प्रश्न 2 - आन्ध्र-सातवाहन कौन थे ? गौतमी पुत्र शातकर्णी के राज्य की घटनाओं
का उल्लेख कीजिए।
अथवा
सातवाहनकालीन भारत की सांस्कृतिक अवस्था का संक्षेप में वर्णन कीजिए।
अथवा
सातवाहन के उद्भव एवं मूल स्थान का विवेचन कीजिए।
अथवा
सातवाहन कौन थे ? गौतमीपुत्र श्री सातकर्णी जीवन, चरित्र तथा उपलब्धियों का
मूल्यांकन कीजिए।
सम्बन्धित लघु उत्तरीय
प्रश्न 1. सातवाहनों के मूल निवास के विषय में आप क्या जानते हैं ?
2. सातवाहन वंश पर एक संक्षिप्त टिप्पणी लिखिए।
3. गौतमी पुत्र शातकर्णी का संक्षिप्त वर्णन कीजिए तथा साम्राज्य विस्तार
बताइए।
4. आन्ध्र-सातवाहनों का मूल अभिजन पर टिप्पणी लिखिए।
5. सातवाहनकालीन दक्षिण भारत की सभ्यता व संस्कृति का वर्णन कीजिए।
6. सातवाहन काल की कला व साहित्य का वर्णन कीजिए।
7. गौतमी पुत्र शातकर्णी की उपलब्धियों का संक्षेप में निरूपण कीजिए।
8. सिमुक कौन था ? संक्षेप में लिखिए।
9. सिमुक की जीवन-शैली का वर्णन कीजिए।
10. सातवाहनों के मूल निवास स्थान तथा जाति पर एक संक्षिप्त टिप्पणी लिखिए।
11. गौतमीपुत्र शातकर्णी के जीवन-चरित्र का विवरण दीजिए।
उत्तर
सातवाहनो का उदय काल - सातवाहनों के उदय के विषय में अभी पूर्ण रूप से एकमत
नहीं प्रस्तुत होता है। इस सम्बन्ध में अनेक तर्क-वितर्क प्रस्तुत किये जा
सकते हैं -
1. कुछ विद्वान मत्स्य पुराण के इस आधार पर कि आन्ध्रों ने साढ़े चार सौ वर्ष
राज्य किया, सातवाहनों के शासन का प्रारम्भ तृतीय शती ई. पूर्व के अन्तिम चरण
में मानते हैं, परन्तु इस तिथि पर सभी इतिहासकार एकमत नहीं है।
2. वायुपुराण में इसकी शासन अवधि केवल 300 वर्ष मानी गयी है।
3. डा. भण्डारकर के मतानुसार सातवाहन वंश का आरम्भ प्रायः 72-73 ई. पूर्व में
हुआ था। उनके विचार से पुराणों का यह मत प्रस्तुत है -"सातवाहनों में प्रथम
सिमुक अथवा शिशुक सुशर्मन कण्वायन तथा शेष शुंग शक्ति को उखाड़कर पृथ्वी
स्वायत्त करेगा।' यह सिद्ध करता है कि शुंग, भृव्य, कण्वों ने पेशवों की
भांति अपने स्वामियों के साथ-साथ शासन किया था। परन्तु यदि हम इस विचार को
स्वीकार करें तो उस पौराणिक उल्लेख के साथ, जिसमें वसुदेव कण्व द्वारा शुंग
देवभूति के वध का वर्णन है, कैसे इसका सामंजस्य स्थापित कर सकेंगे।
अतः सातवाहनों द्वारा कण्वों का अन्त 29 ई. पूर्व (अर्थात् 72 ई. पूर्व 45
वर्ष) में हुआ, परन्तु उससे यह किसी प्रकार निर्धारित नहीं होता कि सिमुक
जिसने 23 वर्ष राज्य किया, गद्दी पर इससे पहले अर्थात् प्रथम शती ई. पूर्व के
मध्य में न बैठा हो। काण्ववंश के उत्तराधिकारी सातवाहन या आन्ध्र वंश के
इतिहास की जानकारी के स्त्रोत बहुत कम हैं। पूर्वी दक्षिण में 7 और पश्चिम
दक्षिण में 19 अभिलेख प्राप्त हुए हैं पश्चिम, दक्षिण, मध्य प्रदेश तथा
पूर्वी दक्षिण से प्राप्त सिक्कों को रैप्सन कनिंघम आदि विद्वानों ने
सातवाहनकालीन सिद्ध किया है, जिससे इनके विषय में जानकारी सुलभ होती है। इस
वंश के राजा अपने को सातवाहन अथवा शातकर्णी कहते थे। ऐतरेय ब्राह्मण में
सातवाहनों को अनार्य बताया गया है वरन् वे अनार्य नहीं थे, यह वंश कृष्णा तथा
गोदावरी नदियों के बीच में रहता था। यह स्थान आन्ध्र प्रदेश में आता है, अतः
इस कारण से यह वंश आन्ध्र वंश कहलाया।
सातवाहन वंशों की जाति - शुंगों तथा कण्वों की भांति सातवाहन राज्य ब्राह्मण
थे। इस वंश के राजा गौतमी पुत्र शातकर्णी को 'एक ब्राह्मण तथा परशुराम के
समान शक्ति वाला कहा गया है। इसके साथ ही साथ सातवाहनों के अभिलेखों में दिये
गये गोत्रों के नामों के अनुसार यह ज्ञात होता है कि यह ब्राह्मण वंश के थे
और गौतमी पुत्र और वशिष्ठ पुत्र यह दोनों गोत्र ब्राह्मण के हैं अतः सातवाहन
राजा ब्राह्मण थे।
उत्कर्ष काल - सातवाहनों के उदयकाल के बारे में पर्याप्त मतभेद है।
हाथीगुम्फा अभिलेख की अन्तिम पंक्ति के अनुसार खारवेल नरेश ने सातवाहन सम्राट
गौतमी पुत्र शातकर्णी को पराजित किया था। अतः इससे यह भी सिद्ध होता है कि
सातवाहन राज्य की स्थापना ई. पूर्व प्रथम के आस-पास हुई थी। यही तिथि
सर्वमान्य है।
सातवाहन वंश के प्रमुख राजा
1. सिमुक - नानाघाट के अभिलेख की लिपि ईसा पूर्व प्रथम शताब्दी की है। इस
अभिलेख को सातवाहन नरेश सिमुक की पुत्रवधू ने उत्कीर्ण कराया था, अतः इससे
स्पष्ट होता है कि सातवाहन वंश का संस्थापक सिमुक था। उसकी राजधानी
महाराष्ट्र में गोदावरी नदी पर स्थिति प्रतिष्ठान था। नासिक तथा उसके समीप के
राज्य सिमुक के राज्य के अन्तर्गत थे। पुराणों में सिमुक के बारे में यह
उल्लेख मिलता है कि "आन्ध्र सिमुक और उसके सहजाति लोग सुशर्मा के सेवक
कण्वायनों और (सुशर्मा) पर आक्रमण करेंगे और शुंगों की शक्ति को नष्ट करेंगे
और इस पृथ्वी पर अधिकार करेंगे। यह जैन धर्म का अनुयायी था परन्तु बाद में
इसकी अत्याचारी प्रवृत्ति के कारण हत्या कर दी गयी।
2. कान्ह तथा कृष्ण - यह शिमुक का भाई था। इसने 18 वर्ष तक राज्य किया। इसने
अपने विस्तारनीति के द्वारा सातवाहन साम्राज्य का सुदूर पश्चिम में नासिक तक
फैलाया।
3. शातकर्णी प्रथम - सातवाहनों के विजेता फिर भी अपनी विजय को दीर्घकाल तक न
भोग सके। क्योंकि गौतमी पुत्र शातकर्णी ने उनसे दक्कन शीघ्र छीन लिया था। इस
गौतमी पुत्र शातकर्णी के सफल अभियानों की सुविस्तृत तालिका राजमाता गौतमी बल
श्री के नासिक के अभिलेख में खुदी है। उसमें लिखा है कि गौतमी पुत्र ने
क्षत्रियों का दमन किया और वर्णाश्रम धर्म की फिर से प्रतिष्ठा की। नानाघाट
के अभिलेख के द्वारा यह ज्ञात होता है कि शातकर्णी ने अंगीयवंश के राजा मरहठी
सरदार की कन्या नागालिका अथवा नापालिका से विवाह किया था। उसके सिक्कों पर
उसके श्वसुर कुलीन मरहठी मणक थिवरों का नाम अंकित है। इससे स्पष्ट है कि इस
वैवाहिक सम्बन्ध से सातवाहन वंश की शक्ति में पर्याप्त वृद्धि हुई। इसे
नानाघाट अभिलेख में 'अप्रतिहत-दक्षिणपथ पति' कहा गया है। इससे इस आशय की
जानकारी मिलती है कि इसका अधिकार दक्षिणी भारत पर था। इसने विजय के उपलक्ष्य
में दो अश्वमेघ यज्ञ किये, इसका उल्लेख इसी अभिलेख में होता है। परन्तु
हाथीगुम्फा अभिलेख के अनुसार शातकर्णी को खारवेल से पराजित होना पड़ा था। फिर
भी यह शक्तिशाली राजा था। शातकर्णी की 10 वर्ष के राज्य के बाद अल्पायु में
ही मृत्यु हो गयी थी। यह मगधराज पुष्यमित्र शुंग और कलिंगराज खारवेल का
समकालीन था और 175 ई. पूर्व के लगभग राज्य सिंहासन पर बैठा।
शातकर्णी के उत्तराधिकारी - शातकर्णी के बाद लगभग एक सदी तक सातवाहन वंश ने
कोई विशेष उन्नति नहीं की और यह वंश केवल दक्षिण भारत तक ही सीमित रहा। इसके
उत्तराधिकारियों में वेदिश्री और जातिश्री एवं शातकर्णी द्वितीय तथा हाल के
राज्य के बाद इसी वंश में एक ऐसे सम्राट का जन्म हआ जिसने अपनी कीर्ति चारों
दिशाओं में फैला दी। इस कारण भारतीय इतिहास महत्वपूर्ण स्थान है।
गौतमी पुत्र शातकर्णी (Gautami Putra Shatkarni) - पुराणों के द्वारा
शातकर्णी के उत्तराधिकारियों के विषय में जो जानकारी मिलती है वही गौतमी
पुत्र शातकर्णी के बारे में मिलती है। यह एक प्रसिद्ध क्षत्रप नहपान का
समकालीन था। इसने अपने सीमावर्ती क्षेत्रों से शकों का विनाश किया। नासिक
जिले के जोगलथम्बी नामक स्थान से 3250 सिक्कों का ढेर 1906 ई. में प्राप्त
हुआ है। ये सिक्के शक क्षत्रप नहपान के हैं जिनमें दो-तिहाई सिक्कों पर
शातकर्णी गौतमी पुत्र उल्लिखित है। अतः सिद्ध है कि गौतमी पुत्र शातकर्णी ने
शक क्षत्रप नहपान को पराजित करके उसके सिक्कों पर अपनी मुहर लगवायी। अतः
स्पष्ट है कि उसने अपने वंश की कीर्ति को बढ़ाया। गौतमी पुत्र शातकर्णी की
माता का नाम गौतमी बालश्री था। इसने नासिक में पर्वत पर गुहा उत्कीर्ण करायी
जिसमें इसके प्रतापी पुत्र के बारे में विशिष्ट जानकारी मिलती है। इस लेख में
"असिक असक मुलक सुरठ ककर अपरान्त अनुप विदर्भ आकर और अवन्ति के राजा विक्ष
छबत पारिजात सह्यकान्ह गिरिमच सिरिटव मलय भहिद सेटगिरि चकोर पर्वतों के पति,
जिसके शासन को सब राजा लोगों का मंडल मानता था। क्षत्रियों और मान का मर्दन
करने वाले शक यवन पल्हवों के निषूदक सातवाहन कुल के यश संस्थापक सब मण्डलों
से अभिवादित चरण अनेक समरों में शत्रुसंघ को जीतने वाले एक ब्राह्मण के लिए
सुर्धर्ष सुन्दरपुर के स्वामी आदि उपाधियाँ उल्लिखित मिलती हैं।
साम्राज्य विस्तार - गौतमी पुत्र शातकर्णी ने अपने साम्राज्य का पर्याप्त
विस्तार किया। नासिक गुहालेख के अनुसार उसने यवन, शक, पल्हव आदि का दमन किया।
उसका साम्राज्य नासिक तथा पूना से लेकर मालवा, गुजरात, काठियावाड़ तथा
राजपूताने में पुष्कर. तक फैला था।
गौतमी पुत्र सातकर्णी की विजयों के बारे में जानकारी नासिक गुहालेख से होती
है। इसके अनुसार उसके वाहनों ने तीनों समुद्रों का पानी पिया था। उसका राज्य
गोदावरी का तटवर्ती प्रान्त विदर्भ विदिशा का प्रदेश और अवन्ति गौतमी पुत्र
शातकर्णी के राज्य के अन्तर्गत थे। प्रशस्ति से यह सिद्ध होता है कि वह
सम्पूर्ण दक्षिण का स्वामी था और उसके साथ ही साथ काठियावाढ़, महाराष्ट्र,
अवन्ति प्रदेश भी उसके राज्य के अन्तर्गत आते थे।
सुदृढ़ साम्राज्य की स्थापना - गौतमी पुत्र शातकर्णी के विशाल राज्य की
स्थापना का मुख्य कारण शक, यवन, पल्हवों को पराजित करना था। इन लोगों ने
शातकर्णी के साथ कई युद्ध किये परन्तु सदैव विजयश्री सातवाहन नरेश शातकर्णी
को ही मिली। शकों के अधीनस्थ अवन्ति, अश्मक, सौराष्ट्र आदि प्रान्तों को
शातकर्णी ने इनसे छीनकर अपने राज्य का अंग बनाया। इस प्रकार इसने केवल विशाल
साम्राज्य की स्थापना ही नहीं की वरन् उसे सुदृढ़ भी किया। यह प्रजापालक,
उदार एवं अपराधियों को क्षमा करने वाला भी कहा गया है। जनता पर लगे कर
धर्मानकूल थे। यह ब्राह्मण धर्म का संस्थापक एवं पोषक भी था। इसने चारों
वर्गों में व्याप्त असमानता की भावना को दूर करने का प्रयास किया।
चरित्र - गौतमी पुत्र शातकर्णी महान वीर योद्धा था। वह शान्तिपूर्ण कार्यों
में रुचि लेता था, इसने साम्राज्य में फैली कुप्रथाओं को समाप्त करने में
पूरा सहयोग किया, इसे तेजस्वी, सुन्दर तथा आकर्षक व्यक्तित्व वाला व्यक्ति
कहा गया है। इसकी चाल, सुन्दर भुजाएं व्यक्तित्व को बढ़ाती थीं, वह लोगों की
शक्ति बढ़ाने वाला या आज्ञाकारी शत्रुओं पर प्रहार न करने वाला, सभी
व्यक्तियों का आश्रयदाता, सदाचार की खान, प्रजाहित में रत, न्यायी सम्राट था।
उपाधियाँ - गौतमी पुत्र शातकर्णी को विक्रमादित्य बताने का प्रयास किया गया
है परन्तु यह मत मान्य नहीं है। उसने विक्रम सम्वत् का प्रयोग नहीं किया।
उसकी उपाधि "वर चरण विक्रम चारु विक्रम' थी अर्थात् वह व्यक्ति जिसकी चाल
हाथी की तरह है। इस उपाधि का 'विक्रमादित्य' उपाधि से कोई सम्बन्ध नहीं है।
गौतमी पुत्र शातकर्णी नागार्जुन का समकालीन था, लेकिन यह मत भी मान्य नहीं
है। ह्वेनसांग के अनुसार यह राजा दक्षिण कोशल में राज्य करता था। किन्तु यह
प्रदेश उस सूची में सम्मिलित नहीं है जिसमें गौतमी पुत्र शातकर्णी के
प्रदेशों की गणना की गयी है। कुछ विद्वानों ने यह सुझाव दिया है कि वह
साधारणतः अपने पुत्र वाशिष्ठी पुत्र पुलमावि के साथ राज्य करता था। अभिलेखों
में दोनों का नाम एक साथ होने के कारण यह मत भी स्वीकार नहीं है। इतिहासकारों
के अनुसार इसका समय दूसरी सदी ई. पूर्व है।
मगध सम्राट वाशिष्ठी पुत्र पुलमावि
गौतमी पुत्र शातकर्णी के बाद उसका बेटा वाशिष्ठी पुत्र पुलमावि गद्दी पर बैठा
। पुराणों में इसे पुलोमा कहा गया है। इसका शासनकाल 134 ई. पूर्व से 154 ई.
पू. तक माना जाता है। टालमी के अनुसार वाशिष्ठी पुत्र पुलमावि पराजित हुआ और
साम्राज्य का बहुत बड़ा भू-भाग शकों के हाथ लगा। रैप्सन महोदय ने पुलमावि को
रुद्रदामन का जमाता माना है। आन्ध्र प्रदेश में इसकी अनेक मुद्राएँ मिली हैं,
इससे प्रमाणित होता है कि आन्ध्र उसके अधिकार में था। 155 ई. के लगभग उसका
देहान्त हो गया, इसके बाद शिवा, श्रीशिव स्कन्द ने क्रमशः राज्य किया।
यज्ञश्री शातकर्णी - यज्ञश्री अपने वंश का अन्तिम प्रतापी राजा था। इसका
शासनकाल 165 ई. तक ठहरता है। इसने अपने वंश के गौरव को बढ़ाया। थाना तथा
नासिक अभिलेखों द्वारा साम्राज्य की सीमाओं के विस्तार का भी उल्लेख प्राप्त
होता है। उसके सिक्के काठियावाढ़, गुजरात, पूर्वी मालवा, मध्य प्रान्त और
कृष्णा जनपदों से प्राप्त हुए हैं। सिक्कों के मिलने से स्पष्ट होता है कि
उसका राज्य महाराष्ट्र और आन्ध्र में फैला था, इसने शकों की तरह सिक्के
चलवाये। डा. स्मिथ के अनुसार उसके द्वारा कई अधिकृत राज्यों पर भी अधिकार कर
लिया गया था। कुछ विद्वानों के अनुसार यह एक ऐसा सम्राट था जिसके अधिकार में
महाराष्ट्र और आन्ध्र दोनों प्रदेश थे। उसके शासनकाल में सामुद्रिक व्यापार
में पर्याप्त उन्नत हुई।
पतन - यज्ञश्री शातकर्णी के पश्चात् सातवाहन वंश में कोई भी ऐसा सम्राट नहीं
हुआ जो अपने वंश के साम्राज्य को सुरक्षित रख सकता। सातवाहन साम्राज्य के पतन
के कोई नवीन या आश्चर्यजनक कारण नहीं थे। उत्तराधिकारियों की निर्बलता एवं
अयोग्ता, शासन प्रतिनिधियों की उत्तरदायित्वहीनता एवं अपने स्वतन्त्र राज्य
स्थापित करने की लिप्सा तथा शासन प्रबन्ध की शिथिलता इन सभी कारणों से
सातवाहन राजा शासन की ओर ध्यान न दे सके। इस प्रकार अतिरिक्त शासन दुर्बलता
और बाह्य आक्रमणकारियों ने सातवाहनों की राज्यश्री को उन्मूलित कर दिया। इसके
बाद कई दक्षिणी शक्तियों का विकास हुआ। उसमें महाराष्ट्र में अमीरों की शक्ति
इक्ष्वाकुओं और पल्लवों की शक्तियाँ प्रमुख थीं।
सातवाहनकालीन दक्षिण भारत की सभ्यता एवं संस्कृति
सातवाहनों के युग में सभ्यता और संस्कृति में पर्याप्त उन्नति हुई। सातवाहनों
की सीमायें विदेशी आक्रमणों से सुरक्षित न होने के बावजूद भी यहाँ संस्कृति
और कला की धारा प्रभाहित होती रही। सातवाहनकालीन अभिलेखों एवं साहित्यिक
साक्ष्यों से इस पर पर्याप्त प्रकाश पड़ता है।
सामाजिक जीवन - सातवाहन नरेश ब्राह्मण धर्म के अनुयायी थे। उन्होंने अन्य
किसी धर्मावलम्बियों के साथ अत्याचार का व्यवहार नहीं किया। बौद्ध धर्म को
फूलने-फलने का उन्होंने पूर्ण मौका दिया। प्रमाणों के आधार पर यह भी कहा जा
सकता है कि इस काल के धनी व्यक्तियों ने चैत्यों के निर्माण में पर्याप्त
योगदान दिया। सातवाहन नरेश कट्टर ब्राह्मण थे। उन्होंने वैदिक यज्ञों आदि का
शुभारम्भ किया और अनेक धार्मिक अनुष्ठान किये। अश्वमेघ यज्ञ के अतिरिक्त 20
प्रकार के यज्ञों का उल्लेख मिलता हैं। ब्राह्मण धर्म में शैव तथा वैष्णव
सम्प्रदायों की पर्याप्त उन्नति हुई। सातवाहन युग में शैवों और वैष्णवों का
पर्याप्त जोर था क्योंकि ये धर्म जनता में प्रचलित थे। डा. भण्डारकर के
अनुसार नामों के आधार पर ही शिव के वाहन नन्दी और नाग पूजा होती थी।
सातवाहनकालीन सामाजिक जीवन चार वर्ण - ब्राह्मण, क्षत्रिय, वैश्य एवं शूद्र
में बंटा हुआ था। समकालीन अभिलेखों द्वारा यह ज्ञात होता है कि ब्राह्मणों को
समाज में उच्च स्थान प्राप्त था। शूद्रों को निम्न दृष्टि से देखा जाता था।
परिवार - परिवार समाज की एक इकाई होती थी, इसके प्रमुख कुटुम्बिन परिवार के
मुख्य व्यक्ति होते थे। इसको परिवार के सभी सदस्य आदर देते थे तथा इसकी आज्ञा
का सभी परिवार के लोग आदर करते थे।
आर्थिक व्यवस्था - सातवाहन युग में दक्षिण भारत में कृषि, उद्योग-धन्धे और
व्यापार, आर्थिक जीवन की व्यापक उन्नति हुई। सातवाहनकालीन युग में आर्थिक
जीवन कृषि प्रधान था। इस कारण जनता का अधिकांश वर्ग खेती का कार्य करता था।
उद्योग-धन्धे के साथ-साथ व्यापार में भी उन्नति हुई।
शासन व्यवस्था
(Administration System)
सातवाहनकालीन शासन व्यवस्था स्मृतिकारों के विचारों पर आधारित थी। तत्कालीन
शासन व्यवस्था पर स्मृतिकारों की व्याख्या पर स्मृतिकारों के आदर्शों की छाप
स्पष्ट दिखायी पड़ती है। मौर्यकालीन व्यवस्था का भी सातवाहन शासन व्यवस्था पर
प्रभाव पड़ता था। यद्यपि राजस्व के सिद्धान्तों में पर्याप्त परिवर्तन हो गया
था, फिर भी उनकी भावना मौर्ययुगीन ही थी। कौटिल्य के अनुसार राजा को
लोकानुरंजन पर अधिक ध्यान देना चाहिए। इस सिद्धान्त का पालन सातवाहन नरेश
करते थे। इस काल के राजा अपनी प्रजा को सन्तान की भांति पालते थे जैसकि अशोक
ने किया था। राजकुमारों की शिक्षा-दीक्षा का भी प्रबन्ध था, उच्च
पदाधिकारियों की नियुक्ति के लिए आवश्यक योग्यता होना अनिवार्य था,
मन्त्रियों का वर्गीकरण कर ग्रामवासियों तथा नगरवासियों की व्यवस्था अपनी जगह
पर विशिष्ट थी, सातवाहन नरेश स्वायत्त संस्थाओं के महत्व को भी भली प्रकार
जानते थे।
मंत्रिपरिषद् - इस काल में मंत्रियों को अधिकार प्राप्त थे। रुद्रदामन के
जूनागढ़ अभिलेख से मन्त्रिपरिषद के बारे में विशेष जानकारी मिलती है। उत्तर
पश्चिमी भारत की राजसंस्था में कई महत्वपूर्ण परिवर्तन हुए। तक्षशिला, मथुरा
और उज्जैन में फारसी ढंग से क्षत्रपों की नियुक्ति की गयी। क्षत्रप राज्य
कार्य में मंत्रियों से परामर्श लिया करते थे, लेकिन अधिकांश क्षत्रपों के
कार्य सैन्य थे। जिलाधिकारियों की नियुक्ति का उल्लेख भी इस युग में मिलता
है।
इस काल में स्वाशासन व्यवस्था को पर्याप्त स्थान मिला परन्तु कहीं-कहीं पर
सैनिक शासन प्रचलित था। नगर सभाओं और नगराध्यक्ष नामक अधिकारियों का उल्लेख
मिलता है। ग्रामों के प्रधान को मुखिया कहा जाता था। सातवाहनकालीन अभिलेखों
के द्वारा ग्राम श्रेणी, निगम, जनपद के अपने-अपने निकाय होते थे जिनके
कर्तव्य, अधिकार तथा उत्तरदायित्व एक-दूसरे से काफी भिन्न होते थे, हाँ एक
बात अवश्य है कि कर्तव्यों और उत्तरदायित्वों के सम्बन्ध में स्वशासनमूलक एवं
सैद्धान्तिक समानता में एकरूपता होती थी।
कला तथा साहित्य
(Art and Literature)
सातवाहन काल प्राकृत भाषा के विकास का काल था। सातवाहन राजाओं के सभी अभिलेख
प्राकृत भाषा में मिलते हैं। इस समय का गुणाड्य नामक कवि विशेष प्रसिद्ध था,
जिसका प्रमुख ग्रंथ वृहत्कथा था। एलन के अनुसार सर्ववर्मा ने इसी समय अपने
व्याकरण ग्रन्थ की रचना की थी। इस समय की कला का दर्शन विशेषतः वास्तुकला में
हुआ। इस समय के बनाये हुए अनेक चैत्य और भवन उपलब्ध होते हैं, जो उस समय की
कला के उदाहरण हैं।
इस प्रकार उपर्युक्त विश्लेषण से स्पष्ट है कि सातवाहन काल की संस्कृति और
सभ्यता अपने युग में पराकाष्ठा पर थी जिसका इतिहास में यथोचित स्थान है।
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