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ईजी नोट्स-2019 बी. ए. प्रथम वर्ष प्राचीन इतिहास प्रथम प्रश्नपत्र

ईजी नोट्स

प्रकाशक : एपसाइलन बुक्स प्रकाशित वर्ष : 2018
पृष्ठ :136
मुखपृष्ठ : पेपरबैक
पुस्तक क्रमांक : 2011
आईएसबीएन :0

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बी. ए. प्रथम वर्ष प्राचीन इतिहास प्रथम प्रश्नपत्र के नवीनतम पाठ्यक्रमानुसार हिन्दी माध्यम में सहायक-पुस्तक।


(4) सिकन्दर का आक्रमण (Alexander's Invasion)

प्रश्न 1. सिकन्दर का जीवन-परिचय दीजिए।
अथवा
सिकन्दर के आक्रमण के विषय में आप क्या जानते हैं ?
2. भारत पर सिकन्दर के आक्रमण का संक्षिप्त वर्णन कीजिए।
3. सिकन्दर व पुरु के बीच हुए युद्ध के क्या कारण थे?
4. सिकन्दर एवं झेलम के युद्ध का वर्णन कीजिए।
5. भारत से लौटते समय सिकन्दर को मार्ग में किन कठिनाइयों का सामन करना पड़ा ?
6. सिकन्दर की मृत्यु के बाद उसके शासन की क्या स्थिति हुई ?
7. सिकन्दर तथा पुरु के सम्बन्धों पर टिप्पणी लिखिए।

उत्तर -
सिकन्दर का उदय
(Rise of Alexander)

जीवन परिचय - सिकन्दर मकदूनिया के शासक फिलिप का पुत्र था। इसकी शिक्षा-दीक्षा प्रख्यात दार्शनिक अरस्तू ने की फिर भी इसका प्रभाव सिकन्दर पर अधिक न पड़ा। सिकन्दर बड़ा ही महत्वाकांक्षी राजा था। 335 ई. पू. फिलिप की मृत्यु के बाद 20 वर्ष की आयु में सिकन्दर मकदूनिया का राजा बना। वह अपनी विजयों के द्वारा अपनी कीर्ति बढ़ाना चाहता था। सिकन्दर ने सिंहासनारोहण के शीघ्र पश्चात् ही विशाल सेना को एकत्र किया जिसमें 30,000 पैदल सैनिक और 51,000 अश्वारोही लेकर 331 ई. पूर्व विजय के लिए चल पड़ा। 331 ई. पू. के वसन्त में गैगमेला (Gaugamela) अथवा अरवेला (Arbelaya) के युद्ध में हखमी साम्राज्य को उखाड़ और 330 ई. पूर्व में पर्सियोन्विस के विशाल राजप्रसाद को भस्मसात् कर सिकन्दर ने अनेक वीर. कथाओं के नाम हेरैक्लिज (Herakles) तथा डियानिसस (Dionysos) से भी अलग अपनी भारत विजय की महत्वाकांक्षा को चरितार्थ करने की तैयारियां कीं। पहले सीस्तान पर अधिकार कर वह सहसा दक्षिणी अफगानिस्तान पर टूट पड़ा और वहाँ मार्गों की सन्धि पर उसने अराकोसियों का सिकन्दरिया नामक नगर बसाया जिसका आधुनिक प्रतिनिधि कन्दहार है। अगले वर्ष वह अपनी अजेय सेना के लिए काबुल की उपत्यका में आ उतरा, परन्तु भारतीय सीमा लांघने के पूर्व अभी उसे वछलीक का विरोध कुचल देने के बाद वह फिर भारत की ओर मुड़ा। दस दिनों में हिन्दुकुश लांघकर सिकन्दर सिकन्दरिया पहुँचा जिसे उसने 329 ई. पूर्व में बसाया था। फिर व सिकन्दरिया और काबल नदी के बीच स्थित निकाइया (Nikaia) की ओर बढ़ा। काबुल नदी से जाने वाले मार्ग सिकन्दर ने अपनी सेना को दो भागों में बांटा। इनमें से एक तो अपने विश्वस्त सेनानियों हेफीस्लियन (Hephaeslion) और पर्दिक्कस (Perdikkas) को सुपुर्द कर उसने सिन्धु नदी पर सेना के सकुशल अवतरण का पुल बांधने को भेजा, दूसरा दल स्वयं लेकर वह भारतीय सीमा की ओर विजय के लिए बढ़ा।

सिकन्दर की अस्पसिओई (Aspasioi) की विजय - अलिसांग-कुनार की घाटी अस्पसिओई (ईरानी अस्प-संस्कृत का अश्व) जाति की सिकन्दर ने सर्वप्रथम विजय की और उनके 40,000 पुरुष बन्दी कर लिए और 2,30,000 बैल छीन लिये। इनमें से सुन्दर बैलों को चुनकर उसने कृषि कार्य के अर्थ में मकदूनियाँ भेज दिया। एरियन (Arrian) इतिहासकार लिखता है कि इनके साथ लड़ाई तीखी हुई न केवल इसलिए कि भूमि पहाड़ी थी वरन् इस कारण कि भारतीय इस भू-भाग में सबसे प्रवर योद्धा थे।

नीसा की विजय - सिकन्दर ने दूसरा आक्रमण पर्वतीय राज्य नीसा (Nysa) पर किया जो सम्भवतः कोहे मोर की घाटी और ढाल पर बसा था। इसका शासन 300 अभिजात कुलीन करते थे। इसका प्रधान अकूफिस (Akouphis) था। नीसी लोगों ने सिकन्दर के प्रति तत्काल आत्मसमर्पण कर दिया और उसकी सहायता के लिए 300 घुड़सवार भी भेंट किये। वे अपने को डियोनिस का वंशज कहते थे, इसके प्रमाण में उन्होंने अपनी भूमि पर फैली हुई 'आइबी' (Iby) लता दिखायी और नगरवर्ती पर्वत का नाम ग्रीक मेरोस (Meros) की भाँति 'मेरो' बताया। इससे सिकन्दर के गर्व को सन्तुष्टि मिली, और उसने अपनी सेना के साथ वहाँ विश्राम किया तथा दूर के वंशजों के साथ पानोत्सव आदि करने की अनुमति दी।

अस्सकेनोइयो (Assakenoi) की पराजय - आगे बढ़ते हुए सिकन्दर के अस्सकेनोइयो (संस्कृत अश्वक अथवा अस्मक, सम्भवतः अस्पसओइयों की शाखा अथवा सम्बन्धी) को परास्त किया। जिन्होंने 20,000 हयदल, 30,000 पैदल तथा 30 गज सेना को लेकर उसका मुकाबला किया था। उनका दुर्ग मस्सग (Massaga) प्रकृति द्वारा सुरक्षित होने के कारण अजेय समझा जाता था। इसके पूर्व में 'खड़े किनारों वाली तीखी पहाड़ी नदी बहती थी और दक्षिण तथा पश्चिम में प्रकृति ने विशाल चट्टानों के अम्बार खड़े कर दिये थे जिनके नीचे दलदल और गहरी दरारें भरी थीं, इन प्राकृतिक साधनों पर भी अपनी रक्षा का भार न छोड़कर गहरी खाई और मोटी दीवार बनाई थी, दुर्गपाल ने सिकन्दर को बुद्धि की चेतावनी दे दी थी। सिकन्दर घबरा गया था परन्तु अस्सकेनस (Assakenos) की बाण द्वारा आकस्मिक मृत्यु हो जाने पर दुर्ग पर सिकन्दर का अधिकार हो गया था। ऐसा विदित होता है कि सिकन्दर ने दुर्गपाल की पत्नी से रोमांचक सम्बन्ध स्थापित किये थे। कुछ दिनों बाद उसने एक बालक को जन्म दिया जिसका नाम विजेता था।

भारत पर सिकन्दर का आक्रमण

सिकन्दर ने अपनी प्रारम्भिक विजयों तथा निकटवर्ती राज्यों को विजय कर भारत को विजय करने हेतु अपनी योजना बनायी। भारतवर्ष में अपार धन सम्पत्ति थी जिस कारण उसे 'सोने की चिड़िया' कहा जाता था। इस महत्वाकांक्षा ने भी उसे यहाँ आक्रमण करने हेतु प्रेरित किया। सिकन्दर ने : में अपनी विशाल सेना को दो भागों में बाँटकर एक भाग को अपने अधीन रखा और दूसरे भाग को हैफेश्चन और पार्डिक्कस की अधीनता में भारत की ओर भेजा। सिकन्दर ने स्वयं उत्तरी भारत पर विजय करने का निश्चय किया।

जनजातीय शासक के संघर्ष - भारतवर्ष पर आक्रमण करने के समय सर्वप्रथम उसे जनजातीय हस्ति से लड़ना पड़ा था जिसकी राजधानी पुष्कलवती थी। तीस दिन तक वह अपने किले में सिकन्दर की फौजों से घिरा रहा परन्तु अन्त में वह युद्ध में मारा गया। अश्वायण और अश्वकायण अन्तिम समय तक लड़े। इस युद्ध में 2,30,000 बैल यूनानी नरेश को प्राप्त हुए। इस युद्ध में 40,000 लोग कैदी बनाये गये।

अश्वकायणों की सेना में 30,000 अश्वारोही, 38,000 पदाति, 7,000 किराये के सैनिक और 60 हाथी थे। सभी सैनिक मसकवती तट पर मस्सर्ग दुर्ग में इकट्ठे हुए जिसका नेतृत्व बहादुर वीराणी रानी कृपा ने किया "वे अन्तिम साँस तक अपने देश की रक्षा के लिए लड़े।' इस युद्ध में अपूर्व उत्साह के साथ स्त्रियों ने भी भाग लिया। अन्त में विजयश्री सिकन्दर के हाथ लगी। असंख्य सैनिक मारे गये। उसने ओनर्स, बजीरा, ओरा, दिर्ता नगरों पर विजय प्राप्त कर ली। इस प्रकार सिकन्दर ने पहाड़ी क्षेत्र में अपनी स्थिति को दृढ़ करने के बाद सिन्धु के पार की विजय योजना बनाई।

आम्भि द्वारा स्वागत - सिकन्दर ने तक्षशिला के राजा आम्भि के पास अपना राजदूत भेजा। आम्भि ने राजदूत का स्वागत किया और आत्मसमर्पण कर दिया तथा यूनानी नरेश को उपहार भी भेजे ताकि वह प्रसन्न हो सके। आम्भि ने सिकन्दर की अधीनता भी स्वीकर कर ली।

अभिसार जाति द्वारा अधीनता - तक्षशिला के राजा आम्भि द्वारा अधीनता स्वीकार कर लेने के बाद अभिसार के राजा ने अपने प्रतिनिधि सिकन्दर के पास भेजकर अधीनता स्वीकार कर ली।

सिकन्दर और पुरु

सिकन्दर प्रारम्भिक विजयों को प्राप्त करता हुआ झेलम तक आ पहुँचा। उसने अपना दूत झेलम प्रदेश के राजा पोरस या पुरु के दरबार में भेजा कि वह यूनान सम्राट की अधीनता स्वीकार कर ले परन्तु हिन्दू सम्राट पोरस ने दूत से स्पष्ट शब्दों में कह दिया कि सिकन्दर का स्वागत दरबार में नहीं अपितु रणस्थल में होगा। अतः दोनों पक्षों में युद्ध होना अनिवार्य हो गया। दोनों ओर से युद्ध की तैयारियाँ होने लगीं।
युद्ध के कारण - इस प्रदेश पर अर्थात् पुरु पर सिकन्दर के आक्रमण के निम्नलिखित कारण थे -
1. आम्भि और पुरु की शत्रुता प्राचीन होने के कारण आम्भि ने सिकन्दर की सहायता की और आक्रमण करने के लिए प्रेरित किया।
2. सिकन्दर भारत पर पूर्ण विजय करना चाहता था। इसलिये उसने इस क्षेत्र पर आक्रमण किया।
3. सिकन्दर धन लूटने की इच्छा से आया था। उसे यहाँ पर अपार धन मिलने की सम्भावना थी।
4. सिकन्दर द्वारा भेजे गये राजदूत द्वारा पुरु का यह कहलवाना 'स्वागत युद्ध क्षेत्र में होगा' भी युद्ध का कारण बना।

पुरु की सैन्य-शक्ति - एरियन के अनुसार पोरस की सेना में 30,000 पदाति, 4,000 अश्वारोही, 300 रथ तथा 200 हाथी थे और उनके पुत्र की सेना में 2,000 पैदल और 150 रथ थे। प्लूटार्क ने रथों की संख्या 1000 तथा हाथियों की संख्या 130 लिखी है।

सिकन्दर की सैन्य-शक्ति - सिकन्दर की सेना में मध्य एशिया, यूनान, मिस्र, मकदूनियाँ आदि के 11 हजार वीर सैनिक थे जिसका नेतृत्व विश्वविख्यात यशस्वी वीर सिकन्दर कर रहा था। सिकन्दर की सेना के बारे में इतिहासकार वेबन (Bevan) ने लिखा है कि उसकी सेना में तमाम तत्वों का सम्मिलन था।

"But mingled with the Europeans were men of many nations. Here were troops of horsemen representing the chivalry of larn, which had followed Alexander from Bacteria and beyond, Pasthus and men of the Hindukush with their Highland tired Horses, central Asiatics who could ride and shoot at the same time and among the camp-followers one could find groups representing the older civilisation of the world. Phomenicians inherited an immortal tradition of ship-craft and trade. Bronze Egyptians able to confront the Indians with an antiquity still longer than their own.'

विदेशी लेखक हार्न के अनुसार सिकन्दर की सेना में 35,000 सैनिक थे।
दोनों सेनाओं का सामना - सिकन्दर और पुरु की सेनाएं हाईडेस्पेस अथवा झेलम नदी के आर-पार एक-दूसरे के सामने आयीं। शत्रु के प्रबल विरोध के कारण सिकन्दर नदी नहीं पार कर सका।
कूटनीतिक चाल - सिकन्दर ने इस परिस्थिति में कूटनीति से काम लिया और उसने अपनी योजनानुसार सैनिकों में बहुत ही तेजी के साथ शोर करवाया कि हम यहीं से नदी पार करेंगे (क्योंकि नदी में भीषण बाढ़ भी आयी थी) जिससे पुरु की सेना का ध्यान यहीं पर केन्द्रित रहे, अन्यत्र नहीं, फलतः ऐसा ही हुआ। सिकन्दर ने अवसर उपयुक्त समझकर 16 मील ऊपर जाकर नदी को पार किया और पुरु पर आक्रमण कर दिया।

झेलम का युद्ध - रात्रि के समय अकस्मात आक्रमण से पुरु सन्न रह गया जिसका समर्थन एरियन ने भी किया है। इस युद्ध में पुरु को अपने हाथियों पर विश्वास था। अतः उसने हाथियों को सबसे आगे रखा, पीछे पैदल सेना और दोनों ओर घुड़सवार। इस युद्ध-रचना को देखकर सिकन्दर यह समझ गया कि घुड़सवार हाथियों का सामना नहीं कर सकते। इस स्थिति में सिकन्दर ने अपने सेनापति सेल्यूकस तथा कोनोस के नेतृत्व में अधिक से अधिक घुड़सवार देकर युद्ध प्रारम्भ कर दिया। दोनों सेनाओं
भयंकर यद्ध हआ। ऐसा आभास होने लगा कि पुरु की सेना छिन्न-भिन्न हो गयी और सफलता सिकन्दर के हाथ लगी। दोनों पक्षों को अपार क्षति उठानी पड़ी और सिकन्दर को पुरु की वीरता का लोहा मानना पड़ा। फिर भी पुरु को बन्दी बना दिया गया।

सिकन्दर और पुरु के सम्बन्ध - सिकन्दर ने पुरु से पूछा - तुम्हारे साथ कैसा व्यवहार किया जाय तो उसने निर्भीकतापूर्वक जवाब दिया "जैसाकि एक राजा दूसरे राजा के साथ व्यवहार करता है।" इस वाक्य से सिकन्दर अत्यन्त प्रभावित हुआ और उसने उसका राज्य वापस लौटा दिया और उसने उसे अपना अधिराज भी मान लिया। इस विजय के उपलक्ष्य में सिकन्दर ने झेलम नदी के तट पर बुकफाला और निकेया नामक नगरों की स्थापना की।

पुरु की पराजय के कारण
(Reasons of Defeat of Puru

पुरु की पराजय के बारे में विद्वानों की भिन्न-भिन्न राय है। डा. वी. ए. स्मिथ के अनुसार "हिमालय से लेकर समुद्र तक सिकन्दर की विजय यात्रा से यूरोपीय दक्षता और अनुशासन के समक्ष सबसे बड़ी एशियाई सेनाओं की आन्तरिक कमजोरी का प्रमाण मिलता है। लेकिन अन्य विद्वान केवल अयोग्य नेतृत्व को ही पराजय का कारण मानते हैं। वैसे पुरु की पराजय के निम्नलिखित कारण थे -

1. आम्भि ने पुरु की सहायता नहीं की अपितु सिकन्दर को सहायता प्रदान की।
2. अन्य निकटवर्ती शासकों का असहयोग भी पराजय का कारण बना।
3. पुरु की सेना में अधिकांशतः हाथियों की शक्ति थी पर घुड़सवार सेना की मार से वे विचलित होकर अपनी ही सेना को कुचलने के परिणामतः सिकन्दर विजयी हुआ।
4. वर्षा हो जाने के कारण पुरु की सेना के रथ कीचड़ में फंस गये फलतः युद्ध में वे अधिक उपयोग न आ सके अतः पराजय का कारण बने।
5. सिकन्दर द्वारा अचानक और जोर से आक्रमण करने के कारण सफलता मिली जबकि पुरु की सेना युद्ध के लिए तैयार नहीं थी।
6. वर्षा के कारण पुरु की सेना नदी की घाटी में थी जबकि सिकन्दर की सेना ऊपरी भाग में थी जिस कारण उन पर वर्षा के कीचड़ का असर नहीं हो रहा था। अतः आसानी से पुरु की सेना पर वार कर सकते थे। इस कारण भी पुरु की पराजय हुई।
7. यूनानियों की अपेक्षा भारतीय सैनिक यूरोपीय युद्ध कौशल से अनभिज्ञ होने के कारण कुशलता और सक्षमता से युद्ध नहीं कर सके । फलतः पराजय हाथ लगी।
8. सिकन्दर की सैन्य व्यूह-रचना द्वारा पुरु की सैन्य व्यवस्था को छिन्न-भिन्न कर देना भी उसकी पराजय का कारण बना।
उपर्युक्त तथ्यों से स्पष्ट है कि पुरु अत्यन्त वीर, साहसी, स्वाभिमानी और पराक्रमी शासक था। स्वयं सिकन्दर ने पुरु की प्रशंसा की है।
इस प्रकार यह सिद्ध होता है कि पुरु की पराजय केवल परिस्थितियों की पराजय थी न कि वीरता की क्योंकि वीरता में दोनों सेनाएं किसी से जरा सी भी कम न थीं।

चिनाव तथा रावी के बीच प्रदेशों की विजय - सिकन्दर ने चिनाव को घेरकर इसके बीच राज्य करने वाली कथेथोई जाति पर आक्रमण करने का निश्चय किया। कथेथोई अपनी वीरता के लिए प्रसिद्ध थी। भयंकर युद्ध के पश्चात् उसकी राजधानी सांगला को अधिकार में कर लिया गया । इस युद्ध में 7,000 व्यक्ति मारे गये और 70,000 बन्दी बनाये गये। इस तरह इस प्रदेश पर पुरु की सहायता से उसने विजय प्राप्त की।

सौभूति राज्य द्वारा समर्पण - कथेथोई जाति के भयंकर विनाश को देखकर सौभूति राज्य ने बिना युद्ध किये ही आत्मसमर्पण कर दिया।

सिकन्दर की सेना द्वारा आगे बढ़ने से इंकार
(Denial to Proceed Onward by the Army of Alexander)

व्यास तथा हाइकेसिस पहुँचकर सिकन्दर की सेनाओं ने आगे बढ़ने से इंकार कर दिया । सिकन्दर ने अपने आकर्षक भाषण द्वारा सैनिकों को प्रभावित करने का प्रयास कि अन्त में कोयनस ने सैनिकों की ओर से उत्तर दिया "जब थंस्सालियन युद्ध करने के योग्य न रहे तो आपने उन्हें वापस घर भेज दिया। शेष यूनानियों में से कुछ उन नगरों में बस गये जिनकी आपने स्थापना की, लेकिन वे सब यहाँ रहने के इच्छुक नहीं थे तथा बाकी लोग हमारे साथ कठिनाई का सामना कर रहे हैं। उन्होंने और मकदूनिया की सेना ने युद्ध में बहुत-से सैनिक खो दिये हैं। कई घावों के कारण अयोग्य हो गये हैं, बहुत से यूनानियों को एशिया के विभिन्न भागों में छोड़ दिया गया है। लेकिन अधिकांश बीमारी के शिकार हो गये हैं। इतनी बड़ी सत्ता में थोड़े से ही सैनिक बच रहे हैं और उनका भी पहले की तरह शारीरिक बल नहीं है और उनकी आत्माएं तो और भी खिन्न हैं। आप स्वयं देख लीजिए, हमारे साथ कितने मकदूनियन और यूनानी आये थे और कितने बाकी रह गये हैं।" उसने अपना भाषण निम्न शब्दों में समाप्त किया। सम्राट ! सफलता के उमड़ते हुए समुद्र में संयम एक उत्तम गुण है। क्योंकि यद्यपि इतनी बड़ी सेना के नेता होकर किसी मानवीय शत्रु से डरने की आवश्यकता नहीं लेकिन ईश्वर की क्रोधाग्नि को कोई नहीं जानता और उससे बचना मनुष्य के लिए सम्भव नहीं है। उसके भाषण का सभी सैनिकों ने जोरदार समर्थन किया।

सिकन्दर की वापसी के कारण
(Causes of Return of Alexander)

326 ई. पू. में सिकन्दर ने भारत से वापस जाने का निर्णय कर लिया जिसके निम्नलिखित कारण थे -

सैनिकों का थकना - सिकन्दर के सैनिक युद्ध करते-करते थक गये थे। उसके बहुत से सैनिक युद्ध में मारे गये थे तथा घर छोड़े भी काफी समय हो चुका था। अतः सेना वापस स्वदेश लौट जाना चाहती थी।

निरन्तर युद्ध से कमी - एक के बाद एक निरन्तर युद्धों में व्यस्त रहने के कारण युद्ध-सामग्री तथा वस्त्रों की कमी होने लगी फलतः वापसी की माँग होने लगी।

प्रतिकूल जलवायु - सिकन्दर के सैनिकों को भारत में अनुकूल जलवायु न प्राप्त होने के कारण वे परेशान होने लगे थे। इस कारण भी वह वापस जाना चाहते थे।

विजित प्रदेशों में विद्रोह - सिकन्दर ने जिन प्रदेशों को विजय किया था उन प्रदेशों में विद्रोह होने प्रारम्भ होने लगे फलतः उसकी वापसी हुई।
भारतीय पराक्रम से प्रभावित - सिकन्दर के सैनिक युद्ध में काफी घायल और अपंग हो गये थे तथा भारत के अद्भुत शौर्य और पराक्रम से प्रभावित थे। इस कारण भी सिकन्दर की वापसी हुई।
झेलम की स्थिति से निराशा - झेलम के तट पर पुरु की सेना के पराक्रम को देखकर यूनानियों को अत्यन्त निराशा हुई। सिकन्दर ने स्वयं महसूस किया कि उसका सामना भयंकर शत्रु से हुआ है। एरियन भारतीय सैनिकों की वीरता के बारे में लिखता है कि "एशिया भर की समस्त जातियों में भारतीयों का पराक्रम एवं युद्ध-कला अनुपम है।''
कठों की वीरता से यूनानी आतंकित - इस युद्ध में कठ इतनी वीरता से लड़े कि यूनानियों के हौसले पस्त हो गये। परन्तु पुरु के 5,000 सैनिकों की सहायता के कारण ही सफलता मिल सकी थी।
मगध की शक्ति से सैनिकों में आतंक - सिकन्दर को सैनिकों को व्यास नदी पार करने के बाद
यह खबर मिली कि गंगा के पार का राजा अत्यन्त बहादुर है तथा वह आक्रमण की प्रतीक्षा में है। अतः मगध सम्राट महापद्मनन्द से खतरा मोल लेना सिकन्दर ने उचित नहीं समझा क्योंकि नन्दराज की शक्ति अत्यन्त विशाल थी।

सिकन्दर ने भारत से लौटते समय अपनी विजय के उपलक्ष्य में व्यास के तट पर स्तम्भों का निर्माण कराया और अपने जीते हुए साम्राज्य को 6 भागों में बाँटा। तीन भाग पश्चिम की ओर और तीन भाग पूर्व की ओर। इस प्रकार क्रमशः तीन यूनानी और तीन भारतीय थे। इसके पश्चात् सिकन्दर ने 2,000 नौकाओं का प्रबन्ध कर झेलम को पार किया। इसी बीच उसका सबसे प्रिय सेनापति कोयनम का स्वर्गवास हो गया। नवम्बर, 326 ई. पू. को सिकन्दर की सेना जल और थल दो भागों में विभक्त होकर स्वदेश रवाना हो गई।

सिकन्दर की वापसी के दौरान मार्ग में कठिनाइयाँ

सिकन्दर को लौटते समय निम्नलिखित कठिनाइयों का सामना करना पड़ा -

मेल्लोर्ड और ऑक्सिडेकोर्ड गणतन्त्रों से सामना . जब सिकन्दर की सेना रावी नदी के निचले भाग में पहुँची तो यहाँ के निवासियों ने उन्हें परेशान करना आरम्भ कर दिया। फलस्वरूप युद्ध हुआ। इस युद्ध में ब्राह्मणों ने भी भाग लिया और सिकन्दर भी इस युद्ध में घायल हुआ। लोगों का इस युद्ध में अन्धाधुन्ध संहार हुआ। इस गणतन्त्र की शैन्य-शक्ति पर्याप्त थी जिसमें 10,000 पदाति, 10,000 घुड़सवार एवं 100 से ज्यादा रथ थे।

यूसीकेनस द्वारा आत्मसमर्पण से इन्कार - सिकन्दर की सेना जब सिन्धु की तराई में पहुँची तो यूसीकेनस ने समर्पण करने से इन्कार कर दिया फलतः सिन्ध के गवर्नर से युद्ध हुआ और उसे पराजित किया।

इस प्रकार बढ़ती हुई सेनाएं पातला तक पहुँच गयीं और यहीं से अन्तिम प्रस्थान की तैयारी की गई।

सिकन्दर की मृत्यु - उसकी समस्त सेना 323 ई. पू. में सूसा पहुँच गयी परन्तु अचानक सिकन्दर के बीमार हो जाने से 33 वर्ष की आयु में बगदाद के निकट बेबिलोन में उसकी मृत्यु हो गयी। कुछ विद्वान उसके बारे में कहते हैं कि "तेरह वर्ष की अवधि में उसने कई जीवनों की शक्ति को भर दिया था।''

सिकन्दर की मृत्यु के पश्चात् उसके शासन की स्थिति
(Situation of Alexander's Administration after his Death)

सिकन्दर की मृत्यु के पश्चात् उसके साम्राज्य के टुकड़े-टुकड़े हो गये। जब वह मार्ग में था तभी उसके भारतीय क्षत्रप की हत्या कर दी गयी थी। चन्द्रगुप्त और चाणक्य ने भारत को यूनानी आधिपत्य से मुक्त कराया। मकदनिया में एण्टीगोनस ने अपना राज्य स्थापित किया। एशिया माइनर प्रदेश पर सेल्यकस ने अपना राज्य स्थापित किया। मिस्र के ऊपर सिकन्दर के एक सेनापति शल्मी ने अपना अधिकार कर लिया | इस प्रकार सिकन्दर का साम्राज्य बिल्कुल अस्थायी सिद्ध हुआ जो उसकी मृत्यु के बाद एक दीवाल की भाँति ढह गया।

सिकन्दर के आक्रमण से भारतीयों की पराजय के कारण
(Causes of Defeat of Indians by Invasion of Alexander)
यूनानी शक्ति से भारतीयों की पराजय के मुख्य कारण निम्नलिखित थे -
1. आपसी वैमनस्य,
2. कुशल नेतृत्व का अभाव,
3. संगठन क्षमता का अभाव,
4. सिकन्दर का व्यक्तित्व,
5. यूनानियों को युद्ध की नवीन शैली का ज्ञान होना।

इस सम्बन्ध में डा. वी. ए. स्मिथ का विचार है कि, "हिमालय से समुद्र तक सिकन्दर की विजय यात्रा से यूरोपीय दक्षता और अनुशासन के समक्ष सबसे बड़ी एशियाई सेनाओं की आन्तरिक कमजोरी का प्रमाण मिलता है।

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