प्रश्न ३- खड़ी बोली का साहित्यिक भाषा के रूप में विकास पर एक निबन्ध
लिखिए।
अथवा खड़ी बोली अपभ्रंश के किस रूप में विकसित हुई है ? समीक्षा कीजिए।
उत्तर - ग्यारहवीं शताब्दी से ही साहित्यिक भाषा के रूप में खड़ी बोली का
विकास होता रहा हिन्दवी, हिन्दई, हिन्दी आदि कई नाम प्रचलित रहे। नाथ-सिद्धों
तथा सन्तों ने खड़ी बोली हिन्दी के विकास में विशष रूप से योगदान दिया। खड़ी
बोली को काव्य भाषा के रूप में दक्खिन के अनेक कवियों ने इसको दक्षिण भारत
में फैलाया। हिन्दी भाषा में लिखने वाले अनेक कवि एवं लेखक मराठा शासकों के
दरबार में रहा करते थे जिनमें समर्थ रामदास निरंजनी का योगदान अधिक प्रसिद्ध
है। गुजरात के प्राणनाथ का विशाल साहित्य भी अब उपलब्ध है। यह सब होते हुए भी
खड़ी बोली' शब्द का प्रयोग पहली बार फोर्ट विलियम कालेज की स्थापना के साथ
हुआ। इसका श्रेय गिलक्राइस्ट को दिया जाता है।(सामान्यतः भाषा और संस्कृति से
अपिरिचित व्यक्ति के लिए इस प्रकार के मौलिक योगदान कठिन होते हैं!)
अठारहवी शताब्दी के अंत में गिलक्राइस्ट कलकत्ता पहुंच चुके थे और वहीं
हिन्दी का पठन-पाठन करते थे। संयोग से जब उनकी नियुक्ति फोर्ट विलियम कालेज
में हो गयी तो इस बहुप्रयुक्त भाषा का नामकरण 'खडी बोली' किया और वहाँ
नियुक्त लल्लू लाल जी को इसमे लिखने का आदेश दिया लगभग इसी समय फोर्ट विलियम
कालेज के डॉ० जान गिलक्राइस्ट तथा सदल मिश्र ने भी इस नाम (खड़ी बोली) का
उल्लेख किया है। सन १८०३ ई० में ही प्रकाशित पुस्तकों में तीन बार खड़ी बोली
का उल्लेख गिलक्राइस्ट ने स्वयं किया - (गिलक्राइस्ट इतने महत्वपूर्ण क्यों
हो गये?)
इन (कहानियों) में से कई खड़ी बोली अथवा हिन्दुस्तानी के शुद्ध हिन्दवी ढंग
की हैं। कुछ ब्रजभाषा में लिखी गईं। (हिन्दी स्टोरी टेलर, भाग २) (विदेशियों
का संदर्भ क्यों? क्या हमारे पास अपनी भाषा को भी जानने वाले लोग नहीं है?)
इस प्रकार सन १८०३ में ही 'खडी बोली' शब्द का प्रयोग पाँच बार किया गया। इसके
बाद सन १८०४ में गिलक्राइस्ट ने लिखा है -
शकुन्तला का दूसरा अनुवाद खड़ी बोली अथवा भारतवर्ष की निराली (खालिस) बोली
में है। हिन्दुस्तानी में इसका भेद केवल इसी बात में है कि अरबी और फारसी का
प्रत्येक शब्द छाँट दिया जाता है।
इसी समय फोर्ट विलियम कालेज के बाहर रहते हुए दो साहित्यकार भी उसी प्रकार की
भाषा में लिख रहे थे जिनके नाम है - *इसके अतिरिक्त अन्य संदर्भ होने और
ढूँढ़े जाने चाहिए।
(१) सदासुख लाल
(२) इंशाअल्ला खाँ
सदासुख लाल उर्दू के अच्छे लेखक थे तो भी उन्होंने खड़ी बोली के उस रूप को ही
महत्व दिया जिसमें अनावश्यक पांडित्य और अन्य बोलियों का चित्रण न हो। इसका
एक उदाहरण निम्नलिखित है - विद्या इस हेतु पढ़ते हैं कि तात्पर्य इसका
सतोवृत्ति है वह प्राप्त हो - इस हेतु नहीं पढ़ते हैं कि चतुराई की बातें
कहके लोगों को बहकावे और फुसलावे और असत्य छिपाइए। व्याभिचार कीजिए और
सुरापान कीजिए।
इंशा ने भी 'रानी केतकी की कहानी' ऐसी ठेठ भाषा में लिखी जिसमे ध्यान रखा गया
कि हिन्दी के अतिरिक्त किसी बाहर की बोली का पुट' न निले। जब हिन्दी गद्य को
ये चार लेखक सम्पन्न कर रहे थे। (दो फोर्ट विलियम कॉलेज में रहते हए और दो
बाहर रहते हुए) तो उसके आस-पास ही नजीर अकबराबादी पद्य में लिख रहे थे। नजीर
भी आगरा में थे और लोकभाषा में श्रीकृष्ण पर भी मुसलमान होते हुए लिख रहे थे।
अब उ० प्र० हिन्दी सस्थान लखनऊ से डॉ० नजीर मुहम्मद के सम्पादन में 'नजीर
ग्रंथावली प्रकाशित हो गयी है। यहाँ यह भी उल्लेखनीय है कि लल्लू लाल जी ने
अनेक ग्रन्थों की रचना की (अथवा पुनर्रचना की?) जिनमे से सिंहासन बत्तीसी,
बेताल पचीसी, शकुन्तला नाटक, माधोनल तथा प्रेमसागर अधिक प्रसिद्ध है।
ब्रजभाषा का व्याकरण भी लिया।
ब्रजभाषा, काव्यभाषा के रूप में इस शताब्दी के अंत तक प्रतिष्ठित रही पर गद्य
पर भी उसकी काव्यात्मकता का प्रभाव बना रहा। ब्रजमण्डल के बाहर के कवि भी
ब्रजभाषा में लिखते थे जिससे क्षेत्रीय प्रभाव भी ब्रजभाषा पर पड़ता रहा।
बुंदेलखण्ड और कन्नौज तो ब्रजमण्डल की सीमा पर स्थित थे पर दूर के प्रदेशों
की शब्दावली भी ब्रज में समाहित होती गयी। रीतिकालीन प्रवृत्तियों के बाद
सामाजिक व सांस्कृतिक समस्याएँ उपस्थित हुईं, जिनके फलस्वरूप नवजागरण की
प्रवृत्तियों का विस्तार हुआ। मुद्रण की व्यवस्था प्रारम्भ होने से काफी बड़ी
संख्या में साहित्य प्रकाशित होना लगा। खड़ी बोली के विकास में ईसाई
मिशनरियों (आश्चर्य है!) का विशेष योगदान रहा। आगरा के समीप सिकन्दरा में
प्रेस भी था और ईसाईयों का प्रचार-प्रसार का केन्द्र भी, सन १८५७ तक सिकन्दरा
से काफी साहित्य प्रकाशित हुआ। उन्नीसवीं सदी की प्रारम्भिक भाषा में
तुकबंदी, लयात्मकता, अलंकारमयता के नाना प्रकार के प्रयोग, अनेक बोलियों के
शब्दों का मिश्रण मिलता है फिर भी सामूहिक प्रयास से ब्रजभाषा के समक्ष खड़ी
बोली अन्तत खड़ी हो गयी। (भाषा नदी की तरह होती है, काल और देश के प्रभाव से
बदलती रहती है, यह मानना ठीक नहीं हैं कि यह परिवर्तन सोचकर किया गया)। यह
ठीक है कि कोई परिनिष्टित या मानक रूप स्थिर नहीं हो सका पर विस्तार खूब हुआ
और फोर्ट विलियम कालेज कलकत्ता के प्रश्रय के कारण मान्यता प्राप्त हुई।
*वैचारिक खोखलापन प्रतीत होता है।
सन् १८०२ में सिविल सेवा के यशस्वी अधिकारी विलियम बटरवर्थ बेली (१७८२-१८६०)
ने हिन्दुस्तानी और हिन्दी का एक ही अर्थ में प्रयोग किया उनको 'हिन्दुस्तान
में कार्यवाही के लिए हिन्दी जबान' शीर्षक निबन्ध पर पन्द्रह सौ रुपये नगद और
मैडल प्राप्त हुआ। बाद में कुछ समय के लिए गवर्नर जनरल भी रहे। उस समय की
अन्तर्राष्ट्रीय संपर्क भाषा भी हिन्दी ही थी।
हिन्दी के लिए इससे अधिक और क्या गौरव की बात थी कि वह उस समय संपर्क भाषा के
रूप में मान्य थी। आगरा व्यापार का बड़ा केन्द्र था। ऐसी स्थिति में
फोर्टविलियम कालेज ने विशेषतः आगरा में हिन्दी (खड़ी बोली) पढ़ाने के लिए
मुंशी (अध्यापक) को बुलाना पड़ा और आगरा की भाषा को महत्व देना पड़ा। 'न्यू
टेस्टामेंट (बाइबिल) का प्रथम हिन्दी अनुवाद सन् १८०७ में प्रकाशित हुआ।
फोर्ट विलियम कालेज की चर्चा के साथ प्राय गिलक्राइस्ट के साथ इतिश्री कर दी
जाती है। प्रो० गिलक्राइस तो बहुत कम समय वहाँ रहे । (जनवरी १८०४ ई० तक) इनके
बाद निम्नलिखित व्यक्तियों ने यह महत्वपूर्ण पद सम्हाला। वैसे कॉलेज तो सन
१९५४ ई० तक चलता रहा -
कैप्टन माउन्ट (६-१-१८०६ से २०-२-१८०८)
कैप्टन टेलर (२२-२-१८०८ से मई १८२३ तक)
कैप्टन विलियम प्राइस (२३-५-१८२३ से दिसम्बर १८३१ तक)
इसी समय सन् १८२६ मे वहाँ के प० गंगाप्रसाद शुक्ल ने हिन्दी भाषा का शब्दकोश
संकलित किया। इससे पहले कैप्टन टेलर ने सन १८०८ में हिन्दुस्तानी-अंग्रेजी
कोश बनाया था और विलियम हन्टर ने इसको दोहराया था। इस दिशा में शेक्सपियर का
कोश भी महत्वपूर्ण है। १६वीं सती के मध्य में दो साहित्यकारों का नाम आता है।
प्रथम राजा शिवप्रसाद सितारे हिन्द तथा द्वितीय राजा लक्ष्मण सिह । राजा
शिवप्रसाद ने हिन्दी और उर्दू को एक साथ लाने का प्रयास किया तो लक्ष्मण सिंह
ने संस्कृत की तत्समता को। सितारे हिन्द ने हिन्दी को शिक्षा जगत में आगे
बढ़ाने के प्रयास में कई ग्रन्थों की रचना की। जिसमें राजा भोज का सपना अधिक
प्रसिद्ध है। इनके प्रयास से भाषा अपने पुराने ढर्रे तथा पंडितापन से मुक्त
हो चली।
राजा लक्ष्मण सिंह की दिशा शिवप्रसाद जी के विपरीत थी। ये हिन्दी भाषा में
शुद्धता का पक्ष लेते थे तथा उर्दू को मुसलमानों की भाषा कहते थे। उन्होने
शकुन्तला नाटक तथा मेघदूत का अनुवाद विशुद्ध हिन्दी में किया। राजा लक्ष्मण
सिंह का विचार था कि 'हमारे मत में हिन्दी और उर्दू दो बोली न्यारी-न्यारी
है। हिन्दी इस देश के हिन्दू बोलते हैं और उर्दू यहाँ के मुसलमानो और पारसी
पढ़े हुए हिन्दुओं की बोलचाल है। हिन्दी में संस्कृत के पद बहुत आते हैं
उर्दू में अरबी पारसी के परन्तु कुछ आवश्यक नहीं कि अरबी फारसी के शब्दों के
बिना हिन्दी न बोली जाये और न हम उस भाषा को हिन्दी कहते है जिसमें अरबी
फारसी के शब्द भर हों।
भाषा के इसी रूप के पक्षधर हुए स्वामी दयानन्द सरस्वती, पं० भीमसेन शर्मा,
अम्बिका दत्त व्यास आदि हैं। आज अनेक विद्वानों ने इसी शैली को परिष्कृत कर
अपनाया है। भाषा को परिनिष्ठित रूप देने में उक्त दोनों धुवों ने बाधा
पहुँचायी। धीरे-धीरे खड़ी बोली व्यवहारिक रूप की ओर अग्रसर हुयी।
कविवचन सुधा के प्रकाशन से नई पत्रकारिता को प्रोत्साहन मिला। ब्रजभाषा के
साथ-साथ खड़ी बोली में काव्य रचना होने लगी। काव्यभाषा के सन्दर्भ में
अयोध्या प्रसाद खत्री की खड़ी बोली का आदोलन उल्लेखनीय है। खड़ी बोली कविताओं
का संकलन (सन् १८८७ में) प्रकाशित हुआ जो बाद में सजधज के साथ इग्लैण्ड में
प्रकाशित हुआ। पिन्काट ने इस संकलन की भूरि-भूरि प्रशसा की। बाद मे तो श्रीधर
पाठक भी खड़ी बोली में काव्य रचना करने लगे। सन् १८८६ में 'एकान्तवासी योगी
को खड़ी बोली में प्रस्तुत किया।
कविता नई चालों मे ढलने लगी। कवियों का झुकाव खडी बोली की ओर होने लगा।
भारतेन्दु स्वयं खड़ी बोली में काव्य रचना करने में संकोच करते थे उन्हें भय
था कि कही इस बहाने उर्दू ही न आ जाये। भारतेन्दु ने शिवप्रसाद सितारे हिन्द
और राजा लक्ष्मण सिंह की संस्कृतनिष्ट हिन्दी के बीच में से मध्यम मार्ग
निकाला भाषा में न पंडिताउपन हो और न उर्दू शैली की निकटता । भाषा में से
हिन्दीपन न जाने पाये, इस बात का भरसक प्रयत्न किया। खड़ी बोली को क्लिष्ट
प्रयोगों और पांडित्य से मुक्त रखा। साधु शैली का रूप निश्चित किया और उसे
'नये चाल की हिन्दी की संज्ञा सन् १८७३ में प्रदान की। निज भाषा उन्नति अहै
सब उन्नति को मूल को मंत्र देने वाले भारतेन्दु की सर्वत्र प्रशंसा हुई।
भारतेन्दु ने एक साथ कई प्रकार की गद्य शैलियों को अपनाया। भारतेन्दु की भाषा
में सामाजिक यथार्थ प्रस्तुत हुआ है और चुभता व्यंग्य भी। फारसी शब्दों से भी
उन्हें परहेज नहीं था। (खुदा इस आफत से जी बचाये) तत्सम-तदभव से युक्त भाषा
(यदि हमो भोजन की बात हुई तो भोजन का बधान बाँध देंगे।) कहीं-कहीं अंग्रेजी
शब्दों का समुचित प्रयोग (कपिमयों के सैकड़ों गैंग), संस्कृतनिष्ठता (अनवरत
आकाश मेघाच्छन्न रहता है।) आदि अनेक भाषा के शैली रूप उनके साहित्य में चलते
रहे। उनके परिकर में बद्रीनारायण मिश्र, राधाचरण गोस्वामी, तोताराम, बालकृष्ण
भट्ट आदि प्रमुख साहित्यकार हैं।
राधाचरण गोस्वामी वृन्दावन के होने के नाते ब्रजभाषा में निष्णात थे और शुद्ध
हिन्दी एक पक्षधर थे। राधाकृष्ण दास भी नाटकों में पात्रानुकूल भाषा अपनाते
थे वैसे उन्हें संस्कृतनिष्ठता प्रिय थी। बालकृष्ण भट, प्रतापनारायण मिश्र,
तोताराम, लाला श्रीनिवास दास चलती भाषा अपनाते थे जिससे प्रभावी हो सकें।
प्रतापनारायण मिश्र की भाषा सभी को आकर्षित करती थी। भाषा में पूर्वीपन की
झलक है। व्यंग्यात्मक भाषा लिखने में सिद्धहस्त थे। भाषा का प्रांजल स्वरूप
दृष्टव्य है।
यह तो समझिये यह देश कौन है? वहीं न? जहाँ पूज्य मूर्तियाँ भी दो-एक छोड़
चक्र या त्रिशूल व खड़ग व धनुष से खाली नहीं है, जहाँ धर्म ग्रन्थ में भी
धनुर्वेद मौजूद । बालकृष्ण भट्ट अच्छे निबन्धकार थे। किसी भी विषय पर बड़ी
कुशलता से लिख लेते थे। हिन्दी का निबन्ध साहित्य बिना बालकृष्ण भटट के अधूरा
ही माना जायेगा। अपने विचारों की पुष्टि के लिए संस्कृत के उद्धरण देते थे।
शुद्ध हिन्दी के पक्षधर होते हुए भी उनके निबन्धों में इसके उदाहरण मिल जाते
हैं। भटट जी ने अपने लेखन से हिन्दी को गौरव दिलाया और दिखा दिया कि खड़ी
बोली भी साहित्यिक भाषा के रूप में प्रतिष्ठित हो चुकी है। श्रीनिवास दास ने
उपन्यास लिखा। तोताराम ने विविध समाजोपयोगी सामग्री से हिन्दी साहित्य के
भण्डार को भरा। भारतेन्दु परिकर के पूर्व-पश्चिम दोनों ही क्षेत्रों के
साहित्यकार थे। मथुरा के श्रीनिवासदास, अलीगढ़ के तोताराम, वृन्दावन के
राधाचरण गोस्वामी आदि पश्चिमी हिन्दी क्षेत्र का प्रतिनिधित्व करते थे तो
गोपाल राम, बद्रीनारायण चौधरी. पं० प्रतापनारायण मिश्र आदि पूर्वी क्षेत्र
का। उल्लेखनीय बात यह थी कि कोई भी लेखक किसी भी क्षेत्र का हो, उस क्षेत्र
की बोली के प्रभाव से मुक्त होकर खड़ी बोली में रचना कर रहा था।
देवकीनन्दन खत्री अपने उपन्यासों के माध्यम से हिन्दी का प्रचार कर रहे थे।
फारसी के कठिन शब्दों के प्रयोग से अपने को बचाते हुए उपन्यास लिखने प्रारम्भ
किये।
लगभग सभी लेखक पत्रकार जगत से जुड़े हुए थे। जन साधारण सरलता से समझ सकें
इसलिए भाषा सहज व सरल अपनायी गयी। भाषा का प्रचार-प्रसार उनका उद्देश्य नहीं
था, परंतु समय के साथ साहित्य के माध्यम से इसको प्राप्त किया। यह सब होते
हुए भी खड़ी बोली पूरी तरह से ब्रजभाषा के प्रयोगों तथा पूर्वी हिन्दी के
प्रयोगों से मुक्त नहीं थी। अरबी-फारसी की शब्दावली का यथावश्यक प्रयोग भी
चलता रहा। अंग्रेजों के आगत शब्द भी बढ़ते गये, जैसे- पालिसी,फीलिंग, लालटेन,
गिलास आदि।
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