प्रश्न २. हिन्दी के विकास में अपभ्रंश के योगदान की समीक्षा कीजिए।
अथवा
हिन्दी पर अपभ्रंश का क्या प्रभाव पड़ा? स्पष्ट कीजिए।
उत्तर - आदिकाल में अपभ्रंश और संस्कृत साहित्य भी हिन्दी साहित्य के साथ
लिखा जा रहा था। साधारण जनता अथवा हिन्दी कवियों पर संस्कृत साहित्य का
प्रभाव कुछ नहीं पड रहा था किन्तु अपभ्रंश के हिन्दी के निकट होने के कारण
साहित्यकारों एवं हिन्दी साहित्य दोनों पर प्रभाव पड़ रहा था। अतः यह निरन्तर
साथ चलने वाली पृष्ठभूमि का कार्य कर रहा था। आचार्य रामचंद्र शुक्ल ने तो
अपभ्रंश काल के अंतर्गत अपभ्रंश एवं प्रारम्भिक हिन्दी दोनों की रचनाओं को
सम्मिलित कर लिया था। पर नई खोजों से यह साफ हो चुका है कि उनमें से कुछ
रचनाएँ प्रारम्भिक हिन्दी के अन्तर्गत स्वीकार की जा चुकी है और शेष को
अपभ्रंश साहित्य में स्थान मिलना चाहिए। स्वयंभू, पुण्यदन्त, धनपाल, माहिल,
कनकामर, अब्दुल रहमान, जिनदन्त सूरी, जोइन्द, रामसिह, लक्ष्मीचन्द या देवसेन,
लुई या सिद्ध कवि युसुफ किलपाद, दीपंकर श्री ज्ञान, कृष्णाचार्य, धर्मपाद,
टेटैया महीधर, कम्बलम्बावाद अपभ्रंश के कवि हैं।
स्वयंभू ७८३ ई० के आस-पास माने जाते है। उनके जन्म, मृत्यु. जन्म स्थान के
विषय में कुछ ज्ञात नहीं। डॉ० देवेन्द्र जैन, उन्हें कर्नाटक का मानते हैं।
उनके तीन ग्रन्थ प्रसिद्ध हैं - 'पउम चरिउ', 'रिटठणोमि - चरिउ' और 'स्वयंभू
छंद । पउमचरिउ तो अधूरा है। इसमें राम के चरित्र का चित्रण विस्तार से किया
गया है। कथा के अन्त में राम का निर्वाण भी है। इस ग्रन्थ का उपदेश है कि राग
से दूर रहकर ही मोक्ष की प्राप्त सम्भव है। राम कथा के सत्यों का पालन इसमे
नहीं मिलता। लेकिन राग-विराग की दार्शनिक स्थितियाँ इसमें अवश्य मिलती है ।
अपभ्रंश के दूसरे कवि पुष्पदन्त हैं। ये शैव थे किन्तु बाद में जैन हो गये
थे। उनकी तीन रचनाएँ मिलती हैं - 'महापुराण', 'व्यकुमार चरिउ और जसहर चरिउ'।
इन रचनाओं का प्रणयन उद्देश्य धार्मिक है। इनमें भक्ति का प्राधान्य है।
महापुराण में ३३ महापुरुषों की जीवन की घटनाओं का वर्णन है। इसमे प्रसंगवश
राम, कृष्ण का भी वर्णन है। इसमे हमें हिन्दी के अंकुर फूटते नजर आते है।
पडु तडि-वडण पडिय वियडायल सज्जिय सीह दाउणों।
णाच्चिय मत्त मोर कल-कल रव पूरिय सयल काणणो।।
पुष्पदत की रचनाएँ शुद्ध धार्मिक है। महापुराण के प्रथम अध्याय में वे लिखते
हैं - 'भैरव राजा की स्तुति में काव्य बनाने से जिस मिथ्या ने जन्म लिया था,
उसे दूर करने के लिए मैंने महापुराण की रचना की है।" राजस्तुति से दूर रहकर
शुद्ध धार्मिक भाव से कविता कहने की प्रवृत्ति यहीं से हिन्दी को प्राप्त
हुई। कहा जा सकता है कि आदिकाल में भी एक धार्मिक भावना बही है जो भक्ति भाव
में पूर्ण चरमोत्कर्ष पर पहुंची।
अपभ्रंश के तीसरे कवि थे "धनपाल" । इन्होंने "भविसयत्तकहा' की रचना की।
यद्यपि इसकी आत्मा में भी धर्म भावना है, तथापि लोकहृदय की विभिन्न स्थितियों
के चित्र भी इसमें उकेरे गये हैं। इसमें एक वणिक की कथा को स्वाभाविक घटनाओं
के संयोजन द्वारा हृदय के विभिन्न घात-प्रतिघातों की अभिव्यक्ति में पूर्ण
सफलता से व्यक्त किया गया है | धनपाल की यह रचना चरित काव्यों की नई कड़ी है।
इसका प्रभाव उनके समय के बाद की रचनाओं पर पड़ता है।
अब्दुल रहमान अपभ्रंश साहित्य के महत्वपूर्ण एक समर्थ कवि है। इन्होने संदेश
रासक लिखा। इससे हिन्दी साहित्य को विशेष प्रेरणा प्राप्त हुई। बारहवीं शती
का उत्तरार्द्ध और तेरहवीं शती का आरंभ इस गन्थ का रचना समय माना जाता है। यह
खण्ड काव्य है। इसमें विक्रमपुर की वियोगिनी की विरह कथा है। हिन्दी साहित्य
मे श्रंगार परम्परा आदिकाल से होती हुई ही रीतिकाल तक पहुँची है।
अपभ्रंश में चरित काव्यों से अलग एक रास की परम्परा भी शुरू हुई थी। बारहवी
शताब्दी का उपदेश रसायन रास इस दृष्टि से उल्लेखनीय है। इसमें ८० पद्य है। यह
नृत्य गीत काव्य रासलीला की और ले जाता है, सूर के काव्य में कृष्ण लीला की
कड़ी इसी अपभ्रंशकालीन रचना से जुड़ती है। अपभ्रंश में दोहा काव्य की परम्परा
भी थी। जोइंदु कवि की छठी शताब्दी की रचना परमात्मप्रकाश और योग सार से इस
दोहा परम्परा का आरम्भ होता है और यह परंपरा पंद्रहवीं शताब्दी तक चलती है
ग्यारहवीं शताब्दी में रामसिंह ने पाहुउ दोहा नामक ग्रन्थ लिखा। इसमें
इन्द्रिय सुख एव शारीरिक सुख की निन्दा की गई और त्याग तथा आत्मज्ञान पर बल
दिया गया।
इस प्रकार जोइंदु से आरंभ होकर पाहुउ पद्धति आदिकाल से रीतिकाल तक लगातार
चलती रही।
सारांश यह है अपभ्रंश साहित्य का परवर्ती साहित्य पर अक्षु्ण प्रभाव है और
इसे महत्व देने में डॉ पीताम्बरदत बड्श्वाल, पं. चन्द्रधर शर्मा गुलेरी,
राहुल सांकृत्यायन, आचार्य हजारी प्रसाद द्विवेदी का महत्वपूर्ण योग है।
जर्मन के विद्वान पिशेल तो यही कहते रहे कि यह अब काल कलवित हो गया है। यह तो
-१९१३-१४ मे अहमदाबाद जैन भंडार में डॉ हरमन याकोबी को भविष्यन्त - कहा' और
राजकोट में 'नेमिनाथ चरित' मिल गये और धीरे-धीरे संदेश रासक' ब्रज स्वामि
चरित चच्चरी भावना सार' 'परमात्मप्रकाश', 'पउमसिरी', 'चरिउ हरवंश पुराण',
'जायकुमार चरिउ, करंकड चरिउ, जसड़ दोहा" मिलते चले गये और फिर पता चला कि
अपभ्रंश साहित्य की अनेक विशेषताएँ परवर्ती हिन्दी साहित्य में धरोहर के रूप
में सुरक्षित है। अपभ्रंश साहित्य के अध्ययन से ही पता चला कि अपभ्रंश भाषाओं
से ही भारत की आधुनिक भाषाओं में से अधिकांश का सम्बन्ध रहा है। कथा साहित्य,
काव्य छंद और काव्य रूप प्रभावित हुए हैं। पृथ्वीराज रासो' पर अपभ्रंश का
प्रभाव स्पष्ट है। प्रेम सम्बन्धी काव्य रूढियों का समावेश रासो में देखा जा
सकता है। जैन साहित्य में रास (आश्चर्य है कि मन और इंद्रियों को जीतने की
बात करने वाले जैन रासों अर्थात् मन के आसक्त होने की बात करने लगे?) नामक
अनेक रचनाएँ अपभ्रंश भाषा में ही मिलती हैं, संत कवियों पर, सिद्धों और
नाथ पथियों के अपभ्रंश भाषा में लिखित काव्य का स्पष्ट प्रभाव है। 'ढोला मारु
रा दुहा राजस्थानी में लिखे साहित्य का प्रभाव कबीर की साखी पर पड़ा। तुलसी
के रामचरितमानस पर प्रत्यक्ष या परोक्ष रूप में प्रभाव देखा जा सकता है। गुरु
वंदना के बाद रामकथा के आरम्भ की शैली अपभ्रंश के साहित्य में खोजी जा सकती
है। केशव की रामचन्द्रिका के विविध छन्दों का प्रयोग इसलिए है कि उन पर
अपभ्रंश की रचना जिन दत्त चरित्र का प्रभाव है। उसमें भी उसी तरह छंद
परिवर्तन जल्दी जल्दी (भाषा की शैली आवश्यक नहीं कि किसी और से प्रभावित हो,
कभी-कभी लेखक शब्दों के आयोजन में अधिक प्रयास न करके जैसे हो पाया, वैसे लिख
या बना देता है) होता है, जैसे रामचन्द्रिका में होता है। गाथा सप्तशती से तो
सूर के अनेक पद मिलते है। अपभ्रंश लोकगीत परम्परा का प्रभाव मीरा पर भी पड़ा
है। अपभ्रंश काव्य परम्परा में सौन्दर्य का चित्रण जिस प्रकार का है, वह
रीतिकालीन कविता की नायिका से मिलता-जुलता है। अतः इस दृष्टि से भी रीतिकाल
अपभ्रंश साहित्य का ऋणी है। अपभ्रंश काव्य की शैली जायसी के पदमावत में
बारहमासा लिए हुए है। तुलसी की रामचरितमानस की रचना शैली स्वयंभू की जैन
रामायण से मिलती-जुलती है। अपभ्रंश की कड़वक पद्धति का प्रयोग जायसी के
पदमावत, तुलसी के रामचरितमानस में मिलता है। सूर-साहित्य में भी अपभ्रंश के
कई छन्दों का प्रयोग है । दीनदयाल गिरि की कुडलियाँ भी अपभ्रंश साहित्य की
ऋणी है। अपभ्रंश का दूहा छंद है । परवर्ती साहित्य में दोहा कहलाया सोरठा भी,
अपभ्रंश से ही आया है। अपभंश का अड़िल्ल छंद ही बाद में चौपाई बना। अपभ्रंश
का उल्लाला ही रोला छंद कहलाया। अपभ्रंश की दार्शनिक बुद्धिवादी परम्परा से
ही हिन्दी में प्रस्तुत अप्रस्तुत का विधान संभव हुआ। अपभ्रंश के कारण ही
हिन्दी में ध्वन्यात्मक प्रयोग किये गये। अपभ्रंश के अनेक मुहावरे, कथानक,
रूढ़ियाँ परवर्ती काव्य में खोजे जा सकते हैं। यानी अपभ्रंश साहित्य का
परवर्ती हिन्दी साहित्य के भाव पक्ष और कलापक्ष पर अक्षुण्य प्रभाव है।
अपभ्रंश ने जैसे संस्कृत साहित्य में बहुत कुछ पाया वैसे ही हिन्दी ने भी
अपभ्रंश से बहुत कुछ प्राप्त किया।
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