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ईजी नोट्स-2019 बी. ए. प्रथम वर्ष प्राचीन इतिहास प्रथम प्रश्नपत्र

ईजी नोट्स

प्रकाशक : एपसाइलन बुक्स प्रकाशित वर्ष : 2018
पृष्ठ :136
मुखपृष्ठ : पेपरबैक
पुस्तक क्रमांक : 2011
आईएसबीएन :0

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बी. ए. प्रथम वर्ष प्राचीन इतिहास प्रथम प्रश्नपत्र के नवीनतम पाठ्यक्रमानुसार हिन्दी माध्यम में सहायक-पुस्तक।


प्रश्न 4. कनिष्क की सांस्कृतिक उपलब्धियों का वर्णन कीजिए।
अथवा
कनिष्क की सांस्कृतिक उपलब्धियों के विषय में आप क्या जानते हैं ? 

उत्तर -कनिष्क की सांस्कृतिक उपलब्धियाँ

कनिष्क निश्चित रूप से भारत के कुषाण राजाओं में सबसे महान था। उसने अपने शासनकाल में सांस्कृतिक दृष्टि से महान उपलब्धियाँ प्राप्त की। इन उपलब्धियों को निम्न प्रकार से समझा जा सकता है-

1. बौद्ध धर्म का संरक्षण - कनिष्क बौद्ध धर्मानुयायी था। बौद्ध ग्रन्थकारों के अनुसार वह पहले किसी भी धर्म में विश्वास नहीं करता था परन्तु बाद में उसने बौद्ध धर्म को स्वीकार कर लिया जिसके प्रभावस्वरूप वह अपनी निर्दयी एवं अत्याचार की प्रवृत्ति को छोड़कर उदार तथा सदाचारी बन गया। परन्तु बौद्ध ग्रन्थकारों के इस प्रकार के विवरण युक्तिसंगत नहीं प्रतीत होते, क्योंकि उसके द्वारा प्रचलित प्रारम्भिक काल के सिक्कों पर विभिन्न धर्म से सम्बन्धित अनेक देवी-देवताओं की आकृतियाँ मिली हैं। इन्हें देखकर कुछ विद्धानों की धारणा है कि कनिष्क बौद्ध धर्म अपनाने के पहले विभिन्न धर्मों को मानता था। परन्तु यह कथन भी युक्तिसंगत प्रतीत नहीं होता, क्योंकि एक समय में एक ही धर्म की मान्यता कोई भी व्यक्ति दे सकता है। यह बात दूसरी है कि वह विभिन्न धर्मों के प्रति उदार एवं सहिष्णु दृष्टिकोण भले ही रखे। कनिष्क के समय के सिक्कों पर अनेक बौद्ध धर्म की सम्बन्धी आकृतियाँ, उसके द्वारा निर्मित बौद्ध धर्म सम्बन्धी स्मारक तथा विदेशी यात्रियों द्वारा प्रस्तुत साक्ष्य इस बात के प्रमाण है कि कनिष्क बौद्ध था, भले ही प्रारम्भिक जीवन में वह अपने पूर्वजों की तरह शैव अथवा सूर्योपासक रहा हो।

कनिष्क के शासनकाल में कश्मीर के कुण्डलबन नामक स्थान में बौद्ध धर्म की चतुर्थ संगीति का आयोजन किया गया था। इसकी अध्यक्षता प्रसिद्ध बौद्ध विद्वान वसुमित्र ने की थी तथा अश्वघोष उपाध्यक्ष बनाये गये थे। इस संगीति में बौद्ध त्रिपिटकों के प्रमाणिक पाठ तैयार हुए तथा ‘विभाषाशास्त्र' आदि बौद्ध ग्रन्थों का संकलन किया गया। कनिष्क के समय में बौद्ध धर्म स्पष्टतः दो सम्प्रदायों में बँट गया - (i) हीनयान, (ii) महायान । बौद्ध धर्म की महायान शाखा को ही उसने राज्याश्रय प्रदान किया तथा स्वदेश एवं विदेश में उसका प्रचार-प्रसार करवाया।

2. साहित्यिक प्रगति - कनिष्क का शासनकाल साहित्य की उन्नति के लिए भी प्रसिद्ध है। वह विद्या का उदार संरक्षक था। उसके दरबार मे उच्चकोटि के विद्वान और दार्शनिक निवास करते थे। उसने संस्कृत-साहित्य के भण्डार को बहुत अधिक भरा। उसके दरबार में वसुमित्र, अश्वघोष, नागार्जुन तथा पार्श्व प्रमुख विद्वानों में थे। इनमें से अश्वघोष का नाम सर्वप्रमुख है। वह कनिष्क का राजकवि था। अश्वघोष ने ही बुद्धचरित, सौन्दरनन्द तथा शारिपुत्रप्रकरण जैसी प्रमुख रचनाएँ रची थी।

बौद्ध विद्वानों और दार्शनिकों के साथ ही कनिष्क के दरबार में चरक जैसा महान चिकित्सक भी था, जिसने 'चरक संहिता' नामक ग्रन्थ लिखा था। यह ग्रन्थ चिकित्साशास्त्र का एकमात्र प्रमाणिक और मौलिक ग्रन्थ माना जाता है। कनिष्क के समय में दर्शन और विज्ञान के साथ संस्कृत साहित्य की भी विशेष प्रगति हुई। बौद्ध साहित्य अब पालि का माध्यम छोड़कर संस्कृत में विकसित हुआ। संस्कृत बौद्ध ग्रन्थों का अनुवाद विदेशी भाषाओं में भी होने लगा।

3. कला एवं स्थापत्य - कनिष्क की विशिष्ट देन कला एवं स्थापत्य के क्षेत्र में है। उसने भारतीय कला की गतिविधि को ही परिवर्तित कर दिया। उसने अपने शासनकाल में अनेक स्तूपों तथा विहारों का निर्माण करवाया। उसने अपनी राजधानी पुरुषपुर (पेशावर) में 400 फीट ऊँचा विशाल स्तूप बनवाया था जिसकी वेदिका 150 फीट ऊँची थी। कनिष्क के काल की कला ही वह पहली कला है, जिसमें हम मानव आकृति में देव मूर्तियाँ, विशेषतया भगवान बुद्ध की मूर्ति देखते हैं। ये मूर्तियाँ कनिष्क की राजधानी पेशावर के पास पड़ोस में बनी थीं, इसलिए इस कला को एक विशेष नाम 'गांधार कला' तथा इस केन्द्र को "गांधार केन्द्र' कहते है। इसके अतिरिक्त पड़ोसी केन्द्र मथुरा में भी इस समय इसी प्रकार की कलाकृतियाँ बनने लगी थीं। लेकिन इनमें अन्तर यह था कि गांधार की मूर्तियाँ काले अथवा स्लेटी रंग के पत्थर की बनीं और मथुरा की मूर्तियाँ लाल चित्तीदार पत्थर की। बुद्ध के साथ-साथ राजकुमार की आकृति में  बोधिसत्व की भी मूर्तियाँ बनने लगीं। हाथों की मुद्राओं का निर्माण मूर्तियों में सर्वप्रथम कनिष्क के काल में ही देखने को मिलता है।

कनिष्क के शासनकाल में कला के क्षेत्र में निम्नलिखित दो स्वतन्त्र शैलियों का विकास हुआ -

(i) गन्धार कला शैली - यूनानी कला के प्रभाव से देश के पश्चिमोत्तर प्रदेशों में कला की जिस नवीन शैली का उदय हुआ उसे 'गन्धार कला शैली' कहा जाता है। इस शैली के अन्तर्गत बुद्ध एवं बोधिसत्वों की बहुसंख्यक मूर्तियों का निर्माण किया गया। इन मूर्तियों में बुद्ध के ध्यान, पदमासन, धर्मचक्र प्रर्वतन, वरद तथा अभय आदि मुद्राओं को दिखाया गया है। बुद्ध एवं बोधिसत्व मूर्तियों के अतिरिक्त गन्धार शैली की कुछ देवी मूर्तियाँ भी मिलती हैं। इनमें हारीति तथा रोमा अथवा एथिना देवी की मूर्तियाँ विशेष रूप से उल्लेखनीय हैं।

(ii) मथुरा कला शैली - कनिष्क के काल में मथुरा भी कला का प्रमुख केन्द्र था। इस समय तक शिल्पकारी एवं मूर्ति के निर्माण के लिए मथुरा के कलाकार दूर-दूर तक प्रख्यात हो चुके थे। प्रारम्भ में यह माना जाता था कि गन्धार की बौद्ध मूर्तियों के प्रभाव एवं अनुकरण पर ही मथुरा की बौद्ध मूर्तियों का निर्माण हुआ था, परन्तु अब यह स्पष्टतः सिद्ध हो चुका है कि मथुरा की बौद्ध मूर्तियाँ गन्धार से सर्वथा स्वतन्त्र थीं तथा उनका आधार मूल रूप से भारतीय ही था। मथुरा से बुद्ध एवं बोधिसत्वों की खड़ी तथा बैठी हुई मुद्रा की मूर्तियाँ मिली हैं। उनके व्यक्तित्व में चक्रवर्ती तथा योगी दोनों का ही आदर्श देखने को मिलता है। मथुरा के शिल्पियों ने हिन्दू एवं जैन मूर्तियों का भी निर्माण किया था। हिन्दू देवताओं में विष्णु, सूर्य, शिव, कुबेर, नाग, यक्ष की पाषाण प्रतिमाएँ प्राप्त हुई हैं जो सुन्दर एवं कलापूर्ण हैं।

इस प्रकार हम कह सकते है कि यद्यपि कनिष्क एक विदेशी शासक था, फिर भी उसने भारतीय संस्कृति में अपने को पूर्णतया विलीन कर दिया। उसने भारतीय धर्म, कला एवं विद्वता को संरक्षण प्रदान किया और इस प्रकार उसने मध्य तथा पूर्वी एशिया में भारतीय संस्कृति का प्रवेश द्वार खोल दिया।

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