूरोप तक विस्तृत होने के कारण इसे 'भारोपीय' नाम दिया गया है। इसी भाषा परिवार से अधिकांश भारतीय ईरानी और यूरोपीय भाषाओं का विकास हुआ है। इसे ही आर्य परिवार कहा जाता है। हिन्दी की ऐतिहासिक यात्रा में इसके उद्भव के प्राचीन सूत्र भारोपीय परिवार से जुड़ते हैं।

आर्यभाषाओं के बोलने वालो के पूर्वज किसी युग में एक ही स्थान पर रहते थे। कालान्तर में इनके अनेक समूह विभिन्न क्षेत्रों में फैल गये और इस क्रम में उनकी एक शाखा भारत में तथा दूसरी शाखा यूरोप चली गयी। १८७० ई में अस्कोली ने इस विभाजन क्रम का प्रतिपादन करते हुए एक निष्कर्ष निकाला कि पश्चिम में जाने वाले समूह में 'क' के स्थान पर पूर्व की ओर जाने वाले समूह ने 'श' या 'स' का उच्चारण बनाये रखा है। इसी आधार पर फान ब्रेडके नामक विद्वान ने एक समूह को शतम् वर्ग और दूसरे को केन्टुम वर्ग कहा है। शतम् वर्ग के अन्तर्गत भारत ईरानी उपपरिवार आता है। इस उपपरिवार की जो शाखा भारत में बसी उससे भारतीय आर्यभाषाओं का विकास हुआ। हिन्दी भाषा का विकास भारतीय आर्यभाषा के तृतीय चरण में आधुनिक भारतीय भाषाओं के साथ हुआ है। इस वर्गीकरण को अधोलिखित रेखाचित्र के आधार पर समझा जा सकता है।

भारोपीय परिवार
शतम वर्ग
केन्टुम वर्ग
भारतीय आर्यभाषा
दरदी ईरानी (कश्मीरी)
(वैदिक संस्कृत)
प्राचीन भारतीय आर्यभाषा
मध्यकालीन भारतीय आर्यभाषा
(पालि, प्राकृत, अपभ्रंश)
आधुनिक भारतीय आर्यभाषा
(गुजराती, सिधी, मराठी, पंजाबी)

हिन्दी, असमी, बंगला, उड़िया) हिन्दी भाषा का विकास भारतीय आर्यभाषा के तृतीय चरण में आधुनिक भारतीय आर्यभाषाओं के उदय के साथ हुआ है, अतः हिन्दी भाषा के विकासक्रम का अवलोकन भारतीय आर्यभाषाओं के विकास के साथ ही किया जा सकता है। सामान्यत यह धारणा बनी हुई है कि संस्कृत सभी भारतीय आर्यभाषाओं की जननी है। वस्तुत: संस्कृत का प्रारम्भ वेदों से हुआ है, जिसका संस्कार हो जाने के कारण उसे संस्कृत कहा जाने लगा। अतः हिन्दी का इतिहास वैदिक काल से प्रारम्भ होता है। वैदिक काल से ही इसका साहित्य मिलने लगता है, जिसके आधार पर भाषाओं का ऐतिहासिक विकास-क्रम निर्धारित किया जाता है। भारतीय आर्यभाषा को तीन कालो में विभाजित किया जा सकता है।

१. प्राचीन भारतीय आर्यभाषा (वैदिक संस्कृत तथा लौकिक संस्कृत :०० ई.पू तक).
२. मध्यकालीन भारतीय आर्यभाषा (पालि, प्राकृत, अपभ्रंश - ५०० ई. पू से १००० ई. तक).
३. आधुनिक भारतीय आर्यभाषा (हिन्दी और हिन्दीत्तर आर्य भाषाये १००० ई. से अब तक)।

१. प्राचीन भारतीय आर्यभाषा : प्राचीन भारतीय आर्यभाषा का विकास २४०० ई.पू. से माना है। आर्यों में द्रविड, आग्नेय, निग्रो, किरात आदि जातियाँ प्रमुख हैं। किरात पहाड़ी जातियाँ थी। ये शांतिप्रिय थे, अतः आर्यों के आगमन के साथ ही वे आर्यों के सहयोगी बन गये। भारतीय आर्यभाषा पर उनकी संस्कृति एवं भाषा का व्यापक प्रभाव पडा। आर्य संस्कृति में यक्ष, गन्धर्व, किन्नर आदि जातियों का वैशिष्टय इसी कारण बना हुआ है। द्रविड़ की भाषाओं का पर्याप्त प्रभाव प्राचीन भारतीय आर्यभाषा पर पड़ा। सामान्यतया भारतीय आर्यभाषाओं में 'ट वर्गीय ध्वनियाँ अनुकरणात्मक शब्दावली, प्रत्ययों एवं समासो की योजना, संयुक्त क्रियाएँ, अनुकर विभक्ति के स्थान पर प्रसंगों का प्रयोग, आदि द्रविड प्रभाव से विकसित हुए है। इस प्रकार प्राचीन भारतीय आर्यभाषा का विकास आर्यों एव द्रविडों तथा अन्य भारतीय मूल के निवासियों के पारस्परिक आदान-प्रदान से हुआ। प्राचीन भारतीय आर्यभाषा के अन्तर्गत भाषा के दो रूप मिलते हैं, वैदिक भाषा तथा लौकिक भाषा ।

(क) वैदिक भाषा : वैदिक भाषा ही मूल प्राचीन भारतीय आर्यभाषा है वैदिक काल में आये आर्यो का मूल ग्रन्थ ऋग्वेद है, अत: ऋग्वेद की भाषा भारतीय आर्यों की प्राचीनतम भाषा का उदाहरण है। इस भाषा का अन्य नाम प्राचीन संस्कृत भी है। यह चारों वेदों, ब्राह्मण ग्रन्थों, अरण्यकों एवं उपनिषदों की भाषा है यह भाषा स्वर प्रधान तथा श्लिष्ट योगात्मक होने के कारण अत्यन्त जटिल मानी जाती है। वैदिक भाषा के साहित्य के पर्याप्त विकसित हो जाने के पश्चात् भाषा को व्यवस्थित करने के लिए व्याकरण की रचना हुई। वैदिक भाषा मूल होने के कारण पर्याप्त अव्यवस्थित थी। उसका व्याकरणिक संस्कार हो जाने के कारण उसका नाम संस्कृत पडा। भाषा का प्रथम संस्कार पाणिनि ने किया। हिन्दी भाषा धारा के विशिष्ट दैशिक और कालिक रूप का नाम है। भारत में इसका प्राचीनतम रूप संस्कृत है, अतः पाणिनि के युग से ही संस्कृत का विकास माना जाता है। इस प्रकार वैदिक भाषा ही मूल भारतीय आर्यभाषा है।

(ख) लौकिक संस्कृत:लौकिक संस्कत वैदिक संस्कृत के परिवर्तित रूप से विकसित हई है। इसे क्लैसिक संस्कृत या देवभाषा भी कहा जाता है। लौकिक संस्कृत का विकास पाणिनि युग से माना जाता है। इस काल में संस्कृत बोलचाल की भाषा थी। लोग संस्कृत में बोलने को गर्व की बात समझते थे। संस्कृत के अस्थिर रूपों की विविधता को एकरूपता प्रदान करने का श्रेय पाणिनि को है। पाणिनि ने संस्कृत भाषा का परिनिष्ठिकरण किया। इनका संस्कृत व्याकरण अष्टाध्यायी इसी प्रयास का प्रतिफल है। पाणिनि ने वैदिक भाषा में प्रचलित सज्ञा, सर्वनाम, विश्लेषण का प्रयोग किया है जिससे वह जन भाषा बन गई। लौकिक संस्कृत में उच्चकोटि का साहित्य रचा गया है। संस्कृत का साहित्य विश्वविख्यात है। पाणिनि काव्यायन और पतंजलि को संस्कृत व्याकरण के मुनिवर की संज्ञा दी गयी। संस्कृत कालान्तर में भारतीय एवं साहित्य की मुख्य भाषा के रूप में प्रतिष्ठित हुई तथा सामान्य बोलचाल में इसका व्यवहार :०० ई पू तक होता रहा, जबकि साहित्य का वर्चस्व अपभश युग (क विद्यमान रहा। जर्मन विद्वान श्लेगेज के अनुसार - "संसार की भाषाओं में कोई भाषा इतनी पूर्ण और उन्नत नहीं है, जितनी कि संस्कृत भाषा ।

विशेषताएँ : प्राचीन भारतीय आर्यभाषा की निम्नलिखित विशेषताएँ है:

(१) भाषा श्लिष्ट योगात्मक थी।
(२) लौकिक संस्कृत में ध्वनियों में सरलीकरण की प्रवृत्ति आई। कुछ शब्दों के अर्थों में भी परिवर्तन हो गया था।
(३) वैदिक में रूप-रचना अत्यन्त जटिल थी। पाणिनि ने एक आदर्श रूप स्वीकार कर जन भाषा बनाई। लौकिक संस्कृत में नियमबद्धता दिखाई देती है।
(४) वैदिक संस्कृत में संगीतात्मक स्वराघात था, लौकिक संस्कृत में बलात्मक स्वराघात विकसित हुआ।
(५) इसमें तीन लिंग और तीन वचन थे।
(६) वाक्य में शब्द का स्थान निश्चित नहीं था।
(७) वैदिक संस्कृत में शब्दों के रूप तीन लिग, तीन वचन तथा आठ कारक के आधार पर बनते थे।
(८) लौकिक संस्कृत में आर्योत्तर प्रभाव के कारण नये शब्दों का आगमन हुआ।

प्रश्न ५ :- मध्यकालीन आर्यभाषाओं का विश्लेषण कीजिए।

अथवा मध्यकालीन भारतीय आर्यभाषाओं की विशेषताएँ बताइये।


उत्तर :  मध्यकालीन भारतीय आर्यभाषा प्राचीन भारतीय आर्यभाषा के व्याकरणिक नियमों की जटिलता के कारण उसका प्रचलन जन सामान्य के लिए कठिन हो गया तथा संस्कृत भाषा विकास के क्रम में जनता से दूर हो गई। इसके साथ ही जन भाषाएँ अबाध गति से विकसित होतीं रहीं। जब जनता में इस अपभ्रष्ट भाषा का प्रयोग बढ़ा तो संस्कृत केवल शिक्षित समुदाय की भाषा हो गई। इस बदलाव के फलस्वरूप :०० ईपूर्व से मध्यकालीन भारतीय आर्यभाषा का उद्भव हुआ, जिसे काल क्रमानुसार तीन भागों में विभक्त किया गया है :

(क) पालि (६०० ई.पू से प्रथम शती तक),
(ख) प्राकृत (प्रथम शती से छठी शती तक),
(ग) अपयश (छठी शती से १०वी शती तक)।

(क) पालि

मध्यकालीन भारतीय आर्यभाषा में सर्वप्रथम पालि भाषा का विकास हुआ। जब संस्कृत साहित्यिक स्तर पर सर्वोत्कृष्ट थी तब पाली भाषा ग्रामीण भाषा के रूप में विद्यमान थी। सर्वप्रथम गौतम बुद्ध ने बौद्ध धर्म का अभियान चलाने के लिए जन वाणी को राष्ट्र वाणी का रूप दिया । पालि भाषा में जब साहित्य रचना हुई तो इसका महत्व बढ़ गया और वह जन भाषा और साहित्य भाषा दोनो रूपो में विद्यमान हो गयी।
 
पालि भाषा का विकास क्षेत्र पाटलीपुत्र को माना गया है. और इसका विकास मागधी के आधार पर माना गया है। पालि का सम्बन्ध बौद्ध धर्म से होने के कारण इसका अधिक प्रचार-प्रसार हुआ। कलिंग, कौशल, उज्जैन, मालवा, विंध्य प्रदेश और मध्य प्रदेश में इसका अधिक प्रचार-प्रसार था। पालि बौद्ध धर्म के प्रसार के साथ न केवल समग्र भारत की भाषा बन गयो वरन उस युग में उसका अन्तर्राष्ट्रीय महत्व हो गया था और उसका प्रसार चीन, जापान, श्रीलका, ब्रह्मा आदि देशो तक था। सम्राट अशोक के अभिलेख इसके ऐतिहासिक महत्व को प्रतिष्ठित करते हैं। पालि में गौतम बुद्ध के उपदेशो के संग्रह, त्रिपिटक कथाएँ, अष्ट कथा जैसे - बौद्ध धर्म के समग्र ग्रन्थ लिखे गये थे।

विशेषताएँ : पालि भाषा की निम्नलिखित विशेषताएँ हैं :

१. पालि में तीन लिंग है, किन्तु वचन दो ही है। पालि में द्विवचन का प्रयोग नहीं होता।
२. स्वरों मे ऋ, ल, ऐ. ओ लुप्त हो गये है।
३. ऋ के स्थान पर कहीं 'उ तथा कहीं अ हो गया है। जैसे - वृद्ध, बुड्ढा, नृत्य - नका।
४. पालि साहित्य देखने से पता चलता है कि आद्यात पालि का एक रूप नहीं रहा।
५. पालि में तदभव शब्दों का प्रयोग अधिक रहा।
६. श, ष, स में केवल 'स' रह गया।
७. बलात्मक आघात का प्रयोग पालि की विशेषता है।
८. पालि में व्याकरणात्मक सरलता की प्रवृत्ति लक्षित होती है।
९. व्यंजनान्त शब्द रूपों का अभाव है। व्यंजनान्त पद स्वरान्त हो गये।
१० आत्मने पद का प्रयोग लुप्तप्राय है, केवल परस्पमेपद का ही बाहुल्य है।

(ख) प्राकृत

मध्यकालीन भारतीय आर्यभाषा के विकास का दूसरा चरण प्राकृत का है। प्राकृत के विकास के साथ भाषाओं का क्षेत्रीय आधार स्पष्ट होने लगा। इस काल में बोलचाल में प्रचलित भाषाओं का विकास हुआ। प्रथम शती के आते-आते पालि भाषा के स्थान पर प्राकृत भाषा का विकास हुआ। प्राकृत महावीर जैन के उपदेशों के साथ ज्ञान, दर्शन और साहित्य की भाषा थी। प्राकृत का अर्थ है जन की भाषा (प्राकृत का अर्थ परिमार्जन रहित, जैसे सभ्य और असभ्य)। प्राकृत अत्यन्त ललित और मधुर भाषा थी। राजेश्वर ने तो यहाँ तक कहा कि संस्कृत भाषा कर्कश और प्राकृत भाषा सुकुमार है तथा स्त्री और पुरुष में जो अन्तर होता है, वही इन दोनों भाषाओं में है। इस काल में क्षेत्रीय बोलियाँ कई थीं, जिनकी संख्या निर्धारित करना कठिन है, जिसमें प्रमुख शौरसेनी, पैशाची, महाराष्ट्री, मागधी और अर्द्ध मागधी है। कालान्तर में इन्हीं प्राकृतो से आधुनिक भारतीय आर्यभाषाओं का विकास हुआ।

१. शौरसेनी : यह प्राकृत मूलतः मथुरा के शूरसेन की आस-पास की बोली थी। पश्चिमी हिन्दी की बोलियों का विकास इसी प्राकृत से हुआ है। इसका विकास वहाँ की पालिकालीन स्थानीय बोलियों से हुआ। इस भाषा में कम परिवर्तन परिलक्षित होता है। इसलिए अन्य प्राकृतों की अपेक्षा यह संस्कृत के अधिक समीप है। संस्कृत नाटकों की गद्य भाषा शौरसेनी ही है। महाराष्ट्री से भी यह काफी बातो में मिलती-जुलती है। आधुनिक हिन्दी के विकास के सूत्र मुख्य रूप से शौरसेनी से ही सम्बन्धित है।

२. पैशाची : पैशाची भारत के सुदूर पश्चिमोत्तर भाग में बोली जाती थी। इस प्राकृत में साहित्यिक रचनाएँ न के बराबर थी। इसे पिशाचों की भाषा के नाम से भी जाना जाता है। पिशाच उन लोगों को कहा जाता था, जिन्होने आर्य संस्कृति को पूरी तरह नहीं अपनाया था। सिन्ध, बिलोचिस्तान और कश्मीर की भाषा पैशाची थी। पैशाची में गुणाढ्य की वृहतकथा लिखी गयी थी, लेकिन उसका पैशाची - मूल पाठ उपलब्ध नहीं है।

३. महाराष्ट्री : महाराष्ट्री मराठी का पूर्व रूप है इसका प्रयोग मध्य प्रदेश में होता है। महाराष्ट्री को उस युग की प्रमुख प्राकृत भाषा माना जाता है। कुछ लोग इसे पद्य भाषा मानते हैं। महाराष्ट्री साहित्य की दृष्टि से सम्पन्न भाषा है। कालीदास, हर्ष आदि के नाटकों के गीतों की भाषा यही है। यही कारण है कि महाराष्ट्री प्राकतो में प्रधान एवं आदर्श भाषा मानी गयी है।

४. मागधी : मागधी मगध की भाषा थी। बिहारी हिन्दी, बँगला, उड़िया तथा असमी का विकास इसी भाषा से हुआ है। नाटकों में इसका प्रयोग छोटे पात्रों के लिए हुआ है। महाराष्ट्री और शौरसेनी की तुलना में मागधी का प्रयोग बहुत कम मिलता है।

५. अर्द्ध मागधी : मागधी एवं शौरसेनी के मध्य की भाषा अर्द्ध मागधी है। यही कारण है कि इसमें दोनों प्राकृतों की प्रवृत्तियां मिलती हैं। अवध और काशी जनपदों की भाषा यही थी। पूर्वी हिन्दी का विकास अर्द्ध मागधी से हुआ है। अर्द्ध मागधी का प्रयोग मुख्यतः जैन साहित्य में हआ है। जैनियों ने इसके लिए 'आर्वी या आदिभाषा का प्रयोग किया है। इसमें अनेक साहित्यिक ग्रन्थ लिखे गये हैं।

विशेषताएँ :

१. प्राकृत भाषाओं में कुछ ध्वनियों में परिवर्तन आया । यद्यपि अनेक ध्वनियों पालि के निकट है, किन्तु कुछ ध्वनियों परिवर्तित हो गई हैं। ध्वनि परिवर्तन सबसे अधिक महाराष्ट्री तथा मागधी में हुए है।
२ प्राकृत में मूर्धन्यीकरण की प्रवृत्ति और बढ़ गयी जैसे - स्थिति - ठिय, पठति - पडिअ दोला, डोला स्थान - ठाण।
३. शब्दों में अर्थ की दृष्टि से भी परिवर्तन हुए।
४. समीकरण लोप और स्वर भक्ति की प्रवृत्तियाँ अधिक मात्रा में दिखाई देती है।
५. 'न का स्थान 'ण' ने लिया ।
६. 'ट का ड तथा 'ठ का 'ढ' हो गया जैसे - घट - घड, मठिका - मढिया।
७. प का 'व' हो गया जैसे - ताप - ताव, लोप - लेव।
८. शब्द मध्यम ख, घ, थ, ध ओर भ के स्थान पर ह रह गया, जैसे - मुख - मुह, गंभीर, गहिर, बधिर - बहिर, कथन - कहण ।
९. द्विवचन का प्रयोग समाप्त हो गया।
१०. प्राकृत में अधिकांश शब्द तद्भव है।
११. प्राकृत में व्याकरणिक नियमों में और सरलता आयी। संस्कृत के सन्धि के नियम शिथिल हो गये और अनावश्यक प्रतीत होने लगे। केवल चार लकारें रह गयी। भूतकाल के तीन भेदों के स्थान पर केवल दो भेद रह गये।

(ग) अपभ्रंश

मध्यकालीन भारतीय आर्यभाषा काल के तृतीय काल में बोलचाल की भाषाओं से विकसित अपभ्रंश भाषाएँ आती हैं। अपभ्रंश का अर्थ है बिगड़ा हुआ। संस्कृत के वैयाकरणों ने संस्कृत के अतिरिक्त समस्त भाषाओं को अपभ्रष्ट कहा है, किन्तु भारतीय इतिहास में आभीरों की भाषा को अपभ्रंश कहा गया है। कुछ विद्वानों ने प्राकृत के एक उपरूप के अन्तर्गत अपभ्रंश को महत्व दिया है। अधिकांश विद्वानों के मतानुसार अपभ्रंश प्राकृत और आधुनिक भारतीय आर्यभाषाओं के बीच की संयोजक कडी है। विभिन्न ग्रन्थों में अपभ्रंश प्राकृतों और आधुनिक भारतीय आर्यभाषाओं के बीच की संयोजक कड़ी है। विभिन्न ग्रन्थों में अपभ्रंश के अन्य नाम 'ग्रामीण' भाषा, अवहत्थ, अवहट्ट आदि मिलते है। डॉ. हरदेव बाहरी ने इसे आभीरों की भाषा कहा है, जबकि डॉ भोलानाथ तिवारी इसे प्राकृत का परवर्ती रूप में मानते हैं। डॉ. सुनीति कुमार चटर्जी के अनुसार साहित्यिक प्राकृत का ही अपभ्रष्ट रूप जन भाषाओं के रूप में विद्यमान था जो आगे चलकर साहित्यिक बना इस प्रकार जितनी प्राकृतें थी उतने ही उनके अपभ्रष्ट रूप भी विकसित हुए।

अपभ्रंश का काल १००० ई तक माना जाता है। इसके बाद आधुनिक भाषाओं का काल शुरू होता है। लेकिन आरम्भ के लगभग दो-तीन सौ वर्षों की भाषा अपभ्रंश और आधुनिक भाषाओं के बीच की है। इस बीच के काल में संक्रातिकाल परवर्ती अपभ्रंश या अवहट्ट नामों का प्रयोग किया गया है। अवहट शब्द संस्कृत शब्द अपभ्रंश का विकसित या विकृत रूप है। इस काल की भाषाएं व्यवस्थित तथा साहित्यिक रूप ग्रहण कर प्राकत से मुक्त होकर आधुनिक भाषाओं के निकट आती है। इस काल की उपलब्ध कृतियों में संदेश रासक, प्राकृत पैगलम, वर्ण रत्नाकर, कीर्तिलता, ज्ञानेश्वरी आदि उल्लेखनीय हैं।

 विशेषताएँ :
 
 १. अपभ्रंश में प्रायः वही ध्वनियाँ थी जो संस्कृत से चली आ रही थी तथा उनमें प्राकृतों तक के परिवर्तन तेजी से बढ़े है। इसलिए अपभ्रंश का झुकाव संस्कृत की अपेक्षा आधुनिक भारतीय आर्यभाषाओं की ओर अधिक है।
२. अपभ्रंश की प्रवृत्ति आयोगात्मक की है। विभक्तियाँ शब्दों से जुड़ने के बदले परसर्गों के समान अलग से प्रयोग होने लगती हैं।
३. अपभ्रंश की प्रवृत्ति की महत्वपूर्ण विशेषता सरलीकरण की प्रवृत्ति है। इसके कारण कारको के रूप केवल तीन रह गये। वचन एव लिंग भी दो रह गये। द्विवचन एवं नपुंसक लिंग समाप्त हो गये।
४. अपभ्रंश मे तदभव और देशज शब्दों की संख्या बहुत बढ़ गयी।
५. संस्कृत में संयोगात्मक रूप के कारण शब्द को वाक्य में कहीं भी रख देने से अर्थ पर प्रभाव नहीं पड़ता था, परन्तु अपभ्रंश में शब्द का स्थान निश्चित हो गया।
६. अपभ्रंश में दीर्घ, मूर्धन्य व्यजन तथा महाप्राण व्यंजन लाने की प्रवृत्ति विशेष रूप से परिलक्षित होती है।
७ पुरुषवाचक सर्वनामों में भी कमी आयी।
८. क्रिया काल, रूपों में जो विविधता थी वह कम हो गयी।
९. तिङत के बदले कृदंत रूपों का प्रयोग होने लगा।
१०. ड, द, न, र के स्थान पर ल' हो गया. जैसे - प्रदीप्त - पालिन्त ।

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