प्रश्न 3 - छठी शताब्दी ई.पू. में महाजनपदीय एवं गणराज्यों की शासन प्रणाली
के अन्तर को स्पष्ट कीजिए।
उत्तर - महाजनपद - छठी शताब्दी ई.पू. के प्रारम्भ में उत्तर भारत अनेक
स्वतन्त्र राज्यों में विभक्त था। बौद्ध ग्रन्थ अंगत्तर निकाय के अनुसार उस
समय सम्पूर्ण उत्तरी भारत 16 बडे़ राज्यों में विभाजित था जिन्हें 'सोलह
महाजनपद' कहा गया है। इस ग्रन्थ में इनके नाम इस प्रकार मिलते हैं :
1. काशी, 2. कोशल, 3. अंग, 4. मगध, 5. वज्जि, 6. मल्ल, 7. वत्स, 8. चेदि, 9.
कुरु, 10. पंचाल, 11. मत्स्य, 12. सूरसेन, 13. अश्मक, 14. अवन्ति, 15.
गन्धार, 16. कम्बोज।
गणराज्य - प्रारम्भ में अधिकांश इतिहासकारों की धारणा थी कि प्राचीन भारत में
केवल महाजनपद ही थे परन्तु बाद की खोजों से यह तथ्य प्रकाश में आया कि
प्राचीन भारत में महाजनपदों के साथ-साथ गणराज्यों (संघ राज्यों) का भी
अस्तित्व था। बुद्ध काल में गंगा घाटी में कई गणराज्यों के अस्तित्व के
प्रमाण मिलते हैं, जो इस प्रकार हैं :
1. कपिलवस्तु के शाक्य, 2. सुमसुमार पर्वत के भग्ग, 3. अलकप्प के बुलि, 4.
केसपुत्त के कालाम, 5. रामग्राम के कोलिय, 6. कुशीनारा के मल्ल, 7. पावा के
मल्ल, 8. पिप्पलिवन के मोरिय, 9. वैशाली के लिच्छवि, 10. मिथिला के विदेह।
महाजनपदों तथा गणराज्यों में अन्तर
प्राचीन साहित्य में अनेक स्थानों को गणतन्त्र से भिन्न बताया गया है।
'अवदानशतक' से ज्ञात होता है कि मध्य प्रदेश के कुछ व्यापारी दक्षिण गये जहाँ
के लोगों ने उनसे उत्तर भारत की शासन व्यवस्था के विषय में पूछा। उत्तर में
उन्होंने बताया कि 'कुछ देश गणों के अधीन हैं तथा कुछ राजाओं के' (केचिद्देशा
गणाधीनाः केचिद्राजाधीनाः)। 'अचारांगसूत्र' जैन भिक्षु को यह चेतावनी देता है
कि उसे उस स्थान में नहीं जाना चाहिए जहाँ गणतन्त्र का शासन हो। 'संघ' गण का
पर्यायवाची था। पाणिनि ने संघ को राजतन्त्र से स्पष्टतया भिन्न बताया है।
कौटिल्य के अर्थशास्त्र में दो प्रकार के संघ राज्यों का उल्लेख मिलता है -
वार्त्ताशस्त्रोपजीवी तथा राजशब्दोपजीवी। प्रथम के अन्तर्गत कम्बोज,
सुराष्ट्र आदि तथा दूसरे के अन्तर्गत लिच्छवि, वज्जि, मल्ल, मद्र, कुकुर,
पंचाल आदि की गणना की गई है। स्पष्ट रूप से 'राजशब्दोपजीवी' संघ से तात्पर्य
उन गणराज्यों से ही है जो 'राजा' की उपाधि का प्रयोग करते थे। महाभारत में भी
गणराज्यों का उल्लेख मिलता है।
भारतीय साहित्य के अतिरिक्त यूनानी-रोमन लेखकों के विवरण से भी प्राचीन भारत
में गणराज्यों का अस्तित्व प्रमाणित होता है। इससे ज्ञात होता है कि सिकन्दर
के आक्रमण के समय पंजाब तथा सिंध में कई गणराज्य थे जो राजतन्त्रों से भिन्न
थे। मुद्रा सम्बन्धी प्रमाणों से भी गणराज्यों का अस्तित्व सिद्ध होता है।
मालव यौधेय, अर्जुनायन आदि अनेक गणराज्यों के सिक्के राजा का उल्लेख न कर गण
का ही उल्लेख करते हैं। इस प्रकार स्पष्ट है कि प्राचीन भारत में गणराज्य
राजतन्त्रों से इस अर्थ में भिन्न थे कि उनका शासन किसी वंशानुगत राजा के हाथ
में न होकर गण अथवा संघ के हाथ में होता था।
प्राचीन भारत के गणतन्त्र आधुनिक काल के गणतन्त्र से भिन्न थे। आधुनिक काल
में गणतन्त्र प्रजातन्त्र का समानार्थी है जिसमें शासन की अन्तिम शक्ति जनता
के हाथों में निहित रहती है। प्राचीन भारत के गणतन्त्र इस अर्थ में गणतन्त्र
नहीं कहे जा सकते। उन्हें हम आधुनिक शब्दावली में 'कुलीनतंत्र' अथवा
'अभिजाततन्त्र' कह सकते हैं जिसमें शासन का संचालन सम्पूर्ण प्रजा द्वारा न
होकर किसी कुल विशेष के स । व्यक्तियों द्वारा किया जाता था। उदाहरण के लिये
यदि हम वैशाली के लिच्छवि गणराज्य को लें तो हमें यह कदापि नहीं समझना चाहिए
कि वहाँ के शासन में वैशाली नगर की सम्पूर्ण जनता भाग लेती थी, बल्कि केवल
लिच्छवि कुल के ही प्रमुख व्यक्ति मिलकर शासन चलाते थे।
...Prev | Next...